मुस्लिम जनसंख्या विस्फोट का मिथक

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जनसांख्यिकी विशेषज्ञ बताते हैं कि जनसंख्या परिवर्तन तीन जनसांख्यिकीय कारकों उर्वरता, मृत्यु दर और प्रवास द्वारा निर्धारित किया जाता है, न कि केवल प्रजनन क्षमता से। आपके पास उच्च प्रजनन दर हो सकती है, लेकिन यदि आपकी मृत्यु दर या प्रवासन दर अधिक है, तो आपकी जनसंख्या में वृद्धि नहीं होगी। इन जनसांख्यिकीय कारकों का सामाजिक-आर्थिक कारकों से बहुत अधिक संबंध है, धर्म से बहुत कम।

भारत में मुसलमान अक्सर एक उत्तेजक बहस के घेरे में रहते हैं। अभी मुस्लिमों की तलाक की प्रक्रिया पर विवाद थमा भी नहीं था और मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि ‘आबादी बम’ के नाम से पेश कर दी गई। मुस्लिम विरोधी लॉबी ने जनसंख्या के आँकड़ों से कई निष्कर्ष निकाले हैं जो उनके इस दावे को पुष्ट करने के लिए उपयुक्त हैं कि मुसलमान जनसंख्या भारतीय समाज के लिए खतरा है। मुस्लिम विरोधी ब्रिगेड द्वारा कायम एक आम मिथक यह है कि भविष्य में मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से अधिक हो जाएगी। इस बात पर चिंता व्यक्त करते हुए सोशल मीडिया पर एक अरसे से कई पोस्ट लगाई जाती रही हैं, कई लेख लिखे गए हैं कि भारतीय मुस्लिम आबादी 925 मिलियन तक बढ़ जाएगी और हिंदुओं की संख्या 2035 तक घटकर 902 मिलियन हो जाएगी।

मुसलमानों की अधिक जनसंख्या आखिर मिथक क्यों बनी हुई है, यद्यपि यह महामारी का दौर है और आबादी का यह मुद्दा इस आपदा से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। तब भी क्या इसके समर्थक इसकी प्रासंगिकता का हमें विश्वास दिलाएंगे? यह सच है कि वैश्विक मुस्लिम आबादी बढ़ रही है। लेकिन यह सभी क्षेत्रों में समान गति से नहीं बढ़ रही है। और ऐसा लगता है कि किसी विशेष मंतव्य के तहत अधिक शोर हो रहा है। जहां मुस्लिम आबादी वास्तव में सबसे तेजी से बढ़ रही है ~ जैसे उप-सहारा अफ्रीका का इलाका – उनके बनिस्बत उन जगहों पर यह ज्यादा है जहां वे सांस्कृतिक रूप से मुसलमान अलग अल्पसंख्यक हैं, अधिक शोर होता है। यह ध्यान देने की बात है।

वैश्विक रुझान स्पष्ट रूप से यह दिखाते हैं कि मुस्लिम आबादी की वृद्धि धीमी हो गई है और आने वाले दशकों में सभी समुदायों के औसत जनसांख्यिकीय समीकरण से मेल बना लेगी, बराबर हो सकेगी। धर्म और सार्वजनिक जीवन पर अमेरिका के ‘प्यू (pew) रिसर्च सेंटर’ के एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि न तो ब्रिटेन और न ही यूरोप को मुस्लिम अधिग्रहण का खतरा है, जो कि रूढ़िवादी अमेरिका विश्वास करता है। “वैश्विक मुस्लिम आबादी का भविष्य: 2010- 2030 के लिए अनुमान” नाम से यह एक प्रमुख और व्यापक अध्ययन है जो उत्तरी अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका और एशिया-प्रशांत में मुस्लिम आबादी पर केंद्रित है और मुस्लिमों के भविष्य पर एक तथ्यात्मक खुलासा करता है। इससे दुनिया भर में आबादी की वृद्धि और दुनिया के भविष्य का धर्मसापेक्ष संदर्भ भी स्पष्ट हो जाता है।

रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक मुस्लिम आबादी दो दशकों में लगभग 35 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है, जो 2010 में 1.6 अरब से बढ़कर 2030 में 2.2 अरब हो जाएगी। अध्ययन में कहा गया है कि वैश्विक मुस्लिम आबादी गैर-मुस्लिम आबादी की तुलना में, पिछले दो दशकों की तुलना में धीमी गति से बढ़ने का अनुमान है। ‘प्यू’ के निष्कर्ष इस बात की पुष्टि करते हैं कि मुस्लिम अधिग्रहण का डर काफी हद तक एक उन्माद की उपज है, न कि तथ्यात्मक। भारत में, 2001-2011 के दशक में सभी धर्मों की जनसंख्या वृद्धि में कमी आई है।

