इरफ़ान भाई फिर कहें, ‘मन का सब हो जायेगा क्या बे’

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(बॉलीवुड और हॉलीवुड के जाने-पहचाने अभिनेता इरफ़ान (7 जनवरी-1967-29 अप्रैल 2020) के निधन ने फिल्म इंडस्ट्री और दर्शकों को ही नहीं बल्कि हर किसी संवेदनशील इंसान को शोक में डुबो दिया है। उनके निधन पर बौद्धिक जगत में जैसी शोक प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उससे उनके अभिनय और उनके व्यक्तित्व के असर की रेंज का पता चलता है। नसीर जैसे अभिनेता की उपस्थिति के बावजूद इरफ़ान का बतौर श्रेष्ठ अभिनेता ऊंचा मक़ाम हर किसी ने स्वीकार किया। स्टार्स-सुपर स्टार्स की भीड़ में उनका अपनी तरह का स्टारडम भी कम नहीं था। कुछ बातें जो उनमें ख़ास थीं, वे थीं उनकी सादगी, युवाओं से उनका सहज रिश्ता और पढ़ने-लिखने से उनका नाता। इरफ़ान के साथ काम करते रहे बॉलीवुड के अभिनेता, लेखक-गीतकार अमितोष नागपाल ने उन्हें याद करते हुए जनचौक के लिए जो लेख लिखा है, उसमें उनकी शख़्सियत के ये सहज गुण महसूस किए जा सकते हैं-संपादक)     

काश, इरफ़ान भाई फिर कहें, `मन का सब हो जायेगा क्या बे`

2004 की बात है। मैं एनएसडी सेकंड ईयर में पढ़ता था उन दिनों।
कुछ दिनों से हमारे बैच के कुछ दोस्तों में यह ईर्ष्या का विषय बना हुआ था कि इरफ़ान भाई थर्ड ईयर वालों की एक्टिंग क्लास लेने आ रहे हैं। `वॉरियर` एनएसडी फिल्म क्लब में देखी जा चुकी थी और `मक़बूल` की चर्चा हवाओं में थी।

एक दिन क्लास जाने से पहले हॉस्टल फ़ोन करने के लिए मैं
जल्दी-जल्दी एनएसडी रिसेप्शन पर गया तो देखा फ़ोन के पास
इरफ़ान भाई खड़े थे। वे तुरंत फ़ोन छोड़के बोले, “पहले आप कर लीजिये भई।” यह ज़रा सी मुलाक़ात कई दिनों तक याद रह गयी। फिर मुंबई आने के बाद काफी बार यहाँ-वहाँ मिलते रहे लेकिन कभी कुछ खास बात नहीं हुई। इस बीच कभी-कभी कुछ लिखने के सिलसिले में सुतपा जी से मिलना हुआ और एक दिन उनका फ़ोन आया कि “इरफ़ान तुमसे मिलना चाहते हैं।”

मैं बिना वजह पूछे ख़ुशी ख़ुशी उनके बताये गए समय पर इरफ़ान से मिलने पहुँच गया। यह मिलने का ठिकाना मलाड में इनऑरबिट मॉल के सामने एक ऊंची सी इमारत में था। थोड़े इंतज़ार के बाद मिलना हुआ। “क्या हाल है?“, उन्होंने पूछा।
मैंने कहा, “ठीक हूँ।“ फिर कुछ देर हम दोनों उस कमरे में चुपचाप बैठे रहे। उन्होंने एक सिगरेट सुलगाई और कहा
“सुना कि अच्छा लिखते हो तो सोचा मिला जाए।” मैं अभी भी चुप ही बैठा रहा। एक पल के लिए लगा कि बस, बातें दोनों तरफ से ख़त्म हो गयी हैं।

मैं केवल मुस्कुराते हुए उन्हें देख रहा था कि उन्होंने कहा “कभी कोई आइडिया शेयर करना हो या कहानी सुनानी हो तो बताना।”
मैंने कहा,, “जब आप कहें, मैं तब सुना सकता हूँ, आपको सुना के मुझे बहुत मज़ा आएगा।” बड़ी देर से मुझे मुस्कुराते हुए देख रहे इरफ़ान भी काफी हँसते हुए बोले, “जब भी तुम्हारा मन हो। मैं अगले कुछ दिन फ्री हूँ।” मैंने कहा आप बोलो, “मैं तो अभी भी सुना सकता हूँ।“ उन्होंने पूछा, “कैसे सुनाओगे? लैपटॉप? मोबाइल?“ मैंने कहा “मेरी कहानी है, सुना दूंगा।” 

