Saturday, April 27, 2024

सुप्रीम कोर्ट का निर्देश- मासिक धर्म स्वच्छता पर राष्ट्रीय नीति बनाए केंद्र

भारत में सैनिटरी पैड को आए करीब 100 साल हो रहे हैं, पर अब तक मेंस्ट्रुअल हाइजीन, यानि मासिक धर्म स्वच्छता के बारे में आम जनमानस में अज्ञानता बनी हुई है। कितनी सरकारें आई और गईं पर इस पर कोई नीति नहीं बनी। 2017 में एएसईआर की एक रिपोर्ट ने खुलासा किया था कि 23 मिलियन यानि 2 करोड़ 30 लाख लड़कियां स्कूलों में शौचालय और मासिक धर्म संबंधी सुविधाओं के अभाव के कारण स्कूल छोड़ देती हैं। यही कारण है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से एक राष्ट्रीय मॉडल तैयार करने के लिए कहा है। यह सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में स्कूली लड़कियों के लिए मासिक धर्म स्वच्छता के प्रबंधन के लिए होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने 10 अप्रैल को इस मुद्दे को ‘अत्यधिक महत्व’ का बताते हुए सरकार से मानक संचालन प्रक्रियाएं (एसओपी) तैयार करने का आग्रह भी किया। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और जेबी पर्दीवाला की पीठ ने स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के सचिव को नोडल आफिसर नियुक्त करके उन्हें राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के साथ समन्वय करने और राष्ट्रीय नीति तैयार करने हेतु प्रासंगिक डेटा एकत्र करने की हिदायत दी।

कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को अपनी मासिक धर्म स्वच्छता, प्रबंधन रणनीतियों और योजनाओं को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के संचालन समूह के समक्ष प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है, जो या तो संघीय सरकार के धन या स्वयं की सहायता से निष्पादित किये जा रहे हों। पीठ ने कहा, ‘‘सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को क्षेत्र के आवासीय व गैर-आवासीय स्कूलों में लड़कियों के शौचालयों के उचित अनुपात को अधिसूचित करने का निर्देश दिया जाता है। उनको स्कूलों में कम कीमत के सैनिटरी पैड का प्रावधान करने और वेंडिंग मशीन की उपलब्धता सुनिश्चित करने का निर्देश भी दिया गया है”।

पीठ ने कहा कि ऐसे स्कूल जहां अपर प्राइमरी, सेकेन्ड्री और हायर सेकेंड्री में लड़कियों का दाखिला हुआ है, स्कूल के अहाते में पैड के निपटान की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिये। साथ ही पीठ ने केंद्र सरकार को जुलाई के अंत तक एक अद्यतन स्थिति रिपोर्ट तैयार करने का निर्देश भी दिया है। ये निर्देश कांग्रेस नेता जया ठाकुर द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर बहस के दौरान दिये गए। सरकार का कहना है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य राज्य का विषय है और केंद्र सरकार मेंन्स्ट्रुअल हाइजीन संबंधित किसी भी योजना को कार्यान्वित करने के लिए जिम्मेदार नहीं है।

जया ठाकुर ने जो सवाल उठाए वे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, मसलन यह कि ‘‘गरीब घरों से आने वाली 11-18 वर्षीय लड़कियां गंभीर रूप से प्रभावित होती हैं क्योंकि उनके अभिभावक उन्हें मसिक धर्म स्वच्छता संबंधित जानकारी देने में अक्षम होते हैं। इसलिए ऐसी लड़कियां इस मामले में अनभिज्ञ और अशिक्षित हैं। गरीबी और अशिक्षा के कारण उनका आचरण अस्वास्थ्यकर और गंदा होता है और इसके चलते गंभीर बीमारियां होती हैं। वे अपनी ज़िद पकड़े रहती हैं और अंत में स्कूल छोड़ देती हैं।’’

कुछ उदाहरण

रितिका कक्षा 12 की परीक्षा देने जब काॅन्वेंट स्कूल के सेन्टर पहुंची तो उसे कुछ भी परेशानी नहीं थी। अपनी सीट पर बैठकर प्रश्नपत्र पढ़ते-पढ़ते अचानक उसके पेट में भयानक दर्द उठा। कुछ ही देर में उसे समझ आ गया कि उसका मासिक धर्म शुरू हो गया था। परीक्षा केंद्र में लड़के भी थे। रितिका डर गई कि 3 घंटे इस हालत में बैठकर परीक्षा कैसे देगी।

