Wednesday, April 24, 2024

SPECIAL:इलेक्टोरल बांड योजना पर मोदी सरकार ने संसद से झूठ बोला था और चुनाव आयोग को किया था गुमराह

नई दिल्ली। कारपोरेट इलेक्टोरल बॉंड मामले में मोदी सरकार ने न केवल रिजर्व बैंक के निर्देशों को खारिज किया बल्कि संसद से झूठ बोला और चुनाव आयोग के विरोध को भी ताक पर रख दिया।

हफिंग्टन पोस्ट के मुताबिक उसके द्वारा हासिल किए गए दस्तावेज इस बात का खुलासा करते हैं कि तब के वित्त राज्य मंत्री पी राधाकृष्णन द्वारा इस मसले पर संसद में झूठ बोले जाने का बचाव करने के लिए तीन वरिष्ठ नौकरशाह 6 अलग-अलग व्याख्याओं के साथ सामने आए थे।

दस्तावेज में शामिल एक गोपनीय नोट यह दिखाता है कि इलेक्टोरल बॉंड पर चुनाव आयोग की आपत्ति को सीधे खारिज करने में नाकाम होने के बाद वरिष्ठ नौकरशाह ने जान बूझकर चुनाव आयोग के अधिकारियों को गुमराह किया था।

चुनाव आयोग अकेले नहीं था जिसके सुझावों को खारिज किया गया। सरकार ने इस मसले पर विपक्षी दलों से उनका विचार जानने का दिखावा किया। जबकि वित्त मंत्रालय ने बगैर उनके उत्तर या फिर सवालों का जवाब दिए अपनी योजना बनाने की प्रक्रिया जारी रखा।

पूरे दस्तावेज की जांच के बाद देखा जा सकता है कि मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बांड के मसले पर बिल्कुल दोहरा रवैया अपनाया। सबसे पहले इस विवादित वित्तीय योजना का तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने 2017 में खुलासा किया जब उन्होंने कहा कि कारपोरेशन, ट्रस्ट, एनजीओ या फिर कोई भी व्यक्तिगत रुप से भारतीय राजनीतिक दलों को असीमित राशि दान कर सकता है।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स की ओर से इकट्ठा किए गए डाटा के मुताबिक पहले साल इस तरह के बांडों का 95 फीसदी हिस्सा भारतीय जनता पार्टी को गया है।

आरटीआई के जरिये इन दस्तावेजों को हासिल करने वाले आरटीआई कार्यकर्ता कमोडोर लोकेश बत्रा (सेवा निवृत्त) का कहना है कि इस मामले में सरकार के बयानों पर विश्वास नहीं किया जा सकता है यहां तक कि अगर उसे देश की संसद में दिया जा रहा हो तो भी।

2018 के शीतकालीन सत्र में राज्य सभा सदस्य मोहम्म्द नदीमुल हक ने सरकार से केवल एक साधारण सवाल पूछा कि क्या इलेक्टोरल बांड को लेकर चुनाव आयोग ने चिंता जाहिर की है?

तब के वित्त राज्य मंत्री पी राधाकृष्णन ने उसके जवाब में कहा कि इलेक्टोरल बीयरर बांड के मसले पर सरकार को चुनाव आयोग की तरफ से किसी तरह की शिकायत नहीं मिली है।

यह बिल्कुल झूठ था जैसा कि उसके तुरंत बाद हुए सरकार के अंदरूनी संचार में यह बात साफ हो गयी। साथ ही आरटीआई एक्टिविस्ट बत्रा ने भी इसका पर्दाफाश कर दिया है। मामले का खुलासा होने के बाद हक ने मंत्री के खिलाफ झूठ बोलने के लिए विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव पेश कर दिया। मीडिया में इसकी चर्चा भी रही।

अब आइये देखते हैं कि सरकार राधाकृष्णन द्वारा संसद में बोले गए झूठ से किस तरह से किनारा किया। यहां तक कि विशेषाधिकार हनन की शिकायत का जवाब भी सरकार ने ईमानदारी से नहीं दिया। इन सारे संचारों में एक सामान्य सवाल शामिल था कि इलेक्टोरल बांड वाले मसले पर सरकार चुनाव आयोग की आपत्ति को इतना क्यों घुमा कर पेश कर रही है।

