Thursday, April 25, 2024

मोदी सरकार के 9 साल: भारत नहीं रहा धर्मनिरपेक्ष-संवैधानिक गणतंत्र!

मोदी सरकार के 9 साल में भारत की जनता और लोकतंत्र ने क्या-क्या हासिल किया है और क्या खोया है। इसकी शिनाख्त करना आज वक्त की जरूरत है। आज जब मन की बात के सौवें संस्करण की प्रस्तुति को जनता के टैक्स के पैसे से बिग इवेंट में बदलने की कोशिश हो रही है, तब हमारे लिए मोदी के 9 वर्ष के कार्यकाल की उपलब्धियों की पड़ताल करने की जरूरत आ पडी है। लोकतांत्रिक देश में किसी सरकार के 9 वर्ष का कार्यकाल कम नहीं होता।

इसलिए समय की मांग है कि हम इस पर विचार करें कि इन 9 वर्षों में लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ सामग्र विकास, सामाजिक एकता, खुशहाली, युवा रोजगार की स्थिति, स्वास्थ्य और पौष्टिक आहार के साथ प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वयत्तता और सामाजिक जीवन में पारदर्शिता, धर्मनिरपेक्षता तथा समतामूलक सामाजिक ढांचे के पैमाने पर भारत कितना आगे बढ़ा। आईये इस कालखंड पर एक विहंगम दृष्टि डालते हैं।

पृष्ठभूमि

जब हम मोदी सरकार की उपलब्धियों पर विचार करने जा रहे हैं तो हमें 2013 के तूफानी समय को अपने दिमाग में रखना होगा। उस समय देश में रोज नए-नए भ्रष्टाचार के काल्पनिक और वास्तविक खुलासे हो रहे थे और देश आर्थिक संकट से गुजर रहा था। मनमोहन सिंह की सरकार का नियंत्रण परिस्थितियों के परिवर्तन पर लगभग खत्म हो चुका था। आंदोलनकारी हवाओं के झोंके देश में चारों दिशाओं से उठ रहे थे।

इस स्थिति में हिंदुत्व ने कॉरपोरेट पूंजी नियंत्रित मीडिया के सहयोग से अन्ना हजारे को आगे कर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा किया। “लोकपाल बिल” के इर्द-गिर्द भ्रष्टाचार के सवाल को सभी समस्याओं की दवा के बतौर प्रस्तुत कर अखिल भारतीय आंदोलन का माहौल बनाया गया। इस आंदोलन में दो सहोदर राजनीतिक दिशायें एक दूसरे में अंतर्गुंथित होते हुए एक दूसरे को काटते-समेटते-समृद्ध करते हुए आगे बढ़ रही थीं।

एक, उदारवादी लोकतांत्रिक विकास मॉडल के द्वारा भ्रष्टाचार मुक्त सरकार देने के वादे के साथ केजरीवाल भारतीय राजनीति के एक नए सितारे के रूप में उभरे। जिनकी सम्पूर्ण परियोजना कांग्रेस के उदारवादी लोकतांत्रिक स्पेस को हड़प लेने पर केंद्रित थी। चूंकि 2010 तक आते-आते नव उदारवाद की 20 वर्षों की यात्रा ने उदारवादी लोकतांत्रिक विचारों को अप्रासंगिक कर दिया था। जैसे धर्मनिरपेक्षता पारदर्शिता, लोकतंत्र, समता मूलक समाज, न्याय युक्त समावेशी विकास (लोक कल्याणकारी राज्य का अवसान) आदि।

इसलिए आप नामक पार्टी के अभ्युदय के साथ उसके इर्द-गिर्द गैर सरकारी संगठनों, गांधीवादी और जेपीवादी उदार जनतंत्रवादी जैसे समावेशी विकास चाहने वालों की कतारें ‌इकट्ठा हो गईं। जिसका गुरुत्व आप नामक पार्टी के करिश्माई नेता केजरीवाल के इर्द-गिर्द केंद्रित था। लेकिन इन 10 वर्षों में आप लगातार उदारवादी जनतांत्रिक जनाधार को खोती चली जा रही है। उसका आंतरिक और वाह्य लोकतांत्रिक स्पेस और प्रतिबद्धता क्रमशः सिकुड़ती जा रही है। (दिल्ली दंगा)।