रितिका ने निरीक्षिका को बुलाकर अपनी समस्या बताई तो उन्होंने कहा कि परीक्षा खत्म होने के बाद ही कुछ किया जा सकेगा। रितिका की स्कर्ट गीली हो रही थी और पेट का दर्द बढ़ गया था। वह प्रश्नपत्र को देखती रही और रोती रही क्योंकि तनाव से उसे कुछ नहीं याद आ रहा था। उसने 2/3 प्रश्न छोड़ दिये। क्योंकि केंद्र लड़कों के स्कूल में था, वहां की डिस्पेंसरी में पैड उपलब्ध नहीं थे।

नीता उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में केंद्रीय विद्यालय की छात्रा थी। जब पहली बार उसे मासिक धर्म हुआ, वह इस कदर घबरा गई कि कहीं उसकी आतें तो नहीं सड़ गईं और रक्त के साथ बाहर आने लगीं। वह घर लौटकर किसी को कुछ नहीं बताई। जब समस्या खत्म नहीं हुई तो डरते हुए उसने अपनी मां को बताया। तब पहली बार वह समझी कि यह मासिक धर्म है जो हर लड़की को होता है। स्कूल में कभी इस विषय पर बातचीत नहीं की गई थी।

शंकरगढ़ में पंचायत चुनाव की तैयारी के लिये मीटिंग चल रही थी कि अचानक फूलकुमारी देवी उठकर घर चली गई। घर से एक पुराना गंदा कपड़ा लेकर उसमें कंडे का राख भरने लगी। पूछने पर उसने बताया कि यही उसका ‘‘देशी पैड’’ है। ‘‘राख फेंकर हम कपड़ा धो लेती हैं; गरीबन के पास इतना कपड़ा कहां से आवै?’’। पूछने पर कि यह नुकसान नहीं करेगा उसने ‘‘ना’’ में उत्तर दिया। उसे पूरा विश्वास है कि इससे उसे कोई संक्रमण या अन्य बीमारी होने की आशंका नहीं है, क्योंकि राख शुद्ध होता है।

दूसरी ओर प्रतापगढ़ की बिंदू बताती है कि 6 दिनों तक वह कोई काम नहीं करती और स्कूल भी नहीं जाती। उसकी तबियत बहुत खराब रहती है। ‘‘पढ़ाई का नुकसान तो होता ही है, पर पैड खरीदने की क्षमता न होने के कारण बाहर निकलना बंद हो जाता है।’’

जवान बेटियां इन समस्याओं से जूझती हैं पर संकोच के चलते किसी को बता नहीं पातीं, यहां तक कि कई बार अपनी मां से भी खुलकर चर्चा नहीं कर पातीं, क्योंकि भारतीय परिवारों में यह विषय ही वर्जित है। सहेलियों के बीच बातचीत का कोई निष्कर्ष नहीं निकलता और स्कूलों में इस संबंध में शिक्षित नहीं किया जाता। नतीजा है कि हर लड़की किसी तरह से 7 दिनों की इस ‘बला’ को पार कर लेती है, बिना इस बारे में किसी तरह की समझदारी हासिल किये।

क्या है मासिक धर्म स्वच्छता?

2018 में जब पैडमैन फिल्म आई तो पहली बार मासिक धर्म को लेकर सार्वजनिक चर्चा हुई। 2019 में पीरियड एन्ड ऑफ सेन्टेन्स फिल्म को ऑस्कर्स के लिए चुना गया। रायका जेहताब्ची ने इस फिल्म को बनाने के लिए ग्रामीण भारत को चुना, जहां मासिक धर्म स्वच्छता की समस्या सबसे गंभीर थी, इसलिए महिलाओं ने खुद पैड बनाना सीखा। इस फिल्म की भी चर्चा हुई।

आम तौर पर लोग मासिक के रक्त को ‘गंदा खून’ समझते हैं और रजस्वला महिलाओं को बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराने की जगह उन्हें छुआ-छूत का शिकार बनाते हैं, रसोई और पूजाघर में जाने से वर्जित करते हैं और कई बार तो घर से बाहर, जहां मवेशी बांधे जाते हैं वहां भेज देते हैं।

पैड न मिल पाना, पानी वाले फ्लश टायलेट का अभाव, पैड के निपटान का उपाय न करना, पीरियड स्वच्छता के बारे में जानकारी का अभाव, दर्द की दवाओं के बारे में अज्ञानता, अपने शरीर और अंतरवस्त्रों को साफ रखने संबंधी जानकारी न होना मासिक धर्म स्वच्छता की दिशा में रोड़े हैं।