वित्त मंत्रालय ने हफिंग्टन पोस्ट को बताया कि वह विशिष्ट सवालों का पूरे विस्तार से जवाब नहीं मुहैया करा सकता है क्योंकि वह अगले साल के बजट की तैयारी में जुटा है लेकिन साथ ही यह भी कहा कि सभी फैसले बेहतरी को ध्यान में रखते हुए लिए गए हैं।

चुनाव आयोग के विरोध को ढंकने की कोशिश

मई 2017 में चुनाव आयोग ने कानून और विधि मंत्रालय को एक पत्र लिखा और उसमें उसने चेतावनी दी कि राजनीतिक दलों को जारी होने वाला इलेक्टोरल बांड विदेशों से आने वाले अवैध दान को छुपाने में मदद करेगा। अब संदिग्ध दानदाता नेताओं को काला धन मुहैया कराने के लिए शेल कंपनियों का निर्माण कर लेंगे और फिर धन के असली स्रोत को छुपान में कामयाब हो जाएंगे।

लिहाजा आयोग चाहता था कि राजनीतिक दलों को फंडिंग के लिए बनाए गए इलेक्टोरल बांड और दूसरे कानूनी बदलावों को सरकार वापस ले ले।

3 जुलाई 2017 को कानून मंत्रालय ने चुनाव आयोग की चिंताओं को वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग को अग्रसारित कर दिया। लेकिन वित्तमंत्रालय ने सामान्य रूप से इसका बहाना बनाकर कह दिया कि उसको आयोग के इस रुख के बारे में कभी पता नहीं चला।

कानून मंत्रालय को चुनाव आयोग की बुनियादी चिंताओं का जवाब देने की जगह वित्तमंत्री अरुण जेटली ने इलेक्टोरल बांड के ढांचे को आखिरी रूप देने के लिए आरबीआई और चुनाव आयोग के साथ बैठक करने का आदेश जारी कर दिया।

चुनाव आयोग के इतने कड़े विरोध के बावजूद सरकार ने आगे बढ़ने का रास्ता चुना। बजाय इसके कि वह गोपनीय तरीके से राजनीतिक दलों को फंड मुहैया कराने के अपने इस फैसले पर फिर से विचार करती।

यह बैठक 19 जुलाई 2017 को संपन्न हुई। जिसमें चुनाव आयोग की तरफ से इसमें दो अधिकारी शामिल भी हुए। बाद में आर्थिक मामलों के सचिव एससी गर्ग ने अपनी फाइल में इस बात को दर्ज किया कि इस बात पर जोर दिया गया कि योजना एक लेवेल प्लेइंग फील्ड मुहैया कराएगी। साथ ही राजनीतिक दलों को फंडिंग में पारदर्शिता को भी प्रोत्साहित करेगी।

कानून और न्याय मंत्रालय के रिकार्ड बताते हैं कि चुनाव आयोग अभी भी सरकार से सहमत नहीं था। वित्त मंत्री को संबोधित 22 सितंबर 2017 को लिखा गया एक गोपनीय नोट 28 जुलाई 2017 को संपन्न एक और बैठक की तरफ इशारा करता है जिसमें तब के मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार और दो दूसरे चुनाव आयुक्तों ओम प्रकाश रावत और सुनील अरोरा शामिल थे।

अपने नोट में गर्ग ने लिखा था कि उन्होंने चुनाव आय़ुक्तों को बताया कि कंपनियां जब इलेक्टोरल बांड खऱीदेंगी तो वो अपने एकाउंटिंग एंट्री में उसको दर्ज करेंगी। जिससे इलेक्टोरल बांड खरीदने के लिए फंड के स्रोत के संदर्भ में पूरी पारदर्शिता सुनिश्चित होगी। इसके साथ ही इसमें राजनीतिक चंदे की राशि भी शामिल होगी।

लेकिन यह बिल्कुल झूठ था। कंपनियों को अपने लाभ और हानि के स्टेटमेंट और बैलेंसशीट में खरीदे गए इलेक्टोरल बांड का विवरण देने की कोई जरूरत नहीं है। केवल कुल लाभ और हानि को ही बैलेंसशीट में दर्ज करना है। जो सालाना सरकार को दिए जाने वाले ब्योरे का हिस्सा होगा और यही जांच के लिए सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध रहता है।