दो, इस आंदोलन में जो दूसरी प्रमुख शक्ति पीछे से लगी हुई थी। उसकी विचार प्रक्रिया कट्टर हिंदुत्ववादी-दक्षिणपंथी राजनीति द्वारा निर्धारित होती है। यह विचारधारा आरएसएस नीति द्वारा संचालित राजनीतिक पार्टी भाजपा के रूप में भारतीय लोकतंत्र के शीर्ष पर पिछले 10 वर्षों से महत्वपूर्ण जगह घेरे हुए थी। जिसने अन्ना आंदोलन की दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी विचारधारा से जुडी सभी उपलब्धियों और सामाजिक शक्तियों को हड़प लिया।

विचार शून्य, जनतांत्रिक दृष्टि विहीन परिणामवादी और लोकतांत्रिक राजनीति के गतिविज्ञान की समझ से महरूम अन्ना हजारे लोकतांत्रिक भारत के लिए स्वाभाविक तौर पर त्रासदी ही खड़ा कर सकते थे। हुआ भी वही। इसी दौर की जटिलता ने कॉरपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ की नींव को भी पुख्ता किया। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के तुरंत बाद 2014 में चुनाव का समय आ गया। इस चुनाव में कॉरपोरेट पूंजी के अदृश्य सहयोग से भारत के लोकतंत्रिक इतिहास के सर्वाधिक खर्चीले तूफानी चुनाव अभियान द्वारा मोदी  की अगुवाई में भाजपा ने बहुमत हासिल कर सरकार बना ली।

2014 के चुनाव में भाजपा और मोदी के एजेंडा को इस प्रकार सूत्रबद्ध किया जा सकता है…

1- भ्रष्टाचार मुक्त भारत, 2- बेरोजगारी मुक्त भारत, 3- परिवारवाद मुक्त लोकतंत्र, 4- प्रतिस्पर्धी विकास, 5- पारदर्शिता और सुचिता, 6- काला धन मुक्त अर्थव्यवस्था, 7- हर व्यक्ति के खाते में 15 लाख रुपये, 8- महिलाओं की सुरक्षा, 9- महंगाई पर रोक, 10- सस्ते पेट्रोल, डीजल, गैस और राशन की उपलब्धता, 11- मजबूत केंद्र सरकार, 12- आक्रामक विदेश नीति के साथ आक्रामक हिंदुत्व राष्ट्रवाद, 13- तुष्टीकरण से मुक्ति, 14- गरीबों का सम्मान और गरीबी उन्मूलन, 15- किसानों की आय को दोगुना करना, घाटे की खेती का खात्मा, 16- उद्योगों को प्रतिस्पर्धी और आत्मनिर्भर बनाने का आश्वासन, 17- अर्थव्यवस्था को व पूंजी निवेश के साथ नये क्षेत्रों की तलाश। 18- लोकतांत्रिक संस्थाओं मजबूत करते हुए निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव। 19- गरीबों की जिंदगी सुधारने और सम्मानजनक जीवन का वादा। 20- अगर आखिरी बात तो कहे तो “न्यूनतम सरकार अधिकतम गवर्नेंस। इन वादों के साथ अच्छे दिन लाने की कर्णप्रिय घोषणा की गई थी।

मोदी सरकार के 9 वर्ष के कार्यकाल को अगर गहराई से देखें तो चुनावी वादों को सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है। ऊपर दिए गए वादों में किसी एक की कसौटी पर अगर सरकार को परखें तो हम कह सकते हैं कि सरकार ने जनता के साथ झूठा वादा कर छल किया है। आश्चर्य है सरकार चुनाव के घोषित एजेंडा से हटकर सीधे अपने हिंदुत्व के विभाजनकारी एजंडे पर लौट गई है। जिसका चुनाव के समय कहीं जिक्र भी नहीं था।

सरकार की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक दिशा के दो केंद्रीय तत्व हैं। पहला और सबसे महत्वपूर्ण- कॉरपोरेट नियंत्रित समाज और आर्थिक ढांचे का निर्माण (कॉरपोरेट इंडिया)। कॉरपोरेट पूंजी के नेतृत्व व कॉरपोरेट पूंजी के हित में भारत के संसाधनों और आर्थिक ढांचे के पुनर्संयोजन की नीति।

