महामहिम जी, कम से कम आप तो महिलाओं को बराबरी की नजर से देखिए!

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अब तो महामहिम ने भी कोलकाता रेप और मर्डर पर अपना मुंह खोल दिया है। बीजेपी राज में सरकारी संस्थाओं की ऐसी-तैसी किसी से छुपी नहीं है। यही एक पद बचा था जो कीचड़ी कमल की निगाह से दूर था। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के इस हस्तक्षेप के बाद वह भी पूरा हो गया। महामहिम को मणिपुर में एक साल से ऊपर से अब तक जारी हिंसा नहीं दिखी। उन्हें वहां महिलाओं के साथ अकेले और सामूहिक तौर पर होने वाली हत्या और बलात्कार की जघन्यतम घटनाओं का भी पता नहीं चला। 

इस दौर में भी जबकि कोलकाता का मामला सामने आया है तो उसी के साथ देश के अलग-अलग राज्यों में महिलाओं के साथ ढेर सारी बलात्कार, हत्या और उत्पीड़न की घटनाएं सामने आयी हैं। इसमें से भी ज्यादातर मामले बीजेपी शासित राज्यों से जुड़े हैं। लेकिन उन्होंने उनका संज्ञान लेना भी जरूरी नहीं समझा। उन्हें केवल और केवल कोलकाता की घटना दिखी। और उसी की संवेदना से वह संवेदित हुईं। संवैधानिक सत्ता के शीर्ष पर बैठे मानक शख्स की निगाहें ही अगर न्याय के पलड़े पर असंतुलन की शिकार हो जाएंगी तो फिर कहने और सुनने के लिए कुछ बचेगा नहीं। 

राष्ट्रपति के इस हस्तक्षेप के बाद बीजेपी द्वारा पश्चिम बंगाल मामले पर चलाया जा रहा विरोध का सिलसिला एक नये चरण में पहुंच गया है। पार्टी ने संवैधानिक हो या कि गैर संवैधानिक सड़क हो या कि विधानसभा सभी जगहों पर अपने मोर्चे खोल दिए हैं। राजनीतिक पार्टियों को किसी भी गलत चीज का विरोध करने का हक है। लेकिन वह विरोध अगर न केवल एक सीमा और एक दायरे से बाहर निकल जाए बल्कि हिंसा और खून-खराबा उसका अभिन्न हिस्सा बन जाए तो ज़रूर उस पर सवाल उठने लगते हैं। 

राजनीतिक स्वार्थपरता के इस रास्ते में राष्ट्रपति और गवर्नर सरीखे संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी शामिल कर लिए जाएं तब विरोध की पूरी मंशा पर ही सवाल खड़े होने लगते हैं।

इस बात में कोई शक नहीं कि कोलकाता में जो हुआ है वह अकल्पनीय है। और उसके लिए दोषियों को जितनी भी सजा दी जाए कम है। घटना के बाद सरकार द्वारा बरती गयी आपराधिक लापरवाही को भी कभी माफ नहीं किया जा सकता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर विरोध के लिए विरोध या फिर मामले में कैसे पीड़ित को न्याय मिले और उसकी गारंटी की जाए यह सबसे प्रमुख प्रश्न है। इस लिहाज से सीबीआई के हाथ में मामले को दे दिया गया है जो केंद्र सरकार के अधीन है। इस तरह से अब बीजेपी को ही इस पूरी प्रक्रिया को देखना है। ऐसे में अब उससे इतर जाकर आखिर बीजेपी क्या बात कहना चाहती है? यह सबसे बड़ा सवाल है।

दरअसल बीजेपी का यह विरोध-प्रदर्शन जितना पश्चिम बंगाल के लिए है उससे ज्यादा उससे बाहर के सूबों के लिए। और उसमें भी उसकी विशेष चिंता चुनाव वाले राज्यों और खुद के शासित प्रदेशों के लिए है। ऐसा नहीं है कि बलात्कार की घटना केवल पश्चिम बंगाल में घटी है। गौर कीजिएगा तो इस बीच देश में महिलाओं के साथ दर्जनों बलात्कार और हत्या की वारदातें हुई हैं और उसमें भी ज्यादातर बीजेपी राज्य हैं, जहां ये घटित हुई हैं। उत्तराखंड में नर्स के साथ हुई बलात्कार की घटना को अभी लोग भूले भी नहीं थे कि यूपी के मुरादाबाद में उसी तरह की घटना घट गयी। 