गर्ग का यह गोपनीय नोट बैठक में चुनाव आयुक्तों द्वारा जाहिर की गई कई तरह की चिंताओं को दिखाता है। जिसमें राजनीतिक दलों के पक्ष में मनी लांडरिंग करने के लिए बांड शेल कंपनियों को छूट दे सकता है। इसमें इस बात को भी चिन्हित किया गया है कि कैसे अभी भी आयोग सरकार से औऱ ज्यादा पारदर्शिता लाने के लिए प्रावधानों में कुछ बदलाव लाने की वकालत करता है।

बावजूद इसके वे (गर्ग) रिकार्ड में दर्ज करते हैं कि “यह मेरी समझ है कि आयोग इलेक्टोरल बांड के जरिये राजनीतिक चंदा मुहैया करने का सिस्टम साफ-सुथरा और ज्यादा पारदर्शी होने की बात पर तार्किक रूप से संतुष्ट था।”

यह एक बार फिर झूठा बयान था।

यहां तक कि 2018 के अंत में कानून और न्याय मंत्रालय का रिकार्ड दिखाता है कि चुनाव आयोग लगातार बांड और सरकार के दूसरे पारदर्शिता विरोधी प्रावधानों को वापस लेने पर जोर देता रहा। मंत्रालय का रिकार्ड यह भी दिखाता है कि वित्त मंत्रालय किस तरह से आयोग के रिमाइंडरों का औपचारिक जवाब देने से बचता रहा।

ये सारे दस्तावेज और बैठकें इस बात को साफ कर देती हैं कि वित्त मंत्रालय को इलेक्टोरल बांड संबंधी योजना का चुनाव आयोग द्वारा किए जा रहे विरोध के बारे में पता था।

यह बात इस लिहाज से औऱ ज्यादा परेशान कर देती है कि आखिर वित्त राज्य मंत्री ने संसद से झूठ क्यों बोला कि चुनाव आयोग को इस पर कोई एतराज नहीं है।

आरटीआई एक्टिविस्ट बत्रा ने प्रेस में इसका खुलासा कर दिया था और फिर उसी के आधार पर हक ने 2018 में संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव दिया जिसे राज्यसभा द्वारा 28 दिसंबर 2018 को जवाब के लिए वित्त मंत्रालय को भेज दिया गया था।

राधाकृष्णन को खुलेआम संसद को गुमराह करते हुए पकड़ लिया गया था। और वित्त मंत्रालय एक ऐसे बंधन में बंध गया था जिसमें उसे एक ऐसी चीज का बचाव करना था जो कभी हो ही नहीं सकती थी।

तथ्य को छुपाने के लिए ढेर सारे विकल्प पेश किए गए जिसमें सभी झूठ थे और उनमें भी हर एक झूठ दूसरे से बड़ा था।

यहां तक कि एक अधिकारी डिप्टी डायरेक्टर विजय कुमार जो इलेक्टोरल बांड के मसले को हैंडिल कर रहे थे, ने 1 जनवरी 2019 को सलाह दी कि जब आर्थिक मामलों के सचिव गर्ग ने इस मुद्दे पर चुनाव आयोग के अधिकारियों से व्यक्तिगत तौर पर मुलाकात की थी तो वे अभी भी कह सकते हैं कि चुनाव आयोग ने सीधे लिखकर अपनी चिंताओं के बारे में उन्हें नहीं बताया था। इसलिए उन्होंने अपने वरिष्ठों को सलाह दिया कि राज्य मंत्री राधाकृष्णन ने संसद से झूठ नहीं बोला है।

लेकिन वित्त मामलों के सचिव गर्ग ने इससे और ज्यादा मजा हुआ तर्क पेश किया।

उन्होंने पहले इस बात को स्वीकार किया कि राधाकृष्णन ने संसद से झूठ बोला। 2 जनवरी 2019 को उन्होंने अपने विचारों को कलम बद्ध किया, “दिए गए जवाब में एक फ्लो है। इसमें कहा गया है कि सरकार ने चुनाव आयोग की तरफ से किसी तरह की आपत्ति हासिल नहीं की। अगर यह चिन्हित किया गया जाए कि वित्त मंत्रालय को किसी तरह के एतराज के बारे में पता नहीं चला है तब यह ऊपर दिए गए तथ्यों के आइने में बिल्कुल सही बात होगी।”