इस लक्ष्य को हासिल करने के निम्नलिखित हथियार प्रयोग में लाये गये

विनिवेश

पूंजी जुटाने के लिए सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है।

निजीकरण 

निजीकरण को भारत के औद्योगिक विकास में आये ठहराव व संकट से मुक्ति का एकमात्र इलाज बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि निजी संस्थानों में प्रबंधन, दक्षता और गुणवत्ता का स्तर बहुत उन्नत है।

निवेश

पूंजी की किल्लत का बहाना बनाकर देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों को खुली छूट दी जा रही है। उद्योगों के लिए पूंजी जुटाने के आमंत्रण दिये जा रहे हैं। 

आत्मनिर्भर विकास

इस सरकार में आत्मनिर्भर विकास के पाखंड का चरम देख सकते हैं। विकास योजनाओं के नाम सुनिए… आत्मनिर्भर भारत, स्टार्टअप, मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, लोकल में ओकल, पीपीपी विकास मॉडल, इंडिया फर्स्ट, स्मार्ट सिटी (कॉरपोरेट फर्स्ट) आदि राष्ट्रवादी जुमलेबाजी होती रही और भारत के सारे सरकारी संस्थान एक-एक कर निजी हाथों में जाते रहे।

एयरपोर्ट, एयर इंडिया, पोर्ट, रेल, भेल, सेल, गेल जैसे सारे सरकारी संस्थान पीपीपी मॉडल के तहत निजी हाथों को सौंपे गए या सीधे पूंजी जुटाने के लिए उन्हें निजी घरानों को बेच दिया गया। रक्षा उत्पादन तक को बेनामी देसी-विदेशी कंपनियां के हाथ में दिया गया है। हालांकि इसी समय राष्ट्रवादी जुमलेबाजी भी जारी रही।

श्रम कानून और मजदूर

मजदूरों में दक्षता बढ़ाने तथा औद्योगिक विकास को गति देने के लिए श्रम कानूनों में तेज गति से बदलाव किए गए। जिससे कॉरपोरेट पूंजी का रथ मुनाफे के राजमार्ग पर तेजी से दौड़ सके। खुद मोदी ने डींग हांकते हुए कहा कि प्रतिदिन के लिहाज से मैंने एक कानून को खत्म कर विकास की सारी बाधाएं हटाने का कठिन प्रयास किया है। यह सरकार की सामर्थ्य और संकल्प को प्रदर्शित करता है। मजदूर समर्थक श्रम कानून के साथ सेवा सुरक्षा के सारे प्रावधान खत्म कर दिए गए। अब कानून की जगह संहिताएं ले चुकी हैं।

परिणाम

औद्योगिक विकास की नीतियों ने भारत में स्वाभाविक तौर पर मित्र पूंजीवाद को मजबूत किया। जिससे पूंजी का संकेंद्रण तेजी से बढ़ा है। अडानी के तूफानी विकास में भारत के औद्योगिक विकास की असलियत को देखा जा सकता है। अडानी परिघटना ने विकास की लफ्फाजियों के पर्दे को फाड़ कर  मोदी सरकार की कॉरपोरेट परस्ती को नंगा कर दिया है।

मजदूरों की जिंदगी दूभर हुई है। वर्क लोड बढ़ा है, वेतन घटा है, दरिद्रीकरण का विस्तार और जीवन स्तर के नीचे गिरने से उपभोक्ता क्षमता में ह्रास हुआ है। जिससे औद्योगिक विकास ठहर गया है। यह अदृश्य संकट आने वाले समय में गहरे दृश्य राजनीतिक संकट को जन्म देगा। ठोस अर्थों में कहा जाए तो 70 वर्षों में देश में निर्मित हुई औद्योगिक संरचना को ध्वस्त कर कॉरपोरेट पूंजी के लिए रास्ता साफ कर दिया गया है।

कृषि

सरकार के कृषि विकास के संबंध में धूर्तता भरी घोषणाओं का सच सामने आ गया है। जैसे 2022 तक किसानों की आय दुगनी होगी। हर खेत को बिजली पानी मुफ्त मिलेगा। खेत की मेड पर ही एमएसपी पर खरीद की गारंटी होगी।

तीन कृषि कानून लाकर सरकार ने खेती किसानी को खत्म कर कृषि को कॉरपोरेट पूंजी के हवाले करने का क्रूर निर्णय लिया था। जिसके खिलाफ चले बहादुराना संघर्ष ने सरकार को एक कदम पीछे हटने को मजबूर किया है। कानून तो हटा लेकिन कृषि संकट टला नहीं है, बल्कि और गहरा हो रहा है। सरकार टुकड़े-टुकड़े में कॉरपोरेट के लिए कृषि के दरवाजे खोल रही है।

