जयंती पर विशेष: प्रेमचंद की परम्परा एक सामूहिक प्रगतिशील परम्परा थी

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जिस प्रेमचन्द के निधन पर उनके मुहल्ले के लोगों ने कहा कि कोई मास्टर था जो मर गया, जिस प्रेमचन्द की  अत्येंष्टि  में दस बारह लोग ही मुश्किल से शामिल हुए थे, वह प्रेमचन्द अपने निधन के 85 साल बाद भारत के एक  बड़े साहित्यिक सांस्कृतिक  प्रतीक बन गए हैं। ग़ालिब और टैगोर  और सुब्रमण्यम भारती की तरह आज वह भी  एक राष्ट्रीय नायक बन गए हैं। एक ऐसा नायक जो अपने समय के राजनेताओं से भी आगे का सोचता था जिसके पास एक गहरी अंतर्दृष्टि थी और जो  अपनी जनता से अथाह प्यार करता था। गरीबों शोषितों और वंचितों के लिए जिसके मन में गहरा दर्द था। वह दर्द भी उस तरह था जिस तरह गांधी, नेहरू और अम्बेडकर के मन मे था।

प्रेमचन्द के समय पचासों लेखक कविता कहानी उपन्यास  लिख रहे थे। पांच दस तो ऐसे थे जो प्रतिभा में उनसे कम नहीं थे लेकिन प्रेमचन्द की तरह कोई prolific  और professional लेखक   नहीं था। प्रेमचन्द का साहित्य में  अपना एजेंडा स्पष्ट था। उनकी दृष्टि साफ थी। उनका लक्ष्य संदेश और लेखकीय दायित्व  भी साफ था इसलिए कोई दूसरा प्रेमचन्द नहीं बन सका लेकिन यह सब एक दिन में नहीं हुआ। 1915 में  हिंदी में छपी कहानी “सौत” और उपन्यास ” सेवासदन” से लेकर “कफन” और “गोदान” तक उनका उत्तरोत्तर विकास हुआ ठीक राष्ट्रीय आंदोलन के समानांतर। 

प्रेमचन्द का जन्मदिन एक सांस्कृतिक उत्सव की तरह बन गया है। एक ऐसा उत्सव जिसमें विचारों की रौशनी है, जिसमें अपने समय और समाज को पहचानने की नब्ज हो। आज मुल्क जिस फासीवाद के मुकाम पर पहुंच गया है प्रेमचन्द आज भी उससे लड़ने की ताकत देते हैं क्योंकि यह फासीवाद साम्प्रदायिकता और हिंदुत्व की कोख से निकला है, यह मुल्क  की बदहाली  से निकला है।

हर साल 31 जुलाई आते ही  साहित्य जगत में प्रेमचंद जयन्ती देश के किसी न किसी कोने में जरुर मनाई जाती है  और  लोग उस रौशनी को खोजने निकल पडते हैं  जो गम होती जा रही है। आज के दिन प्रेमचंद की परम्परा का जिक्र भी  जरूर किया जाता है। प्रेमचंद  निसंदेह राष्ट्रीय आन्दोलन के लेखकों में   सबसे बड़े प्रतीक  हैं जिस तरह आजादी की लड़ाई में  गांधी  सबसे बड़े प्रतीक हैं, लेकिन गांधी  के साथ हम नेहरू, पटेल, सुभाष चन्द्र बोस और भगत  सिंह  आदि को भी  जरूर याद कर लेते हैं। अब तो अम्बेडकर भी गांधी के बाद  एक दूसरे  बड़े  प्रतीक के रूप में उभरे हैं लेकिन क्या प्रेमचन्द की परम्परा  केवल प्रेमचन्द ने बनाई थी और वह पहले व्यक्ति थे जो साहित्य में यथार्थवाद  के प्रणेता थे?