उसके बाद वह दो विकल्प सुझाए:

उन्होंने लिखा कि “या तो मंत्री द्वारा इस बात को साफ किया जाना चाहिए कि डी और ई हिस्से वाले उत्तर का मतलब वित्त मंत्रालय था या फिर केस के सही तथ्य के बारे में सदन को स्पष्ट किया जाना चाहिए। कृपया इसकी जांच करें और फिर इस मसले पर वित्तमंत्री के साथ बात करते हैं।”

अपने बॉस से हासिल इनपुट के आधार पर गर्ग के मातहत अफसर और बजट डिवीजन के संयुक्त सचिव तीन खोजी बहानों के साथ यह साबित करने के लिए सामने आये कि राज्यमंत्री झूठ नहीं बोल रहे थे।

इनमें से दो नौकरशाही लच्छेदारी पर आधारित था। और तीसरा सच को बिल्कुल झूठ ठहराने पर। उन्होंने कहा कि “इलेक्टोरल बांड के मसले पर वित्त मंत्रालय और चुनाव आयोग के बीच ऐसा कोई संचार नहीं हुआ है जिसमें आयोग ने वित्त मंत्रालय को इसके बारे में अपनी चिंता जाहिर की हो। अखबार की रिपोर्टें चुनाव आयोग के 26 मई, 2017 के पत्र का जिक्र करती हैं। यह पत्र वित्त मंत्रालय को नहीं हासिल हुआ था। इसलिए वित्त मंत्रालय को अखबारों द्वारा बताए गए पत्र की समीक्षा का कोई अवसर नहीं प्राप्त हुआ।”

यह बिल्कुल झूठ था। जैसा कि दूसरी मीडिया रिपोर्टों ने इस बात का खुलासा किया है कि चुनाव आयोग के पत्र को वित्त मंत्रालय ने हासिल किया था। यहां तक कि उस विभाग को भी मिला था जो इस समय झूठ का डंका बजा रहा है। और रेवेन्यू के उस विभाग ने भी हासिल किया था जहां से इलेक्टोरल बांड का विचार सरकार के रिकार्ड में पैदा हुआ। इन सबसे ऊपर जैसा कि हफिंग्सटन पोस्ट ने पहली बार ऊपर खुलासा किया है, आर्थिक मामलों के सचिव गर्ग निजी तौर पर चुनाव आयुक्तों से 28 जुलाई, 2018 को मिले थे जिसमें इलेक्टोरल बांड की आशंकाओं को लेकर बात हुई थी।

फिर भी गर्ग इस बात से सहमत थे कि सरकार को बेशर्मी के साथ संसद में इंकार करना चाहिए। उसी तरह से वित्तमंत्री जेटली ने किया।

नतीजतन, 12 जनवरी, 2019 को वित्त राज्यमंत्री राधाकृष्णन ने हक का उत्तर देते हुए कहा कि “इलेक्टोरल बांड के संबंध में उनकी चिंताओं को लेकर चुनाव आयोग की तरफ से किसी भी तरह का औपचारिक संचार वित्तमंत्रालय के साथ नहीं हुआ था। इसलिए उत्तर में सरकार यह बताना चाहती है कि वित्तमंत्रालय का कोई मतलब होता है। मैं आपको आश्वस्त कर सकता हूं कि संसद के पवित्र सदन को गुमराह करने का कोई प्रयास नहीं है। घोषित लक्ष्य को हासिल करने के लिए इलेक्टोरल बांड बेहद पारदर्शी है।”

आरटीआई कार्यकर्ता बत्रा ने इस बहाने का भी पर्दाफाश कर दिया। उन्होंने पाया कि वित्तमंत्रालय ने चुनाव आयोग के आपत्ति वाले पत्र को विधि और कानून मंत्रालय के जरिये 3 जुलाई, 2017 को ही हासिल कर लिया था। चुनाव आय़ोग का इलेक्टोरल बांड को डील करने वाला यह खास पत्र सभी विभागों और डिवीजनों में वितरित किया गया था।