जीएम फसलों को लाना, बीमा कंपनियों के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार, मंडियों को कमजोर करने का षड्यंत्र और कृषि उत्पादों की खरीद से पीछे हटना तथा एमएसपी गारंटी कानून के नाम पर छल प्रपंच और पाखंड रचना सरकार की नियत को स्पष्ट करता है। जिस कारण से कृषि गहरे संकट में फसती जा रही है। संक्षिप्त में कृषि संकट के निम्न कारण देखे जा सकते हैं। जैसे-

1- फसलों का उचित मूल्य न मिलना।

2- कृषि लागत का बढ़ना।

3- बिजली, डीजल, पेट्रोल के दाम का बढ़ते जाना।

4- बाजार का सिकुड़ना।

5- कृषि उत्पादकता का घटना।

6- सरकारी पूंजी निवेश का घटते जाना।

7- विकास के नाम पर जल, जंगल, जमीन और पहाड़ों को छीनने की योजना ने कोढ़ में खाज का काम किया है।

8- कृषकों के दरिद्रीकरण के दुष्प्रभाव में किसानों की आत्महत्या में वृद्धि।

9- गांव से श्रम पलायन; इस परिघटना ने कृषि में घटती रुचि को प्रदर्शित किया है।

10- उपभोग की क्षमता घटी है; यह दिखाता है कि किसानों और मजदूरों की आमदनी में ह्रास हुआ है, बेरोजगारी बढ़ी है, अंततोगत्वा उन्हें 5 किलो राशन पर जिंदा होने के लिए मजबूर कर दिया गया।

कृषि मजदूर 

देश में पहली बार कृषि मजदूरों की आत्महत्या दर्ज की गई है। जो किसानों की आत्महत्या की दर से ज्यादा है। यह परिघटना भारतीय समाज के अंदर पल रहे गंभीर आर्थिक संकट और निराशा को अभिव्यक्त करता है। जो कॉरपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ की लूट की हवस का स्वाभाविक परिणाम है।

इस तरह किसानों-मजदूरों को मारकर बड़े देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों को खेती में घुसाने का प्रयास सरकार की उपलब्धियों में शुमार किया जा सकता है।

शिक्षा और स्वास्थ्य

शिक्षा के बजट में कटौती, पाठ्यक्रमों में बदलाव और तार्किकता, वैज्ञानिकता पर हो रहे हमलों ने शिक्षा के उच्च संस्थानों की स्थिति दयनीय बना दी है। इस सरकार की प्राथमिकता है कि आधुनिक वैज्ञानिक चेतना से समाज को मुक्त करना है। इसलिए संघ जन्मकाल से आधुनिक शिक्षा का विरोधी रहा है।

लक्ष्य है शिक्षा कासांप्रदायिककरण और व्यवसायीकरण। ज्ञान को तर्क और तथ्य से दूर कर प्रचलित परंपराओं और धार्मिक विश्वासों के दायरे में लाने की योजना बहुत पहले से इनके पास थी। इसलिए मुरली मनोहर जोशी ने भी अटल सरकार के समय में ही इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया था। अब तो शिक्षा के ढांचे को तहस-नहस करने के लिए नई शिक्षा नीति आ चुकी है।

अब ज्ञान और तर्क की जगह नफरत, हिंसा, क्रूरता और अनैतिहासिकता को ही परोसा जाएगा। बचे-खुचे शिक्षण संस्थानों को व्यापार और मुनाफे के उद्योग में बदला जा रहा है। शिक्षा में भी ‘पे एंड यूज’ थीयरी लागू हो चुकी है। स्ववित्तपोषित शिक्षण संस्थानों से लेकर विश्वविद्यालयों और मान्यता प्राप्त कॉलेजों से भी कह दिया गया है कि अपने संस्थान के लिए बजट उपभोक्ताओं से ही जुटाएं। यानी अब विद्यार्थी नहीं शिक्षा के उपभोक्ता हैं।

इस सरकार की उपलब्धि के रूप में इसे लिया जा सकता है। अब स्किल इंडिया गायब है। विश्व गुरु बनने के लिए मुगल कालीन उपलब्धियों और 400 वर्ष के इतिहास से पीछा छुड़ाना है। आधुनिक ज्ञान को तिलांजलि़ देना है। इस तरह हम लोकतंत्र में नागरिक से शुरू कर प्रजा बनने की यात्रा पूरी करने जा रहे  हैं।