हिंदुओं में यह 79.9 से घटकर 76.75 प्रतिशत हो गई। इसी तरह, मुसलमानों में भी यह पिछले दशक में 29.52 प्रतिशत के उच्च स्तर से घटकर 24.60 हो गई। 2100 तक भारतीय जनसंख्या 1.27 अरब हिंदुओं और 320 मिलियन मुसलमानों के साथ लगभग 1.7 अरब स्थिर हो जाएगी। हालांकि, जनसांख्यिकीय संक्रमण में अंतराल के कारण मुस्लिम आबादी का स्थिरीकरण 40 वर्षों तक धीमा रहेगा। लैंसेट ने पिछले साल सुझाव दिया था कि 2048 तक भारत की जनसंख्या लगभग 1.61 बिलियन हो जाएगी और 2100 तक घटकर 1.093 बिलियन हो जाएगी।

कुल प्रजनन दर (टीएफआर), जो प्रति महिला द्वारा पैदा हुए बच्चों की संख्या है, इस बात का सूचक है कि कोई समाज अपनी जनसंख्या वृद्धि को कितनी अच्छी तरह नियंत्रित कर सकता है। इस तरह के मतभेदों के बावजूद, भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच प्रजनन अंतर उत्तरोत्तर प्रत्येक सर्वेक्षण के साथ कम होता जा रहा है। अब बड़ी जन्म-दर असमानता राज्यों के बीच बनी हुई है, न कि धर्मों के बीच। मुसलमानों के हिंदुओं की तुलना में कुछ और दशकों तक सापेक्ष रूप से बढ़ने की उम्मीद है। क्योंकि भारत में प्रमुख धार्मिक समूहों में उनकी औसत आयु सबसे कम है और अपेक्षाकृत उच्च प्रजनन क्षमता है। जैसा कि विदित है मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर की तुलना अन्य कारकों जैसे औसत आयु, औसत प्रजनन क्षमता और शिशु मृत्यु दर से की जाती है। 2010 में, भारतीय मुसलमानों की औसत आयु 22 थी, जबकि हिंदुओं के लिए 26 और ईसाइयों के लिए 28 थी। मुस्लिम महिलाएं प्रति व्यक्ति (एक महिला) औसतन 3.1 बच्चे पैदा करती हैं, जबकि हिंदुओं के लिए 2.7 और ईसाइयों के लिए 2.3 है।

  आपके पास उच्च प्रजनन दर हो सकती है, लेकिन यदि आपकी मृत्यु दर या प्रवासन दर अधिक है, तो आपकी जनसंख्या में वृद्धि नहीं होगी। इन जनसांख्यिकीय कारकों का धर्म के साथ बहुत कम और सामाजिक आर्थिक कारकों यथा- निवास का प्रकार, शिक्षा, आर्थिक स्थिति, आदि के साथ-साथ संस्कृति, सुरक्षा की भावना आदि के साथ अधिक संबंध है। उच्च प्रजनन क्षमता के लिए ~ दुर्योग से इसे सुधारने के लिए इस्लाम में कुछ भी निहित नहीं है। वास्तव में, यह एक जन्मवादी, या जन्म-समर्थक धर्म नहीं है लेकिन अशिक्षा और कूपमंडूकता इसके पीछे है। अब दुनिया के सभी 49 मुस्लिम बहुल देशों में प्रजनन दर 1990-95 में प्रति महिला 4.3 बच्चों से गिरकर 2010-15 में लगभग 2.9 हो गई।

भारत में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस -4) के चौथे दौर के सर्वेक्षण (2015-16) के अनुसार, उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का टीएफआर 3.10 है, जबकि केरल में यह 1.86 है। गरीबी का पारिवारिक जनसांख्यिकी पर सीधा असर पड़ता है। अत्यधिक गरीबी में रहने वालों को लगता है कि उनके बच्चे बीमारी के प्रति अधिक उन्मुख (संवेदनशील) हैं और वे उचित चिकित्सा देखभाल नहीं कर सकते। बच्चों को नश्वर रोगों से खोने के डर की आशंका और भय के कारण, वे बड़ी संख्या में बच्चे पैदा करके इस जोखिम को कम करते हैं। आप देख सकते हैं कि गरीबी और जन्म दर के बीच सीधा संबंध है। और जन्म दर एवं उच्च प्रति व्यक्ति आय के बीच विपरीत संबंध है। कुछ कारक हैं जो किसी भी विकासशील देश में प्रजनन दर को मज़बूती से कम करते हैं: लड़कियों के लिए अधिक स्कूली शिक्षा, अपने बच्चों के जीवित रहने की उम्मीद (स्वास्थ्य देखभाल और संघर्ष से मुक्ति के कारण), गर्भनिरोधक तक पहुंच और महिलाओं के लिए नौकरी के अवसर।