इसमें एक विभाग तो बिल्कुल चुनाव आयोग के विचारों से सहमत था। यह वह विभाग था जो चुनाव आयोग के इलेक्टोरल बांड को डील कर रहा था। उसका नाम था फाइनेंशियल सेक्टर रिफर्म एंड लेजिस्लेशन डिवीजन। लेकिन वित्त मंत्रालय ने उन आपत्तियों का कोई लिखित जवाब नहीं दिया। ऐसा करना इस बात को दिखाता है कि आयोग को संज्ञान लेने के पीछे इलेक्टोरल बांड को लेकर अवधारणात्मक और बुनियादी समस्याएं थी न कि केवल प्रक्रियागत चिंताएं।

हफिंग्टन पोस्ट के पास मौजूद दस्तावेज इस बात को साबित करते हैं कि आर्थिक मामलों के सचिव से व्यक्तिगत रूप से मिलने के बाद भी चुनाव आय़ुक्तों की इलेक्टोरल बांड के प्रति आपत्ति बनी रही।

आय़ोग की जारी आपत्ति उस समय सार्वजनिक हुई जब उसने मार्च 2019 में सुप्रीम कोर्ट के सामने इलेक्टोरल बांड को लेकर अपनी एफिडेविट पेश की। जिसमें उसने खुले तौर पर उसका विरोध किया था। लेकिन अब तक तकरीबन 1400 करोड़ के इलेक्टोरल बांड कारपोरेशन द्वारा खरीद लिए गए हैं और उन्हें राजनीतिक दलों को दान दे दिए गए हैं।

अगस्त, 2019 में नयी वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने इस विवाद को खत्म करने का ऐलान किया। उन्होंने संसद के भीतर हक के सवालों के सुधरे उत्तर पेश किए।

यह सुधरा उत्तर अब संसदीय रिकार्ड का हिस्सा बन गया है। जिसमें इस बात को कहा गया है कि चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बांड को लेकर गंभीर सवाल खड़े किए थे। इस बार वित्त मंत्रालय ने सच्चाई को खारिज करने के लिए नौकरशाही के औजारों का इस्तेमाल नहीं किया।

फिर भी निश्चित तौर पर सीतारमन ने हक के दूसरे सवालों का जवाब देने से खुद को बचाने की कोशिश की। जिसमें उन्होंने पूछा था कि चुनाव आयोग की चिंताओं को दूर करने के लिए सरकार ने क्या किया था?

इसके जवाब में मंत्री ने केवल इलेक्टोरल बांड स्कीम की पूरी विशेषताओं को कट पेस्ट कर दिया जिसे सरकार पिछले दो सालों से संचालित कर रही है।

कौन सुन रहा है?

इलेक्टोरल बांड की योजना बनाते समय सरकार ने न केवल चुनाव आयोग या फिर आरबीआई से संपर्क करने का बहाना बनाया था बल्कि उसने ऐसा ही राजनीतिक दलों के साथ भी किया था। जैसा कि दस्तावेज दिखाते हैं।

2 मई, 2017 को वित्त मंत्री जेटली ने भारत के विपक्षी दलों को इलेक्टोरल बांड स्कीम को मजबूत करने के लिए सुझाव देने संबंधी पत्र लिखा।

बहुत सारे दलों ने उसका उत्तर दिया। तब के कांग्रेस के कोषाध्यक्ष मोती लाल वोरा ने लिखा कि “मैं इस बात को नोट करता हूं कि सरकार राजनीतिक दलों को होने वाली चुनावी फंडिंग को पारदर्शी बनाने को लेकर चिंतित है। पारदर्शिता में यह बात शामिल है कि मतदाताओं को यह जानना चाहिए कि 1- दान देने वाला कौन है 2- दान लेने वाला राजनीतिक दल कौन है 3- और कितनी राशि दान दी गयी है।”

