नई दिल्ली। दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के तहत एक कॉलेज ने संकाय सदस्यों और अनुसंधान विद्वानों के लिए “श्रीमद्भगवद गीता ज्ञानोदय और प्रासंगिकता” पर एक रिफ्रेशर कोर्स शुरू किया है, जिस पर सवाल उठ रहे हैं।
रामानुजन कॉलेज ने भगवद गीता के उपदेशों पर आधारित पाठ्यक्रम शुरू किया है जो 10 जनवरी, 2024 तक चलेगा। दो संकाय सदस्यों का कहना है कि यह पहली बार हुआ है कि डीयू का कोई कॉलेज इस तरह का कोर्स शुरू करने जा रहा है।
इस कोर्स में 18 व्याख्यान सहित 20 सत्र होंगे। कॉलेज की ओर से जारी एक कॉन्सेप्ट नोट के लिए चुने गए व्याख्यानों में अर्जुन विषाद योग, सांख्य योग, कर्म योग, ज्ञान योग, कर्म संन्यास योग, ध्यान योग, विज्ञान योग, अक्षर परब्रह्म योग, राज विद्या योग, विभूति योग, विश्वरूप संदर्शन योग, भक्ति योग और मोक्ष संन्यास योग शामिल हैं।
नोट में कहा गया है कि “पाठ्यक्रम भगवद गीता के प्रत्येक अध्याय में गहराई से उतरने, इसकी दार्शनिक जटिलताओं और शिक्षाओं को उजागर करने का प्रयास करता है। छंदों की सावधानीपूर्वक जांच के जरिये प्रतिभागी इस ग्रंथ में समाहित आध्यात्मिक ज्ञान की गहन खोज करेंगे।”
इसमें कहा गया है कि पाठ में निहित शिक्षाओं से जुड़कर, प्रतिभागी न केवल अपनी आध्यात्मिक समझ बढ़ायेंगे बल्कि भारत की सांस्कृतिक और दार्शनिक विरासत से भी जुड़ेंगे।
नोट में कहा गया है, “प्रतिभागियों को धर्मग्रंथ का दार्शनिक आधार, आज के जीवन में इसकी आवश्यकता और आम जीवन में इसके शिक्षाओं के उपयोग के बारे में जानकारी मिलेगी।”
डीयू अकादमिक परिषद (एसी) की सदस्य माया जॉन ने कॉलेज शिक्षकों को भगवद गीता पर तीन सप्ताह के कोर्स के पीछे की मंशा पर सवाल उठाया है।
जॉन का कहना है कि “भगवद गीता कॉलेज के छात्रों के किसी भी पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं है, चाहे वह इतिहास हो, या राजनीति विज्ञान या अंग्रेजी साहित्य। सवाल यह है कि क्या इस पाठ्यक्रम की पेशकश से शिक्षकों के छात्रों को पढ़ाने की कला में विकास होगा? क्या यह अनुसंधान कौशल को बढ़ा रहा है? कैसे? इन सवालों का कोई जवाब नहीं है।”
जॉन ने कहा कि हाल के वर्षों में अकादमिक स्टाफ कॉलेजों, जिन्हें अब मदन मोहन मालवीय केंद्र के रूप में जाना जाता है, में पेश किए जाने वाले शॉर्ट टर्म कोर्स का ध्यान धार्मिक ग्रंथों को पढ़ाने पर रहा है, वह भी एक विशेष धर्म से।
जॉन का कहना है कि “धार्मिक ग्रंथों को पढ़ाने का उद्देश्य शिक्षकों की पढ़ाने की क्षमता विकसित करने के बजाय हिंदुत्व विचारधारा को बढ़ावा देना है। आरएसएस और वीएचपी से जुड़े लोगों को विशेषज्ञ कहा जाता है जिनका शिक्षण या शोध से कोई संबंध नहीं होता। यह राजनीतिक भाईचारा अपने चरम पर है।”
(‘द टेलिग्राफ’ में प्रकाशित खबर पर आधारित।)
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