सरकारी संस्थानों एवं मेडिकल कॉलेजों की चाहे जितनी भी चर्चाएं हों, सच बात तो यह है शिक्षा के साथ-साथ स्वास्थ्य भी अब मुनाफे के धंधे में बदल चुका है। आप किसी शहर में चले जाइए। प्राइवेट चिकित्सा संस्थानों की जगमगाती हुई इमारतें नागरिकों के लूट और स्वास्थ्य के व्यापार के क्रूर निशान हैं। वे लोग जो पैसा नहीं दे सकते उनके मरने की गारंटी कर ली गई है।

हर नागरिक को स्वास्थ्य और शिक्षा की गारंटी कल्याणकारी राज्य की पहचान है। सस्ती शिक्षा और स्वास्थ्य की जगह मुद्रा लोन और स्वास्थ्य बीमा कार्ड ने ले लिया है। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को भी कह दिया गया है कि पूंजी खुद जुटाएं। इसे विश्वविद्यालयों कॉलेजों में लागू करने के बाद अब चिकित्सा क्षेत्र में भी लागू करने का प्रयास हो चुका है।

साफ बात है भारत के आम आदमी के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य अब दूसरे लोक की परिकथा बनने वाला है। इसलिए मोदी सरकार के वैचारिक पूर्वजों के मुक्त व्यापार नीति की आकांक्षा संभवत: भारत की जमीन पर साकार होने जा रही है।

संविधान और संवैधानिक संस्थाएं

मोदी के वैचारिक पूर्वजों ने संविधान के प्रति अपनी घृणा को कभी छुपाया नहीं था। मनुस्मृति को ही वो सनातन संहिता के रूप में मानते हैं। इसलिए 2014 में चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने जाते हुए मोदी संसद की सीढ़ियों पर सर टिकाकर आभास दे दिया था कि अब संसद का अस्तित्व गिने-चुने दिन ही बचा है।

2019 में दुबारा जीतने के बाद संविधान को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए मोदी का संकेत साफ था कि अब आप को संग्रहालय में रख दिया जाएगा। पिछले 9 वर्षों में मोदी सरकार के क्रियाकलाप को देखा जाए तो स्पष्ट है कि संसद और संविधान अपना महत्व खो चुके हैं। प्रतीकात्मक रूप से कहा जाए तो करोना कॉल के सबसे बुरे समय में नई संसद बनाना सिर्फ एक भवन निर्माण नहीं है। बल्कि भारत के संसद और संविधान की ऐतिहासिक विरासत से पिंड छुड़ाना भी है।

इस संदर्भ में कुछ घटनाओं की शिनाख्त की जा सकती है। समय-समय पर संघ परिवार के दस्ते संविधान को विदेशी और गैर भारतीय बताकर बदलने की मांग उठते रहते हैं। साथ ही भारत के धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक गणतंत्र को खत्म कर हिंदू राष्ट्र के निर्माण का संकल्प लेते रहते हैं। सच तो यह है इस समय भारत धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक गणतंत्र नहीं रह गया। हमारा प्रधानमंत्री पूर्णतया हिंदू राजाओं की तरह व्यवहार करता है। राष्ट्रीय पर्व पर उसकी वेशभूषा सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं है। वह संघ के वैचारिक जगत की वास्तविक अभिव्यक्ति है।

मुख्यमंत्री तक भगवा भेष में हिंदू राष्ट्र के प्रतिनिधि के रूप में गर्व का अनुभव करते हैं। यही नहीं कानूनी संस्थाओं को शासन के लिए बाधा के रूप में पेश करते हैं। साथ ही त्वरित न्याय के सिद्धांत को लागू कर न्यायालय और संविधान को अप्रासांगिक और बाधा मानते हैं। इसलिए आप सीधे तौर पर कह सकते हैं कि पिछले 70 वर्षों में बनाई गई संवैधानिक संस्थाएं गंभीर संकट झेल रही हैं। संसद अब बहुमतवाद का अखाड़ा बन गई है। संविधान सिर्फ शपथ लेने की मृत शब्दों की पुस्तिका भर है।