अभी महाराष्ट्र के बदलापुर में चार साल की दो बच्चियों के साथ बलात्कार पर हंगामा रुका नहीं था कि सूबे की एक और जगह रत्नागिरी में एक नर्सिंग स्टूडेंट बलात्कार की शिकार हो गयी। अभी तीन दिन नहीं बीता है जब यूपी के फर्रूखाबाद में दो दलित बच्चियों की लाश पेड़ पर लटकी पायी गयी। पुलिस-प्रशासन इसे आत्महत्या बताकर मामले को रफा-दफा कर देना चाहता है। जबकि बच्चियों के परिजन इसे हत्या बता रहे हैं और जांच करके दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। यूपी प्रशासन का यह रवैया कोलकाता से भला कैसे अलग है कोई बता सकता है? यहां भी प्रशासन हीला हवाली कर रहा है जैसे कोलकाता में शुरू में किया गया।

अब बीजेपी का शातिरपना देखिए। इन सारी घटनाओं के लिए सत्ता में रहने के चलते वह अकेली जिम्मेदार है। लेकिन वह चाहती है कि उसकी तरफ किसी का ध्यान भी न जाए। कोलकाता की घटना को लेकर वह इतना शोर मचाएगी कि उसकी आवाज के नीचे दूसरी घटनाएं दब जाएं। जिससे वो कोई मुद्दा ही बन सकें। यह उसकी रणनीति का हिस्सा है। यह बात अलग है कि महाराष्ट्र को छोड़ दिया जाए तो बीजेपी शासित बाकी सूबों में विपक्ष अपनी भूमिका में ही नहीं खड़ा है। और वह बड़े-बड़े मुद्दों को ट्विटर पर अपने बयानों के जरिये निपटा देना चाहता है। 

वरना बीजेपी को इन जगहों पर विपक्ष के आगे पानी भरना पड़ जाता। महाराष्ट्र खुद में इसका सबसे बड़ा नजीर है। जहां बीजेपी चुनाव कराने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। यह बात अलग है कि विपक्ष वहां उसे कोई ढील नहीं दे रहा है। और हर मुद्दे पर उसकी घेरेबंदी के लिए तैयार है। और जब भी चुनाव होंगे तो नतीजों पर उसका असर बिल्कुल साफ दिखेगा। 

वैसे भी बंगाल में जिस मुद्दे पर बीजेपी आंदोलन कर रही है उस पर उसका अपना क्या इतिहास है? पिछले दस सालों में कठुआ से लेकर उन्नाव और शाहजहांपुर से लेकर हाथरस तथा बिल्किस बानो तक बीजेपी का चेहरा नंगा हो चुका है। इन सारी घटनाओं में वह खुलकर बलात्कारियों के साथ खड़ी रही है। कठुआ में उसकी अगुआई में बलात्कारियों के पक्ष में तिरंगा मार्च किया गया तो गुजरात में बलात्कारियों का स्वागत माला से किया गया। और इन ज्यादातर घटनाओं में ऐरे-गैरे नहीं बल्कि बीजेपी के बड़े और कद्दावर नेता शामिल रहे हैं। वह एमएलए कुलदीप सेंगर हों या कि पूर्व गृह राज्य मंत्री चिन्मयानंद। या फिर कुश्ती में महिला पहलवानों के शोषण के आरोपी बृजभूषण शरण सिंह।

ये सभी बीजेपी की सरकारों में संवैधानिक पदों पर रहे हैं। ऐसे में जिस पार्टी के नेता सीधे इन धतकर्मों में शामिल रहे हों अमूमन तो उन्हें विरोध करने का कोई नैतिक हक नहीं बनता है। और सचमुच में अगर वह ईमानदारी से विरोध करना चाहती है तो सबसे पहले देश से उसे अपने इन नेताओं के घृणित कर्मों के लिए माफी मांगनी चाहिए। 