फिर भी 1975 (गान्धार एंटरप्राइसेस, इलाहाबाद) से पहले सैनिटरी पैड भारत में बनते ही नहीं थे। 20वीं सदी के आरंभ में जिन विदेशी कम्पनियों के पैड्स का विज्ञापन अखबारों में आता था, वह ज़रूरत की वस्तु के रूप में नहीं, बल्कि काम करने में सहूलियत, शारीरिक आराम और सफाई की दृष्टि से सुझाया गया था। ज़ाहिर है कि इसका कारण उसकी उच्च कीमत थी।

स्कूल-काॅलेजों की स्थिति

प्रयागराज के एक एडेड इंटरमीडियेट काॅलेज में अध्यापिका शिवानी यादव बताती हैं कि स्कूल में 2 ही शौचालय हैं। इसमें से एक तो हमेशा बंद रहता है क्योंकि एक ब्राहमणवादी सोच की वरिष्ठ अध्यापिका उसे अपना व्यक्तिगत शौचालय बना चुकी हैं। बाकी 40 अध्यापिकाओं के लिए एक ही शौचालय है। जहां तक पैड की बात है तो स्कूल में 2 वेंडिंग मशीनें किसी एनजीओ ने लगवाए थे। पर वे उपयोग में नहीं हैं क्योंकि स्कूल के पास इतने पैड खरीदने का पैसा नहीं है।

कुछ पैकेट रखे रहते हैं तो 5 रु देने पर 1 पैड मिलता है (जबकि इसका दाम 1 रु रखा गया है)। बच्चों के लिए शौचालय बने हैं पर वे इतने गंदे रहते हैं कि 20 फीट की दूरी से बदबू आती है। दो सफाई कर्मचारियों में से एक रिटायर्ड है और एक ठेके पर। ठेके पर काम करने वाली कर्मचारी कहती है, ‘‘जिसे 40,000 रु मिलता है वही सफाई करे, हमें तो मात्र 5 हज़ार मिलते हैं।’’ पर वह तो सरकारी नौकर है-काम करे न करे उसे कोई निकाल नहीं सकता।

इसी तरह मऊ के एक एडेड काॅलेज में अध्यापन का काम कर रहीं ऊषा सिंह कहती हैं कि 20 साल तक उनके विद्यालय में शौचालय नहीं था। कोविड के समय ही बना। तब भी समस्या का समाधान नहीं हुआ है क्योंकि एक ही शौचालय है, जिसमें बच्चे और टीचर सभी को जाना पड़ता है। सरकार ने एक कर्मचारी रखा था, जिसकी सेवानिवृत्ति के बाद नई नियुक्ति नहीं हुई है। जहां तक पैड की बात है, तो दर्जनों पैकट प्रधानाचार्य के कार्यालय में रखे थे पर किसी को पता नहीं चलता था। पता नहीं उनका क्या होता था।

स्कूल-काॅलेज की बात छोड़ें, केंद्रीय विश्वविद्यालय तक के छात्रावासों में शौचालयों की जर्जर अवस्था देखकर लगता है कि लड़कियों को कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ता होगा। आखिर वाॅश और  मेंस्ट्रुअल हाइजीन स्कीम को सही तरीके से क्यों नहीं लागू किया जा सका?

सरकार की पहल-कितनी कारगर

2011 में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से मेंस्ट्रुअल हाइजीन स्कीम शुरू की गयी थी जिसे 17 राज्यों के 107 जिलों में लागू किया गया। इसके तहत आशा कर्मियों को सस्ते पैड्स (फ्रीडेज़ के नाम से) के वितरण की जिम्मेदारी दी गई थी। 6 पैड का दाम 6 रु रखा गया था और आशा वर्कर को हर पैकेट की बिक्री पर 1 रु मिलता, साथ ही एक पैकेट मुफ्त दिया जाता। इससे पैड्स का प्रयोग बढ़ा।

एनएफएचएस 2019-21 के अनुसार 3/4 महिलाएं मासिक धर्म संबंधित उत्पादों का प्रयोग करती हैं। और ग्रामीण व शहरी महिलाओं के बीच प्रयोग में फर्क 12 प्रतिशत पाॅइंट गिरा है। यह अच्छा संकेत है। पर 30 वर्ष से अधिक उम्र की अधिकतर औरतें अभी भी कपड़े का प्रयोग करती हैं। इसके पीछे महंगाई एक कारण है। यदि घर में 3 महिलाएं हैं तो उन्हें कम से कम 36 रु पैड पर खर्च करने होंगे, जबकि पैड अब जीएसटी से मुक्त हैं। क्योंकि वे बायोडिग्रेडेबल नहीं होते उनके निपटान की समस्या भी बहुत जटिल है, खासकर ग्रामीण इलाकों में।