लोकतांत्रिक तरीके से लोकतंत्र के सफाए का अभियान

कई देसी-विदेशी विशेषज्ञों ने भारत में चल रहे फासीवादी प्रयोग को लोकतांत्रिक तानाशाही कहा है। सच यही है कि संविधान अभी नाम लेने के लिए है। लोकतंत्र की दुहाई दी जाती है। भारत मदर ऑफ डेमोक्रेसी है जैसी लफ्फाजियां सुनने में आती रहती हैं। ऊपर से देखने पर चुनाव समय होते रहते हैं।

लेकिन अगर आप इसकी तह में जाएंगे तो कहीं से भी लोकतांत्रिक व्यवहार और जीवन प्रणाली का अंश मात्र भी शेष नहीं मिलेगा। जनतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों को ही मजाक में बदल दिया गया है। धर्मनिरपेक्षता गाली है। समता दिवास्वप्न है। न्याय सापेक्ष है। स्वतंत्रता और नागरिक के अधिकार, कर्तव्यों के अधीन ला दिये गए हैं।

संविधान और कानून को बहुतमत की भावनाओं, विश्वासों के अधीन काम करने के लिए मजबूर किया गया है। संविधान की उद्देशिका की जगह बहुमत की भावनाएं राज्य की संस्थाओं के कार्यकलापों का दिशा निर्देशन कर रही हैं। राज्य मशीनरी सीधे बहुमतवादी शक्तियों के साथ खड़ी है। दलित, अल्पसंख्यक और कमजोर वर्ग हाशिए पर ठेले जाने के बाद संवैधानिक अधिकारों से वंचित किए जा रहे हैं। नागरिकता के बुनियादी वसूल दांव पर लगे हैं।

अल्पसंख्यक अस्थाई खलनायक सरकार और संघ की संस्थाओं द्वारा देश के सारे विमर्श मूलतः मुस्लिम अल्पसंख्यकों को केंद्र कर संचालित हो रहे हैं। इतिहास और विज्ञान को भी इसी अर्थों में नए सिरे से लिखने का प्रयास है। एकमात्र विकल्प जो लोकतंत्र में अभी छोड़ रखा गया है कि चुनाव के द्वारा सरकारों का निर्माण किया जाए। उसे पूरी तरह विपक्ष के लिए सीमित कर दिया गया है। परिवर्तन के लिए संभावनाओं की जगहें बहुत थोड़ी ही बची हैं।

आज चुनावी विजय की परिकल्पना करना आसान नहीं रह गया है। इस तरह धनबल, बाहुबल और  संस्थाओं का दुरुपयोग करते हुए राज्य शक्ति के बल पर लोकतंत्र और चुनाव को पूरी तरह से बाधित करने का काम हो चुका है। इसलिए मोदी राज के 9 वर्षों में जो कुछ घटा है उसे आप सामान्य लोकतांत्रिक गतिमान प्रक्रिया के रूप में नहीं देख सकते।

प्रतिबद्ध संस्थाएं

न्यायालय; चुनाव आयोग; वित्तीय संस्थाएं जैसे- रिजर्व बैंक, एलआईसी, एसबीआई; नौकरशाही तंत्र जैसे- सीबीआई, ईडी, आईटी, पुलिस, पैरामिलिट्री, सेना की प्रतिबद्धता मोदी और संघ के प्रति दिखती है, जो अभी तक संविधान और कानून के प्रति रही है। 9 वर्षों में संवैधानिक संस्थाएं पूरी तरह से संघ और एक व्यक्ति के लिए के लिए प्रतिबद्ध कर दी गई हैं। सत्ता की छोटी सी कोटरी का निर्माण हुआ है, जो  संस्थाओं को नियंत्रित और संचालित करता है।

मंत्रिमंडल सिर्फ शोभा और संवैधानिक बाध्यता के कारण बना हुया है। मंत्रियों की अपनी कोई हैसियत नहीं है। नौकरशाही का एक छोटा सा ग्रुप जो “मोदी के लिए प्रतिबद्ध है” वही सारे फैसले लेता है, यह अब कोई छिपी बात नहीं रही। मंत्रीगण मोदी-मोदी करते हुए मेज पीटने के अलावा अब कहीं नहीं दिखाई देते। संस्थाओं की स्वायत्तता और अधिकार खत्म हैं। बड़े भाई के कहने पर सारे लोगों को कदमताल करने के लिए मजबूर किया जा चुका है। ऐसी स्थिति में आप परिकल्पना कर सकते हैं कि लोकतंत्र को किस अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ रहा है।