प्रेमचंद्र की परंपरा पर विचार करते हुए परम्परा शब्द पर भी विचार करना चाहिए। परम्परा  एक व्यापक शब्द है। उसमें सभ्यता  संस्कृति इतिहास सब शामिल है , वह  किसी एक विचारधार या एक संस्कृति या एक भाषा से  नहीं बनती विशेषकर भारत में जहाँ इतनी भाषाएँ और संस्कृतियाँ है। जाहिर है प्रेमचंद की परम्परा भी इकहरी नहीं हैं  लेकिन उसे केवल वाम विचारधारा तक  महदूद करने की कोशिशें हुईं और प्रेमचंद का मार्क्सवादी संस्करण तथा प्रसाद का दक्षिणपंथी संस्करण  बनाने की भी कोशिशें हुईं। हिन्दी में दूसरी परम्परा का भी इतिहास रहा है। अगर प्रेमचन्द  इस दूसरी परम्परा के प्रतीक पुरुष  हैं  तो उस परम्परा में उनके समकालीन और  पूर्ववर्ती  सब शामिल हैं चाहे भारतेंदु और  महावीर प्रसाद द्विवेदी क्यों  ना हों।

प्रेमचंद की परम्परा पर विचार करते हुए इन सभी पहलुओं पर ध्यान देना होगा अन्यथा हम प्रेमचंद की  इकहरी  और संकीर्ण  मूर्ति बनायेंगे और जिन सवालों के लिए प्रेमचंद और उनके समकालीन  लेखक लड़ाई लड़ते रहे वह लड़ाई कमजोर हो जाएगी। राष्ट्रीय आन्दोलन में भी उन सभी लेखकों ने मिलकर लड़ाई लड़ी थी इसलिए प्रेमचंद की परम्परा भी एक सामूहिक परम्परा  है जिसमें उस दौर का श्रेष्ठ साहित्य और प्रतिरोध विवेक संघर्ष सब शामिल है।

लेकिन हिन्दी में प्रेमचद की परम्परा का जब जिक्र होता  है और उसमें उनके समकालीनों का जिक्र अमूमन  नहीं होता है…इसका एक कारण यह भी  हो सकता है कि प्रेमचंद के साहित्य का जितना अधिक प्रचार प्रसार  हुआ, उतना उनके समकालीनों का नहीं हुआ ।उनका साहित्य भी  सहज रूप से अनुपलब्ध रहा, संस्थानों प्रतिष्ठानों ने भी उन पर  ध्यान  नहीं दिया। प्रेमचंद के साहित्य  ने भारतीय जनता के मर्म को जिस तरह छुआ ,उस तरह अन्य लेखकों ने शायद नहीं । प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना समारोह का उद्घाटन करने की घटना को  आज तक  प्रगतिशील लेखक संगठन भुनाता रहा  है और यह दावा करता है कि वही प्रेमचंद की परम्परा का असली उतराधिकारी और उनकी परम्परा का असली वाहक भी है।

प्रेमचंद रूसी क्रांति से प्रभावित जरुर थे और उन्होंने 1917 की क्रांति पर, जिसके आज सौ वर्ष हो रहे हैं। हंस में सम्पादकीय भी लिखा था, लेकिन और भी लेखक इस क्रांति से प्रभावित थे पर  प्रेमचंद प्रगतिशील होते हुए  राहुल संकृत्यायन की तरह कमुनिस्ट पार्टी के सदस्य भी नहीं थे, यह अलग बात है कि राहुल जी भाषा के सवाल पर पार्टी से निकाल  दिए  गए थे और बाद में वे दोबारा पार्टी में शामिल भी हुए। प्रेमचंद  राधा मोहन गोकुलजी और सत्यभक्त जी की तरह कम्युनिस्ट भी नहीं थे । लेकिन हिन्दी के वामपंथी लेखक प्रेमचंद को वाम लेखक के रूप में ही पेंट करते रहे और उनकी परम्परा की अक्सर चर्चा करते रहे  हैं।