देश के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि बलात्कार की घटनाओं को कैसे रोका जाए। आखिर वह क्या चीज है जिससे इस हैवानियत पर लगाम लगायी जा सकती है। निर्भया कांड के बाद बहुत कड़ा कानून बनाया गया था और उसी के तहत उसके दोषियों को फांसी की सजा भी हुई थी। तमाम दूसरी घटनाओं में भी उन्हीं धाराओं के तहत कार्रवाई हो रही है। लेकिन क्या इससे बलात्कार की घटनाएं कम हो गयीं? बिल्कुल नहीं। बल्कि एनसीआरबी के आंकड़े इसमें वृद्धि का ही संकेत देते हैं।

कहने का मतलब यह है कि तब समस्या कहीं और है। और उसकी तलाश की जानी चाहिए। यानि इसकी जड़ को खोजने की जरूरत है। डॉक्टर भी क्या करता है सबसे पहले मर्ज को डायग्नोज करता है और उसके बाद उसका इलाज करता है। ऐसे में शुरुआत यहां से की जाए कि आखिर समाज में महिलाओं की क्या स्थिति है? और उनके प्रति सत्ता और उसमें बैठी पार्टी का क्या नजरिया है। ये दोनों प्रश्न बेहद अहम हैं। 

एक बात तय है कि बलात्कार की इन घटनाओं को आखिरी तौर पर महिलाओं के सशक्तीकरण के जरिये ही रोका जा सकता है। सत्ता, समाज और संस्थाओं के हर स्तर पर महिलाओं की बराबर की भागीदारी को सुनिश्चित करना उसकी पहली शर्त है। यानि समाज में जब तक महिलाओं और पुरुषों को हर स्तर पर बराबरी का दर्जा नहीं मिल जाता है तब तक इन घृणास्पद घटनाओं को नहीं रोका जा सकता है। अब सवाल यह उठता है कि क्या उस दिशा में चीजें चल रही हैं?

अभी तक आयी तमाम दलों की सरकारों के बीच महिलाओं के सशक्तीकरण को लेकर एक आम सहमति थी। दिखावे के लिए ही सही बीजेपी भी उस सहमति का हिस्सा थी। और मुखौटे के लिहाज से वह आज भी उसको बनाए हुए है। लेकिन अंदरूनी सच्चाई बिल्कुल बदल चुकी है। महिलाओं के प्रति संघ-बीजेपी का नजरिया बिल्कुल दोयम दर्जे का है। साफ तौर पर कहें तो यही इन सारी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। पिछले दस सालों में हुई ऊपर की घटनाएं महिलाओं के प्रति बीजेपी के नजरिये का नतीजा थीं। 

संघ चीफ मोहन भागवत जब यह कह रहे होते हैं कि महिलाओं को घरों में रहकर अपने पतियों की सेवा करनी चाहिए और यही उनका असली धर्म और परम कर्तव्य है। तो आखिर वह क्या कर रहे होते हैं? महिलाओं को सशक्त कर रहे होते हैं या फिर उन्हें जहां खड़ी हैं उससे भी पीछे धकेल रहे होते हैं। दरअसल संघ की निगाह में महिलाओं का स्थान अपने पतियों के चरणों में है। और यह बात संघ छुपाता भी नहीं रहा है। 

ऐसे में महिलाओं के समाज में बराबरी पर खड़े होने और पुरुष के चरणों में स्थान हासिल करने के बीच जमीन-आसमान का अंतर है। यही वह अंतर है जो इस समय महिलाओं के हर तरह के उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार है। लिहाजा मनुष्य के दिमाग में जब तक मनुस्मृति के महिला विरोधी विचारों का गोबर भरा रहेगा। तब तक उस पर इस तरह की आपराधिक घटनाओं की फसल कटती रहेगी। इसको रोकने के लिए जरूरी है समानता और लोकतंत्र पर आधारित एक समाज के निर्माण की। जिसमें महिलाएं न केवल पुरुषों के साथ बराबरी पर खड़ी हों बल्कि उन्हीं की तरह स्वतंत्र होकर खुली हवा में सांस ले सकें। और उसके लिए जरूरी शर्त है उनका आर्थिक तौर पर बिल्कुल स्वतंत्र होना।

 (महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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