“ठीक है, कुछ सुनाओ“, इरफान बोले। मैंने कहा, “आप बोर हो जाओ तो मुझे बीच में ही रोक देना, मुझे बुरा नहीं लगेगा।“ उन्होंने हँसते हुए कहा, “हाँ, रोक दूंगा।” लेकिन, उन्होंने नहीं रोका और मैंने कहानी ढाई घंटे तक सुनाई। बीच-बीच में वो फ़ोन पर अपने बाकी काम टालते रहे। वो इतने मन से कहानी सुन रहे थे कि पूरी कहानी मुझे उनके चेहरे पे घटते हुए दिखाई दे रही थी।

कहानी ख़त्म होते ही इरफ़ान भाई ने कहा, ‘ये बहुत अच्छा किरदार है। ये मुझे करना है, भाई।’ मैंने भी उतनी ही तेजी से कहा, “नहीं, ये मुझे करना है, इरफ़ान भाई।” वो थोड़े हैरान हुए जैसे उन्हें कुछ गलत सुनाई दिया और उन्होंने अचरज से पूछा, “मतलब?“ मैंने कहा “जी यह मैंने अपने लिए सोची है कहानी। “तो मुझे क्यों सुनाई फिर?“
मैं थोड़ा घबरा गया, “जी आपने कहा न, कुछ सुनाओ।”
एक पल के लिए उनके चेहरे पे गुस्से और नाराज़गी के बीच का कोई भाव दिखाई दिया और फिर मेरी तरफ देख के ज़ोर से हँस दिए। “सुनो भाई मुझे कहानियां सुनना पसँद है पर उनको सुनने की एक वजह होती है न? मैं एक्टर हूँ न, भाई। उन्हीं की हँसी में अपनी हँसी मिलाते हुए जैसे अपनी गुस्ताखी के लिए माफ़ी मांगते हुए मैंने कहा, “जी, इरफ़ान भाई, मैं भी एक्टर ही हूँ।”

अब बात वाकई ख़त्म हो चुकी थी। हम दोनों को शायद लग रहा था, ये इस वक़्त का सही इस्तेमाल नहीं था। पर, कहानी सुनाकर मुझे मज़ा बहुत आया था और बाद में कई बार उन्होंने ज़िक्र किया कि उन्हें भी बहुत मज़ा आया। वो बताते थे कि मेरे जाने के काफी देर बाद तक वो इस मुलाक़ात पे हँसते रहे थे।
थोड़ी देर मोबाइल को देखने के बाद उन्होंने कहा, “चलें फिर?“ वो भी उस फ्लैट से मेरे साथ ही निकल लिए। अजीब सी चुप्पी थी। मुझे बीच-बीच में लग रहा था जैसे मैंने बहुत ही बेवकूफाना हरकत की है। अपने पसंदीदा अभिनेता से मिलकर मैंने खुद ही ऐसा काम कर दिया है कि फिर कभी मिलना न हो पाए।

हम लिफ्ट में घुसे तो बिल्डिंग के बच्चों ने वो चुप्पी तोड़ी। ढेर सारे बच्चे ऑटोग्राफ की ज़िद करने लगे। लिफ्ट से गाड़ी तक जाते हुए वो चुप्पी बनी रही। गाड़ी तक पहुँचने से ज़रा पहले वो रुके और उन्होंने कहा, “एक्टिंग जो भी करे, लेकिन ये कहानी है बहुत अच्छी। मेरे लिए कोई कहानी हो तो ज़रूर सुनाना।” मैंने कहा,” है, न भाई, बिल्कुल है।“ उन्होंने एक बच्चे की तरह चिढ़ते हुए कहा, “तो वो क्यों नहीं सुनाई, भाई मेरे।” मैंने कहा आप जब कहें, सुना दूँगा। उन्होंने शरारत भरी हँसी के साथ कहा “अब ये मत कह देना, अभी सुन लो। अभी मुझे घर जाना है।” मैंने कहा, “नहीं, नहीं, आप बताइये कब?“ और फिर आधा घंटा हम जाने क्या बात करते रहे। उन्होंने पाँच दिन बाद का टाइम दिया और पूछा, ‘वो कहानी भी पूरी लिखी हुई है न?“
मैंने कहा, ‘`जी“। आज तक मैं उन्हें ये नहीं बता पाया था कि पाँच दिन बाद मैंने उन्हें जो कहानी सुनाई, वो पूरी मैंने उन्हीं पाँच दिनों में दिन-रात जग कर लिखी थी। हमेशा सोचता था की कभी इत्मीनान से बताऊंगा।