सवाल यह है कि क्या प्रेमचन्द की परम्परा को केवल प्रेमचंद ने ही बनाया था या उसमें उनके समकालीनों का भी कोई  योगदान था और प्रेमचंद के यथार्थवाद के विकसित होने में क्या  उन्होंने भी कोई  बड़ी  भूमिका निभायी थी या नहीं  लेकिन हिन्दी साहित्य में उनके समकालीन लेखकों के योगदान की चर्चा नहीं के  बारे में  सुनायी पड़ती है। उनमें से अधिकांश आज या तो विस्मृत हैं या उपेक्षित हैं  या  अलक्षित। उनमें से कई लोगों की रचनायें  आज  मिलती ही नहीं। उनमें से कुछ की जन्मशातियाँ  मनाई गयीं तो थोड़ा बहुत ध्यान हिंदी समाज का गया। लेकिन प्रेमचंद की परम्परा को बनाने में उनके समकालीनों के अलावा उनके पूर्ववर्ती लेखकों का भी योगदान है।

दरअसल  हम परम्परा निर्माण का श्रेय किसी एक व्यक्ति विशेष को दे देते जबकि  उस परम्परा निर्माण में अन्य लोगों के योगदान को  भूल जाते हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन में भी कई लोगों का योगदान रहा है पर चर्चा कुछ लोगों की होती है। उसी तरह उस दौर के लेखन में भी कई लेखकों का योगदान रहा लेकिन हिन्दी के अकादमिक जगत  और लेखक संगठनों  ने  अपनी संकीर्णता  का परिचय देते हुए  उन पर पर्याप्त चर्चा नहीं की।

हिन्दी  में प्रेमचंद की परम्परा और विरासत को भी हड़पने और छीनने के प्रयास हुए। राजेंद्र यादव ने हंस निकलकर प्रेमचंद की परम्परा का असली उतराधिकारी खुद को साबित करने की कोशिश  की तो। शानी जी ने भी श्रीपत राय की पत्रिका  कहानी का संपादक बन कर राजेंद्र यादव से प्रेमचंद को छीनने की कोशिश की पर वे सफल नहीं हुए क्योंकि कहानी पत्रिका ही जल्दी बंद हो गयी । प्रेमचंद पर शोध करने वाले कमल किशोर गोयनका भी  आजीवन  प्रेमचन्द की गैर वाम छवि  बनाने में लगे रहे और दक्षिण पंथी लेखक प्रेमचंद को अपने खेमे में घसीटने का प्रयास  करते रहे। लेकिन प्रेमचंद के लेखन में हिन्दी और मुस्लिम साम्प्रदायिकता दोनों पर करारा प्रहार  है। उनमें गांधीवादी नैतिकता और प्रगतिशील जीवन मूल्य तथा आदर्शवाद भी है । इसके अलावा  राष्ट्रीय चेतना भी  है।

दरअसल प्रेमचंद जिस परम्परा का  प्रतिनिधित्व करते हैं, वह बहुत व्यापक और वृहद तथा उदार भी है जिसमें उनके समकालीन लेखक भी हैं चाहे  जयशंकर प्रसाद हों या  राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह या  सुदर्शन या कौशिक जी या शिवपूजन सहाय  या राहुल सांकृत्यायन या पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र लेकिन हिन्दी आलोचना ने प्रेमचंद की इस परम्परा से  राजा राधिका रमण की” कानों में कंगना “। शिवपूजन सहाय की “कहानी का प्लाट ।” प्रसाद की “गुंडा” या “आकाशदीप ” उग्र की “उसकी माँ  “कहानी को दरकिनार  कर दिया। उग्र  का तो मूल्यांकन ही नहीं हुआ, कौशिक जी  और सुदर्शन  की कई रचनाएँ सहज  रूप से उपलब्ध नहीं हैं। उन पर अधिक  शोध कार्य नहीं हुए।

इसलिए आज इस परंपरा की  सामूहिकता की जरूरत है अन्यथा हम आज अपनी लड़ाई जीत नहीं सकते। आज जिस समकाल में  हम सब जी रहे हैं उसमें एक प्रेमचन्द से हम लड़ाई नहीं  जीत सकते।

(विमल कुमार कवि और वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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