ग्रामीण महिलाएं खासकर मुस्लिम महिलाएं, कठोर रीति-रिवाजों के चंगुल में रहती हैं। वे ज्यादातर अ-सशक्त (गरीब) हैं और सामान्यतया बच्चों के जन्म को नियंत्रित करने के लिए परिवार नियोजन सेवाएं प्राप्त करने के लिए असमर्थ होती हैं। उनका यह भी मानना है कि कई बच्चे पैदा करने से उनके बुढ़ापे में गरीबी के खिलाफ एक सहारा मिलेगा। शांतिपूर्ण और परेशानी मुक्त वृद्धावस्था की योजना बनाने के लिए आर्थिक रूप से बेहतर लोगों के पास तो वित्तीय सुरक्षा उपायों तक आसान पहुंच होती है पर निर्बल और गरीब इससे बहुत दूर हैं, अक्षम हैं। गरीब देशों में जहां सामाजिक सुरक्षा एक दूर की अवधारणा है, बच्चे, बूढ़े माता-पिता के लिए सबसे अधिक सुनिश्चित सामाजिक सुरक्षा है। गरीब यह धारणा रखते हैं कि अधिक बच्चे होने से कमाई के अतिरिक्त स्रोत मिलेंगे और इस प्रकार उनके पास जीवन की कठिनाइयों से निपटने के लिए बेहतर स्थिति होगी। बेशक यह गलत है।

यह अच्छा संकेत है कि नई पीढ़ी की महिलाओं में जागरूकता बढ़ रही है। मुस्लिम महिलाएं भी पितृसत्ता को चुनौती दे रही हैं । अधिकतर महिलाएं समाज में स्वयं को असमान शक्ति पदानुक्रम में होना अनुभव करती हैं।

शिक्षा और समान अवसरों के लिए मुस्लिम महिलाओं की सक्रियता आधुनिक शिक्षा के संपर्क के माध्यम से पोषित और मुक्तिकामी विश्व विचारों से प्रभावित होती है। शिक्षा की प्राथमिकता के प्रति जागरूकता की नई लहर ने मुस्लिम महिलाओं को चूल्हे-चौके से बाहर निकाल कर विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचा दिया है। परिवार और समाज में उनकी निर्णय लेने की शक्ति को बढ़ाया है। महिलाओं के पास अब उनकी वित्तीय स्थिति की बेहतरी की अधिक संभावनाएं हैं। इस नई जागृति का लाभ अब महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता दोनों स्थितियों में दिख रहा है।

आधुनिक महिला अधिक प्रबुद्ध है और एक नकारात्मक जनसांख्यिकीय प्रोफ़ाइल के निहितार्थ को स्पष्ट रूप से समझती है। जनसंख्या दर में वर्तमान गिरावट का सीधा संबंध इस तथ्य से भी है कि मुसलमानों की युवा पीढ़ी को धर्म की अधिक सूक्ष्म और विवेकपूर्ण समझ है। शिक्षित और महत्वाकांक्षी मुस्लिम महिलाएं भारत में अपने हिंदू समकक्षों की तरह परिवार नियोजन के बारे में जागरूक हैं। अनगिनत युवा मुस्लिम जोड़ों को उनके परिवार के दबाव के बावजूद कोई बच्चा नहीं है क्योंकि वे बच्चा नहीं चाहते हैं जब तक कि वे उसे अपना सर्वश्रेष्ठ पोषण नहीं दे सकते।

मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि वैश्विक रुझानों के साथ तालमेल से अब तक बाहर रही है, लेकिन अगर नवीनतम निष्कर्ष सही हैं, तो इसे जल्द ही वहां पहुंचना चाहिए। सच तो यह है कि जनसंख्या के मोर्चे पर या मुसलमानों के आधिपत्य की कल्पनाओं के बारे में आशंकित होने के लिए बहुत कुछ है नहीं। हमें राजनीतिक लेंस (चश्मा) हटा देना चाहिए और इसके बजाय पूरे मुद्दे का विश्लेषण करने के लिए आर्थिक और सामाजिक लेंस का उपयोग करना चाहिए और इसका अधिक वस्तुपरक तरीके से जवाब खोजना चाहिए। ऐसे उपाय जो परिवारों के स्वास्थ्य और आर्थिक कल्याण में सुधार करने में मदद करते हैं, अप्रत्यक्ष रूप से जनसांख्यिकीय समीकरण को परिष्कृत करने वाले कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करने में मदद करते हैं।

अधिकांश टिप्पणीकार तथ्यों को वास्तविकता में प्रस्तुत करने की तुलना में गढ़े गए राजनीतिक खतरे की घंटी बजाने पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं। वास्तविकता यह है कि किसी भी धार्मिक समूह द्वारा आधिपत्य का कोई खतरा नहीं है, लेकिन असहिष्णुता का खतरा है जिससे समाज के ताने-बाने को बड़ा खतरा अवश्य है। हम यहां सभ्यताओं के टकराव को नहीं देख रहे हैं, बल्कि उन संस्कृतियों के टकराव को देख रहे हैं जो इस्लाम को एक जड़ विचार के रूप में चित्रित करते हैं। वे धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता को, शक्ति और समृद्धि के संभावित स्रोत के बजाय केवल एक खतरे के रूप में देखना पसंद करते हैं।

(द स्टेट्समैन में प्रकाशित मोईन काजी के इस लेख का हिंदी अनुवाद शैलेंद्र चौहान ने किया है।)

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