इरफ़ान भाई को यह फिल्म सुनाने मैं अपने निर्देशक दोस्त मक़बूल के साथ गया था। उनके मढ़ आइलैंड वाले घर पर नाश्ते से गपशप शुरू हुई। थोड़ा वक़्त गपशप में बीत गया। अब उन्हें डी-डे फिल्म की प्रमोशन के लिए जुहू पहुंचना था। मक़बूल और मैं सोच ही रहे थे कि कहानी की बात शायद अब अगली मुलाक़ात में हो। मक़बूल भाई  चाहते भी थे कि बात ज़रा टल ही जाए तो अच्छा है। क्योंकि बस उन्हें ही ये राज़ मालूम था कि ये कहानी पाँच दिन में लिखी गयी है। उस कहानी को हम भी एक-दूसरे को ठीक से सुना नहीं पाए थे।

अचानक इरफ़ान भाई ने कहा, “यह तो कहीं भी सुना सकते हैं, और कभी भी। है न?“
मैंने कहा, “जी, बिल्कुल।”
फिर कहा,, “तो मैं भी, कहीं भी सुन सकता हूँ .. गाड़ी में?“
हम बिल्डिंग से नीचे आये तो उन्होंने कहा, “मैं तुम्हारी गाड़ी में आ जाता हूँ। मेरी गाड़ी पीछे-पीछे आ जाएगी।” मक़बूल भाई ने गाड़ी चलाना शुरू की और मैंने कहानी सुनाना शुरू किया और उन्होंने सुनना।

ये जादू भरा सफर था। हम तीनों ठहाके लगाते रहे। न उस गाड़ी का ज़्यादा भरोसा था, न उस पाँच दिन में लिखी कहानी का।
लेकिन, गाड़ी चलती गयी, कहानी भी।
जब कहानी ख़त्म हुई, इरफ़ान भाई का मेकअप हो चुका था।

सन एंड सेंड होटल के बेसमेंट में डी-डे फिल्म का प्रमोशन शुरू हो चुका था और अपनी फिल्म की कहानी ख़त्म हो चुकी थी। फिर उस फिल्म की कहानी के लिए हम लगातार मिलते रहे।

वो फिल्म तो नहीं बन सकी, लेकिन उस कहानी के बहाने एक दूसरे को जानने का एक बड़ा खूबसूरत सिलसिला शुरू हो गया। ऐसे ही कहानी सुनने-सुनाने के बहाने कभी भी ज़रा देर के लिए फ़ोन आता और फिर घंटों बातें चलतीं। एक दिन, उन्होंने वही कहानी फिर से सुनाने के लिए कहा जो मैंने पहली मुलाक़ात में सुनाई थी। मैंने कहा “भाई, मैंने कहा था वो मैं एक्टर के तौर पे करना चाहता हूँ।” उन्होंने कहा, “इसीलिए पूछ रहा हूँ, मुझे पता है तुम एक्टर हो। हम कुछ फिल्में प्रोड्यूस  करना चाह रहे हैं और वो फिल्म मेरे दिल के बहुत करीब है।

ऐसे कुछ मौकों पे मुझे सपने देखने पे यक़ीन लौट आता था। कई बार बड़ी अजीबोगरीब  कहानियाँ या सीन उनसे शेयर करता तो हम खूब ठहाके लगाते। वो पूछते, ‘`लेकिन क्या सच में ऐसा ही करने का मन है?“ मैं कहता ‘`भाई मन तो है।“ और वो कहते, `’मन का सब हो जायेगा क्या बे?“

