Tuesday, March 19, 2024

ममता का दिल्ली दौराः धीरे-धीरे होई विपक्षी एकता

पश्चिम बंगाल की अग्निकन्या ममता बनर्जी का विपक्षी एकता के निमित्त पांच दिनों के दिल्ली दौरे के बारे में यही कहा जा सकता है कि उम्मीद जगी है लेकिन मकसद बहुत धीरे धीरे ही पूरा होता दिख रहा है। प्रसिद्ध मार्क्सवादी बौद्धिक और गीतकार गोरख पांडेय का एक गीत है- समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई। वैसे ही लगता है कि विपक्षी एकता धीरे धीरे होई। ममता बनर्जी तो अपने दौरे के बाद यह कह कर गई हैं कि उनकी शरद पवार, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल और दूसरे कई नेताओं से अच्छी मुलाकात रही। संयुक्त विपक्ष का नेता कौन बनेगा यह सवाल ज्यादा मायने नहीं रखता। मायने यह बात रखती है कि लोकतंत्र को हर कीमत पर बचना चाहिए। इसीलिए वे लोकतंत्र बचाओ, देश बचाओ का नारा देकर गई हैं।

लेकिन यह बात ममता बनर्जी भी जानती हैं और जिन नेताओं से वे मिली हैं वे भी जानते हैं कि अभी वे जितने नेताओं से मिली हैं वह संख्या विपक्षी एकता के लिए बहुत कम है। निश्चित तौर पर विपक्षी एकता के किसी कार्यक्रम को कांग्रेस से अलग रह कर नहीं बनाया जा सकता लेकिन उसे कम्युनिस्ट पार्टियों, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राजद, बीजू जनता दल, तेलुगू देशम, तेलंगाना राष्ट्र समिति और शिवसेना वगैरह से अलग रह कर भी तैयार नहीं किया जा सकता। इसलिए सवाल यह उठ रहा है कि ममता के दिल्ली आने पर उनसे मिलने वाले विपक्षी नेताओं की संख्या उतनी नहीं रही जितनी होनी चाहिए थी। विपक्षी दलों के महत्वपूर्ण नेताओं ने उनसे किनारा किए रखा।

ममता ने प्रधानमंत्री मोदी और नितिन गडकरी से मिलकर सत्ता के गलियारे में अपनी छाप जरूर छोड़ी लेकिन अगर समाजवादी पार्टी, बसपा और राजद के नेता उनसे मिलते हुए दिखते तो अलग ही संदेश जाता। ममता बनर्जी की यह कोशिश है कि अगले साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को विपक्ष कड़ी टक्कर दे और अगर हो सके तो उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की सत्ता उसके हाथ से छीन कर 2024 का सेमीफाइनल जीतने का आगाज कर दे। इसके लिए अगर सपा-बसपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों में तालमेल न बने तो टिकट का वितरण कुछ ऐसा हो कि भाजपा विरोधी वोट बंटे न।

लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है। हर क्षेत्रीय दल ममता बनर्जी की तरह से सिर पर कफन बांधकर नहीं चलता। ममता बनर्जी का तो कहना है कि जो डर गया सो मर गया। उन्होंने अपने साहस से इसे साबित भी किया है। लेकिन उत्तर प्रदेश के क्षत्रप अखिलेश यादव और मायावती वैसा करते हुए नहीं दिख रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव ममता बनर्जी से मिलते रहते हैं और उनके चुनाव के दौरान भी वे लोग गए थे लेकिन अखिलेश यादव राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए सबसे कड़ी चुनौती बनने वाली ममता बनर्जी के साथ खड़े होते कम दिखना चाहते हैं।

अखिलेश यादव जिस समाजवादी पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं वह मुलायम सिंह यादव की वह समाजवादी पार्टी है जिसने अयोध्या आंदोलन में पूरे संघ परिवार से लोहा लिया था। मुलायम सिंह जब तक सक्षम थे तब तक कांग्रेस और भाजपा दोनों से टकराने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। हालांकि बीच में उन्होंने उन दलों से समझौते भी किए लेकिन जब चुनौती देते थे तो वह राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई देती थी। आज उनकी विरासत के दावेदार अखिलेश यादव वैसी स्थिति नहीं पैदा कर पा रहे हैं। उन्हें उत्तर प्रदेश जैसे 23 करोड़ की आबादी और 13 करोड़ मतदाता वाले विशाल प्रदेश का नेतृत्व वैसे ही करना चाहिए जैसे कि उसके मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कर रहे हैं। आदित्यनाथ को भले ही राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की समझ न हो लेकिन वे उन मसलों पर अपनी राय देने से चूकते नहीं हैं। यहां पर अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी को क्षेत्रीय से भी कम गंभीर दल के रूप में प्रस्तुत करते दिखते हैं।

यही स्थिति मायावती की भी है। उन्होंने जब राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था तो लगता था कि वे भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देंगी और कोई नई राजनीति पैदा करेंगी। लेकिन उन्हें न तो महंगाई से कोई सरोकार है, न कोरोना महामारी से हुई तबाही से और न ही देश की प्रमुख संस्थाओं की पेगासस से हुई जासूसी से। अब वे अचानक ब्राह्मण वोटों की राजनीति करने निकल पड़ी हैं। नवीन पटनायक तो यह सोचकर खामोशी साधे रहते हैं कि अगर वे केंद्र सरकार के विरुद्ध बोले तो उनके प्रदेश के विकास के लिए मिलने वाली राशि घट जाएगी और उड़ीसा जैसे आपदाग्रस्त राज्य में वे उसके बिना काम नहीं कर सकते।