ऊषा सिंह ने बताया कि जहां भी खाली जगह मिलती है पैड फेंक दिये जाते हैं। जब वहां मकान बनाने के लिए नींव की खुदाई होती है, या खेती के लिए भूमि तैयार की जाती है, कितने सारे गंदे कपड़े और पैड निकलते हैं। बायोडिग्रेडेबल पैड बहुत महंगे बिकते हैं और उनका प्रचलन इसलिए कम है। मेंस्ट्रुअल कप के बारे में कई अध्ययन आए हैं, जो बताते हैं कि वे अधिक सुरक्षा प्रदान करते हैं और काफी सस्ते हैं। फिर भी शहरी पढ़ी-लिखी महिलाओं का व्यापक हिस्सा तक इसके प्रयोग के बारे में शिक्षित नहीं है न ही स्वास्थ्यकर्मी इसके उपयोग के बारे में प्रशिक्षण देते हैं।

पर सरकारी आंकड़ों के अनुसार दलित और आदिवासी समुदायों से लेकर अल्पसंख्यकों के बीच ‘सुविधा’ पैड बांटे जाने के कारण उनके द्वारा इनका प्रयोग बढ़ा है। आजकल टीवी पर विज्ञापनों से काफी प्रचार हो रहा है पर सरकारी सस्ते पैड का प्रचार बहुत कम है। फिर भी एमएचएस के लिए 19 राज्यों में 2021-22 का बजट 79 करोड़ का था। इसके बावजूद दिक्कत कहां रह जाती है? पता चलता है कि कई राज्यों में एमएचएस का 50 प्रतिशत बजट तक खर्च नहीं होता। कारण स्पष्ट है- सरकार की इच्छाशक्ति में कमी। सरकार की इच्छाशक्ति पर बहुत कुछ निर्भर है।

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद क्या कुछ होता है, यह तो आगे देखने की बात है। पर कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए जाने चाहियेः

1: स्कूलों में मेंस्ट्रुअल हाईजीन के बारे में अनिवार्य शिक्षा दी जाए।

2: मीडिया और विज्ञापनों के माध्यम से पैड के इस्तेमाल से लाभ बताए जाएं और सस्ते पैड्स का प्रचार हो।

3: मेंस्ट्रुअल हाइजीन को बढ़ावा देने वाली फिल्में बनें और उन्हें टैक्स फ्री रखा जाए। इन्हें सभी किशोरियों को दिखाया जाए।

4: सभी स्कूली छात्राओं (12-19 वर्ष) और कामकाजी महिलाओं को माह में 2 दिन वैतनिक पीरियड लीव दिया जाए। रजोनिवृत्ति के दौर की समस्या के लिए वेतन सहित छुट्टी का प्रावधान हो (मेडिकल प्रमाणपत्र के साथ)

5: सभी शिक्षण संस्थानों में वेंडिंग मशीन लगाए जाएं और अधिकतम 1 रु/पैड की देर से पैड उपलब्ध हों।

6: इसी प्रकार सभी कार्यस्थलों में वेंडिंग मशीनें हों।

7: सभी शिक्षण संस्थानों में पानी वाले महिला टाॅयलेट हों और कूड़ा निपटान के लिए डस्टबिन हों; सफाई रखने के लिए सफाई कर्मचारियों की नियुक्ति की जाए।

8: सभी कार्यस्थलों पर पानी वाले स्मार्ट महिला टाॅयलेट हों और सफाई कर्मचारियों की नियुक्ति की जाए।

9: बस स्टाॅपों, रेलवे स्टेशनों, अस्पतालों, पार्कों, माॅल्स व बाज़ारों आदि पर अधिक सार्वजनिक महिला शौचालयों का निर्माण हो और उनके साफ-सफाई की व्यवस्था हो। हाउसिंग काॅम्प्लेक्सों में कामगारिनों और गार्ड आदि के लिए शौचालय निर्मित हों।

10: किसी भी राज्य में 1 रु/पैड से अधिक दाम न लिया जाए।

11: सैनिटरी वेस्ट डिस्पोज़ल (निप्टान) की व्यवस्था चाक-चौबन्द की जाए।

(कुमुदिनी पति स्वतंत्र टिप्पणीकार एवं महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं।)

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