ऐसे ही एक रात मैं फिल्म डायरेक्ट करने की ज़िद लेके उनके घर पहुँच गया था। वो खाना खा रहे थे, मैं बगल में “हाँ या ना बोल दो” टाइप शक्ल लेके बैठ गया। उन्होंने कहा, ‘`लिखी है न तुमने? और कह रहे थे एक्टिंग करनी है तुम्हें? अब क्या नया?  और ज़रा देर बाद एक बड़े भाई की तरह लगभग डाँटते हुए कहा, “डिसाइड तो कर।“ मैंने कहा, “भाई, जो अभी मन कर रहा है, वो बता रहा हूँ।“ उन्होंने फिर ज़ोर से हँसते हुए कहा था, “मन का सब हो जायेगा क्या बे?“

कभी-कभी उनका फ़ोन आता, “घर से बांद्रा जा रहा हूँ, रस्ते से तुम्हें किडनैप कर लूँ? कुछ कहानी सुन लेंगे।“
और मैं किडनैप होने के लिए ख़ुशी ख़ुशी राज़ी रहता।
सबसे मज़े की बात थी कि दो-तीन  बार उन्हें चलती गाड़ी से इतने बड़े शहर में, मैं कहीं भीड़ में घूमता हुआ जाने कैसे नज़र आ गया था। वे आवाज़ देके बिठा लेते, आओ थोड़ी दूर तक और गाड़ी में गपशप मारते हुए उनका अद्भुत साथ मिलता। मैं देखता था कि चलती गाड़ी में उन्हें और भी जाने कितने लोग नज़र आ जाते थे और वो गाड़ी रोक के सबका हालचाल पूछ लेते थे।  कभी अचानक 10-15  मिनट मिलने का प्लान बनता और घंटों कब बीत जाते पता नहीं चलता था। इस बीच उन्होंने कई फिल्मों में साथ जुड़ने के लिए कहा। मैं जब उनसे कहता था कि पढ़ने या सुनने के बाद मज़े नहीं आये तो कहते, “हाँ, हाँ मज़े नहीं आये तो मत करना। मज़ा आना चाहिए।’`



इसी सिलसिले में जब “हिंदी मीडियम“ की बात हुई, तो उन्होंने कहा, “अब ये वाली कर डालो यार तुम, मज़े बहुत आयेंगे।’`

और सच में मज़े बहुत आये। अपने पसंददीदा अभिनेता के साथ वक़्त बिताने और फ़ोन पे गपियाने का बहाना जो मिल गया था। घर बुला के एक-एक सीन को स्वाद लेके सुनते और हर सीन में मेरा मन होता कि उनका ये स्वाद कम न हो।

इसके साथ ही बहुत सारे किस्सों और कहानियों ने हमें चुन लिया।

और फिर अचानक ऐसे बहुत से किस्से-कहानियां अचानक रास्ते में कहीं रुक गए।

उनकी तबीयत खराब हुई और फिर ज़्यादा बातचीत नहीं हो पायी। मुझे बात करने का कोई और बहाना नहीं मिला। इन मुलाक़ातों में और बातों में बहुत-बहुत कुछ सीखा मैंने उनसे।
लेकिन अभी-अभी तो मिलने का लालच शुरू ही हुआ था।
मैं इंतज़ार करता रहा कि अचानक गाड़ी का शीशा नीचे उतरेगा
और मेरी कहानियों का ‘नायक’ मुझे ज़रा देर के लिए किडनैप कर के ले जायेगा। इस शहर में जो कहानी किसी को समझ नहीं आती, उस पर वो घंटों बात करेंगे। छोटी-छोटी बातों पर ज़ोर से हसेंगे और खूब “मज़ा” करेंगे।

आज मन उदास है, आंखें भीगी हैं। मन यक़ीन नहीं करना चाहता…। और मुझे वो मुस्कुराती आँखों से देखते हैं और पूछते हैं, “मन का सब हो जायेगा क्या बे?“

(मूलत: करनाल (हरियाणा) के रहने वाले अमितोष नागपाल अपने शहर में थियेटर करते हुए वाया एनएसडी बॉलीवुड पहुँचे। वे मुंबई में रहते हैं, फिल्मों में अभिनय करते हैं और फिल्मों के लिए पटकथाएं-गीत लिखते हैं। थियेटर से भी उनका रिश्ता बरकरार है और इस सिलसिले में वे देश-विदेश की यात्राएं करते रहे हैं।)

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