Saturday, April 27, 2024

गाजा में इजराइली जनसंहार का एक महीना पूरा

फिलिस्तीन के गजा में अभी जो हो रहा है, उसे युद्ध कहा जाए या नहीं, यह प्रश्न मौजूं है। बेशक, बीते सात अक्टूबर को पहला वार गजा स्थित संगठन हमास ने किया था। हालांकि इस हमले के पीछे भी लंबी पृष्ठभूमि है, फिर भी कहा जा सकता है कि इजराइल और फिलिस्तीन के युद्ध के मौजूदा दौर की शुरुआत हमास ने की। बहरहाल, उस रोज के बाद से गुजरे एक महीने में गजा में जो हुआ है, वह वहां के असैनिक और निहत्थे नागरिकों पर इजराइल के एकतरफा अत्याचार की कहानी है। इस दौरान इजराइल ने जो किया है, उसे संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियां तक युद्ध अपराध बता चुकी हैं। बाकी दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में इसे मानवता के खिलाफ अपराध भी माना गया है।

सात अक्टूबर के हमास के हमले और उसके बाद की इजराइली कार्रवाइयों ने पश्चिम एशिया के पूरे दृश्य को बदल डाला है। लेकिन यह बदलाव सिर्फ वहीं तक सीमित नहीं है। इसका असर सारी दुनिया पर है। इस लिहाज से गुजरा एक महीना उन रुझानों की पुष्टि करने वाला साबित हुआ है, जो पहले से उभरते दिख रहे थे और जो फरवरी 2022 में यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से काफी मजूबत हो गए। ये रुझान दुनिया के शक्ति संतुलन और समीकरणों में तेजी से आ रहे बदलावों से संबंधित हैं, जिसमें स्थितियां पश्चिम के हाथ से निकल रही हैं।

फिलहाल, बात को इजराइल-फिलिस्तीन तक केंद्रित रखते हुए, उससे जो संकेत जाहिर हुए हैं, उन पर ध्यान देते हैं-

  • सात अक्टूबर को अनपेक्षित और असाधारण हमला बोलते हुए हमास ने इजराइली सुरक्षा व्यवस्था की अभेद्यता के भ्रम को हमेशा के लिए तोड़ दिया।
  • उन हमलों ने इजराइली खुफिया एजेंसियों के बारे में इस भ्रम को भी ध्वस्त कर दिया कि ये एजेंसियां पहले से ही सब कुछ जान लेती हैं।
  • हमास के हमलों ने यह स्पष्ट कर दिया कि फिलिस्तीनी सवाल को दरकिनार कर पश्चिम एशिया में शांति की कल्पना सिरे से निराधार है।
  • इस रूप में हमास ने पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के समय कराए गए तथाकथित अब्राहम समझौतों को दफना दिया। इन समझौतों के तहत बहरीन, यूएई (संयुक्त अरब अमीरात) और मोरक्को ने इजराइल को मान्यता प्रदान करते हुए उससे राजनयिक संबंध बनाए थे। गौरतलब है कि गजा में मानव अधिकारों के हो रहे घोर हनन पर विरोध जताते हुए बहरीन अब तेल अवीव (इजराइल की राजधानी) से अपना राजनयिकों को वापस बुला चुका है।
  • चूंकि संपन्न हो चुके अब्राहम समझौते अब अप्रासंगिक हो गए हैं, तो उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए सऊदी अरब और इजराइल के बीच सामान्य संबंध स्थापित करवाने की जो बाइडेन प्रशासन की जारी कोशिश भी निरर्थक साबित हो गई है।
  • चूंकि अमेरिका और यूरोपीय देश इस युद्ध में पूरी तरह से इजराइल के समर्थन में खड़े हैं, इसलिए उनके खिलाफ पश्चिम एशिया और पूरे मुस्लिम जगत में भावनाएं इतनी प्रबल हैं कि वहां के शासकों को भी पश्चिम के खिलाफ आक्रामक मुद्रा अपनानी पड़ी है। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन की एक और विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन की दो इजराइल और पास-पड़ोस की दो यात्राओं के दौरान यह बात हर कदम पर जाहिर हुई।
  • इस रूप में इस युद्ध ने पश्चिम एशिया-अरब जगत में अमेरिकी प्रभाव के सिकुड़ने की गति को तेज किया है। और यह अकारण नहीं है। असल में इस युद्ध की जड़ में अमेरिकी भूमिका ही है। या तो अपनी कूटनीतिक विफलता के कारण या फिर अनिच्छा की वजह से अमेरिका अपनी घोषित नीति के मुताबिक फिलिस्तीन मसले का हल नहीं निकाल सका। अगर ऐसा हो गया होता, तो सात अक्टूबर के हमलों की नौबत ही नहीं आती।
  • 1993 के ओस्लो समझौते के तहत इजराइल 1999 तक अलग संप्रभु फिलिस्तीनी राज्य की स्थापना पर राजी हुआ था। यह समझौता अमेरिकी कूटनीति का परिणाम था। मगर तय समय सीमा के 25 साल बाद आज फिलिस्तीनी राज्य की स्थापना पश्चिम के एजेंडे से ही बाहर हो चुकी है। उसके विपरीत ट्रंप के समय से इस सवाल को दरकिनार कर मुस्लिम देशों के साथ इजराइल का राजनयिक संबंध बनवाना अमेरिका की प्राथमिकता बन गया।
  • चूंकि विकासशील दुनिया इस तथ्य और फिलिस्तीनियों पर अत्याचार के लंबे इतिहास से परिचित है, इसलिए उसने सात अक्टूबर और उसके बाद की घटनाओं पर पश्चिमी देशों के कथानक पर यकीन नहीं किया है। इसका सबूत संयुक्त राष्ट्र महासभा में जॉर्डन के प्रस्ताव पर हुए मतदान के दौरान मिला। उस प्रस्ताव में गजा में तुरंत युद्धविराम की अपील की गई थी। 120 देशों ने उस प्रस्ताव का समर्थन किया, इसके बावजूद कि अमेरिका ने उसके खिलाफ वोट डाला। 45 देशों ने अपने को मतदान से अलग रखा।
  • इस रूप में हम कथानक नियंत्रण (नैरेटिव कंट्रोल) की पश्चिम की अब तक चुनौती से परे रही क्षमता में क्षरण के स्पष्ट संकेत देख सकते हैं। वैश्विक आर्थिक प्रतिस्पर्धा में पहले ही पिछड़ चुका पश्चिम अगर नैरेटिव कंट्रोल की क्षमता भी खो देता है, तो सिर्फ सैनिक ताकत के बूते उसके लिए अपने वर्चस्व और साम्राज्य को बचा पाना संदिग्ध हो जाएगा।