हालांकि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ही नहीं जनता दल(एकी) के नेता भी मन ही मन चाहते हैं कि एक बार विपक्षी एकता से बना संगठन लोकसभा के चुनाव में विजयी हो तो सत्ता के बंटवारे में उनका भी दांव लग जाएगा। सन 2012 में जब प्रदेश में समाजवादी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला था तो पार्टी के हर कार्यकर्ता और नेता की गाड़ी पर 2014 में दिल्ली की गद्दी पर मुलायम सिंह को बिठाने का संकल्प जताने वाला पोस्टर लगा रहता था। इसी तरह नाभिकीय समझौते पर यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद वाममोर्चा ने जब 2009 के आम चुनाव में मायावती को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था तो वे भी अपना प्रधानमंत्री पद पर अपना दावा दिखाती रहती थीं।

आज निश्चित तौर पर ममता बनर्जी एक क्षेत्रीय क्षत्रप होने के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर सर्वाधिक जुझारू और शत्रुहंता योग वाली नेता दिखती हैं। हालांकि उनका डीएनए कांग्रेसी है लेकिन वह वास्तव में किसी समाजवादी या कम्युनिस्ट नेता वाला ही दिखता है। उन्होंने अपनी जंगी राजनीति से न सिर्फ 34 साल के वाममोर्चा के शासन को उखाड़ फेंका बल्कि भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी जैसे ताकतवर नेता की पूरी सरकार की ताकत के आगे विधानसभा चुनाव जीतकर दिखा दिया। ममता बनर्जी अगर कम्युनिस्टों से ज्यादा जनवादी राजनीति कर सकती हैं तो भाजपाइयों से ज्यादा अस्मिता और(बांग्ला) राष्ट्रवाद की राजनीति भी कर सकती हैं। वे टूटे हुए पैर से भी खेला होबे करते हुए मैच जीत सकती हैं।

उनकी तुलना में अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं के बारे में यही कहा जा सकता है कि वे ऊंट की चोरी निहुरे निहुरे करना चाहते हैं। वे दलितों और पिछड़ों को हक भी दिलाना चाहते हैं, उनकी सत्ता भी कायम करना चाहते हैं, लोकतंत्र को बचाना भी चाहते हैं लेकिन उन लोगों से खुलेआम टकराना भी नहीं चाहते जो लोकतंत्र को कुचल रहे हैं। पूंजीवादी और हिंदुत्ववादी मीडिया कभी ममता बनर्जी को हिंसक बताता है तो कभी उनकी तुलना जिन्ना से करता है। लेकिन जब वे राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता कायम करने आती हैं तो उन्हें समाजवादी बताने लगता है। हालांकि वह योगी और मोदी की लोकलुभावन नीतियों को भी समाजवाद की कसौटी पर ही कसता है।

ममता बनर्जी ने देश में बढ़ते अधिनायकवाद के विरुद्ध लोकतंत्र का पल्स अभियान छेड़ दिया है। वे हर दो महीने पर दिल्ली आएंगी। इस बार जिन नेताओं से सीधे नहीं मिली हैं हो सकता है उनसे अगली बार मुलाकात हो। उनका यह अभियान 2022 और फिर 2024 तक चलेगा तो इसका कोई न कोई असर जरूर होगा।

लेकिन एक बात तय है कि विपक्षी एकता के लिए साहस और नैतिकता दोनों जरूरी है। भारतीय समाज ने भले ही लोकतंत्र की व्यवस्था को अंगीकार किया है लेकिन उसके भीतर सत्ता में बैठे लोगों के लिए एक प्रकार का दास्य भाव रहता है। यह दास्य भाव कभी कभी चीन के कन्फूसियसवाद को करीब चला जाता है। आज के भारत का बहुसंख्यकवाद और हिंदूवाद चीन के कन्फूसियसवाद जैसा ही दिख रहा है। जहां राजसत्ता जो भी करती है जनता उसका समर्थन करती है।

विपक्ष का दायित्व है कि कटुता और घृणा के बिना वह ऐसी राजनीति पैदा करे जो व्यक्ति की गरिमा, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता और क्षेत्रीय स्वायत्तता को फिर से बहाल करे। आज सत्ता का बढ़ता केंद्रीकरण और व्यक्तिपूजा और व्यक्तिवाद भारतीय लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने बार बार व्यक्तिपूजा का विरोध किया था। बल्कि वे गांधी और जिन्ना की आलोचना भी इसी नाते करते थे। गांधी स्वयं को महात्मा कहे जाने का विरोध करते थे। लेकिन आज का भारत संविधान के दूर धार्मिक ग्रंथों के मायाजाल में फंसता जा रहा है। संविधान के मूल्यों पर केंद्रित विपक्ष की राजनीति ही उसे यहां से निकाल सकती है। जरूरत है विपक्षी एकता की इस गति को तेज करने की लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है उसमें वैचारिक स्पष्टता और टिकाऊपन लाने की।

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)  

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