किसी खास योजना की गैरमौजूदगी में वोरा ने कहा कि वित्त मंत्री के भाषण और सार्वजनिक टिप्पणी ये बताते हैं कि दानदाता का नाम केवल बांड जारी करने वाले बैंकों को पता होगा। और दान हासिल करने वाले का नाम केवल इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को पता होगा। नतीजतन केवल सरकार को ही दानदाताओं और दान लेने वालों के बारे में जानकारी मिलेगी और लोगों को इनकी कोई जानकारी नहीं होगी।

उन्होंने अंत में कहा कि हम तभी इस योजना के बारे में आगे कोई टिप्पणी करने में सक्षम होंगे जब सरकार द्वारा बनायी जा रही योजना का अध्ययन कर सकेंगे।

बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने भी इसका जवाब दिया। उन्होंने कहा कि सरकार ने जिस योजना के बारे में सोचा है अगर उसका कोई ड्राफ्ट प्रस्ताव तैयार करे तो वह बेहद सराहनीय होगा।

सीपीआई के तब के महासचिव सुधाकर रेड्डी ने पूरे विस्तार से उन कारणों को बताया जिसमें उसका विश्वास था कि इस योजना से कोई पारदर्शिता नहीं आने जा रही है। इसके बजाय उन्होंने कहा कि विभिन्न कानूनों में किए गए बदलाव उल्टे कारपोरेट द्वारा राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदों को और गोपनीय बना देंगे।

उन्होंने कहा कि हम राजनीतिक फंडिंग के लिए गोपनीय राजनीतिक बांड स्कीम और कारपोरेट एक्ट में बदलाव का विरोध करते हैं। हम कंपनी एक्ट में बदलाव को वापस लेने की मांग करते हैं। और कारपोरेट द्वारा राजनीतिक दलों को होने वाली फंडिंग की सीमा तय करने भी मांग करते हैं।

कम से कम बीजेपी की एक सहयोगी पार्टी शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) ने राजनीतिक फंडिंग की दिशा में ‘मील का पत्थर’ जैसा कदम उठाने के लिए सरकार को बधाई दी।

लेकिन एसएडी के सचिव दलजीत सिंह चीमा ने आगे बढ़कर यह सुझाव दिया कि यह और ज्यादा नैतिक होगा अगर सरकार कुछ ऐसी व्यवस्था करे कि मुनाफा कमाने वाली कंपनियों की ही कुछ प्रतिशत राशि राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बांड के जरिये हासिल हो।

लेकिन बजट सेशन में बीजेपी ने जो किया वह एसएडी के सुझावों के ठीक विपरीत था। उसने औसत के हिसाब से तीन सालों तक लाभ कमाने वाले कंपनी को अपने लाभ का 7.5 फीसदी तक हिस्सा दान देने के प्रावधान को ही हटा दिया।

राजनीतिक दलों से उनकी राय सुनने के बाद जिसमें उन्होंने इलेक्टोरल बांड के संदर्भ में गंभीर खामियों की तरफ इशारा किया था और साथ ही सरकार से और ज्यादा सूचना की मांग की थी वित्त मंत्रालय ने ड्राफ्ट को बेहद रहस्यमय तरीके से तैयार किया जो केवल उनके राजनीतिक आकाओं के लिए ही फायदेमंद था। एक बार जब तैयार हो गया तो उन्होंने तब के वित्तमत्री से पूछा कि क्या तैयार ड्राफ्ट के ढांचे और योजना को राजनीतिक दलों के साथ साझा किया जा सकता है। जेटली इस सवाल पर चुप रह गए। साथ ही इस बात का इशारा कर दिया कि योजना का विवरण राजनीतिक दलों के साथ साझा नहीं किया जाना चाहिए।

और ऊपर जो राजनीतिक दलों के साथ आदान-प्रदान किया गया था वह सिर्फ यह दिखाने के लिए था कि पूरी इलेक्टोरल बांड की योजना को राजनीतिक दलों के साथ विचार-विमर्श के बाद तैयार किया गया है। जैसा कि उसने आरबीआई और चुनाव आयोग के साथ किया था।

(यह रिपोर्ट हफिंग्टन पोस्ट पोर्टल पर अंग्रेजी में प्रकाशित हुई है वहां से साभार लेकर जनचौक द्वारा इसे हिंदी में रूपांतरित करने के बाद यहां दिया जा रहा है।)

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