बिना किसी राजनीतिक योजना और नैतिक बल के किसी भी सैन्य महाशक्ति का वर्चस्व ना तो इतिहास में टिकाऊ हुआ है, ना ही वर्तमान या भविष्य में ऐसा होने की संभवना है। इस हकीकत को खुद अमेरिकी थिंक टैंकों से जुड़े रहे बुद्धिवीजी भी स्वीकार करते हैं। अमेरिका की स्टैनफॉर्ड यूनिवर्सिटी में स्थित सेंटर फॉर इंटरनेशनल सिक्युरिटी एंड को-ऑपरेशन में रिसर्च स्कॉलर अर्जन तारापोर ने इजराइल की कमजोर पड़ी स्थिति से सबक लेने की सलाह भारत दी है। मगर कहा जा सकता है कि यह सलाह अमेरिका से लेकर यूरोप तक के देशों के लिए भी उतनी ही सटीक है, जो अपने अतीत की ताकत के अहंकार में आज तक खोये हुए हैं।

तारापोर ने लिखा है- “2008 के बाद से हर दो साल पर इजराइल गजा पर सीमित हवाई हमले कर रहा था। उसका मकसद रॉकेट दागने से लेकर सुरंग निर्माण तक की हमास एवं अन्य लड़ाकू संगठनों की क्षमताओं को कमजोर करना था। पर्याप्त संख्या में हमास लड़ाकुओं को मार डालने, रॉकेट्स को निष्प्रभावी करने और खतरे को नियंत्रित रखने के मकसद से इजराइल हर दो साल पर हमला करता था। हर हमले के बाद एक अनिश्चित शांति इजराइल के आसमान पर लौट आती थी। हर कुछ अंतराल पर ऐसे टकराव पर आधारित इजराइल की रणनीति कारगर होती मालूम पड़ रही थी। लेकिन हकीकत में इजराइल की सेना इस सच्चाई पर परदा डाल रही थी कि उसके पास कोई राजनीतिक योजना नहीं है। इजराइल फिलिस्तीनी प्रतिरोध की उस समस्या का समाधन ढूंढने के बजाय उसे मैनेज कर रहा था, जिससे आतंकवादी दुश्मन पनपते रहे हैं।”

भारत को तारापोर की सलाह पाकिस्तान के संदर्भ में है। उनकी सलाह है कि भारत को सिर्फ सैनिक श्रेष्ठता के गुमान में नहीं रहना चाहिए, बल्कि खतरे को टालने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का रास्ता भी अपनाना चाहिए। उन्होंने लिखा है- “गुजरे एक महीने में हमने देखा है कि राजनीति को नजरअंदाज करना कितना महंगा पड़ता है। एक कमजोर, लेकिन संकल्पबद्ध विरोधी अकथनीय क्षति पहुंचा सकता है।”

मगर उचित होगा कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश की इस सलाह पर गौर करें।

फिलहाल, आज दिग्भ्रमित इजराइल बिना किसी सैनिक उद्देश्य एवं राजनीतिक योजना के अभाव में गजा में मानवता के घोर हनन पर उतारू है। यह स्थितियों पर नियंत्रण ना होने से पैदा हुई उसकी अपनी बेचैनी का परिणाम है। दूसरी तरफ ऐसी दिग्भ्रमित कार्रवाइयों का समर्थन करने वाले देश अपने नैतिक बल और विश्व में अपने प्रभाव को हर रोज गंवाते जा रहे हैं, क्योंकि उनके पास भी कोई राजनीतिक योजना या फिलिस्तीनी समस्या का समाधान लागू करने की इच्छा या क्षमता नहीं है।

इसका दूरगामी परिणाम इजराइल के लिए बढ़ती असुरक्षा के रूप में सामने आएगा। उधऱ इसका नतीजा दुनिया पर पश्चिमी वर्चस्व के अंतिम रूप से क्षीण होने के रूप में भी सामने आएगा। यह दीगर बात है कि इस बड़े घटनाक्रम की कीमत अकल्पनीय त्रासदी के साथ अभी फिलिस्तीन के लोग चुका रहे हैं।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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