कुछ उदाहरण इस संदर्भ में ध्यान में रखना चाहिए। सीबीआई को नियंत्रित करने के लिए अर्धरात्रि में गृह मंत्रालय, पीएमओ और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के निर्देश पर सीबीआई मुख्यालय पर सर्जिकल स्ट्राइक कर तख्तापलट किया गया। कारण गुजरात से लाए गए एक नौकरशाह को ‘जो पीएम के सभी कार्यों में सहभागीदार रहा है, ‘उसकी सर्व सत्ता सीबीआई पर स्थापित हो सके। उसके खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच के आदेश हुए थे। (उस समय के निदेशक आलोक वर्मा रिटायर होने के बाद पेंशन के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।) साथ ही सीबीआई की स्वायत्तता खत्म कर उसे मोदी की निजी संस्था में बदलना था। इसी तरह ईडी, आईबी जैसी संस्थानों में संदिग्ध नौकरशाहों को नियम विरुद्ध कार्यकाल का विस्तार देना खतरनाक संकेत है।

रिजर्व बैंक अब एक व्यक्ति के कहने पर काम करने के लिए मजबूर है। नोटबंदी इसका सबसे बड़ा उदाहरण था। जिसे षड्यंत्रकारी तरीके से देश के ऊपर थोपा गया था। अब वित्तीय संस्थाओं को बाध्य किया जा रहा है कि कॉरपोरेट (मित्र कॉरपोरेट पढ़ें) घरानों के हित में सीधे काम करें। मित्र पूंजीवाद के संकेत को समझें और उसके लिए पलक पावड़े बिछाकर खजाने का मुंह खोल दें। जिससे मित्र पूंजीपति को विश्व विजेता बनाया जा सके और प्रधानमंत्री कह सकें कि हमारे उद्योगों की सामर्थ हमारे परिश्रम और साधना की प्रतीक है। हमने दुनिया के सभी उद्योगपतियों को पछाड़ दिया है। जबकि भारत की विकास दर लगातार नीचे जा रही है। करोड़ों छोटे-मोटे उद्योग बैठ गए हैं। हम औद्योगिक मंदी के दरवाजे पर खड़े हैं।

ठहरा औद्योगिक विकास

जिस एक कदम को प्रधानमंत्री के मास्टर स्ट्रोक के रूप में पेश किया गया था। आज उसका नकारात्मक परिणाम भारतीय उद्योग के लिए सर्वग्राही संकट का कारण बना हुआ है। यह मास्टर स्ट्रोक थी नोटबंदी। जिसके कारण अनेकों नागरिकों की जाने चली गईं। इस एक कदम ने करोड़ छोटे-मझोले उद्योगों को बर्बाद कर दिया। एक अनुमान के अनुसार 3.30 करोड़ छोटे उद्योग बंद हो गये। करोड़ों बेरोजगार हुए और भारत की अर्थव्यवस्था का लुढकना आज तक जारी है। बची खुची कसर जीएसटी ने पूरी कर दी।

आज भारतीय उद्योग अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं। उनके उबरने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। प्रधान सेवक नोटबंदी को लेकर बड़ी-बड़ी डींगे हांकते रहे। जनता की परेशानियों को देखकर अटृाहास करते हुए घोषणा करते रहे कि काले धन वाले आज कितने परेशान हैं और वे मुझे तबाह कर देना चाहते हैं। प्रधानमंत्री द्वारा नोटबंदी के जो फायदे गिनाए गए थे, उसमें काले धन को खत्म करना, आतंकवाद की कमर तोड़ना और भ्रष्टाचार को जड़ मूल से उखाड़ फेंकना था।

बाद के दिनों में प्रधानमंत्री रोज गोलपोस्ट बदलते रहे। जैसे कैशलैस इकोनामी, मुद्रा के चलन को कम करना, डिजिटल पेमेंट सहित न जाने कितने लाभ गिना डालते थे। आज उनके जुबान पर भूलकर भी नोटबंदी का नाम तक नहीं आता जबकि उस समय उन्होंने जनता से सिर्फ 50 दिन मांगे थे और चौराहे पर आकर खड़े हो जाने की डींग हांकते थे।

आज भारत के छोटे कारोबारी व उद्योग मृत्यु शैया पर पड़े हैं और प्रधानमंत्री नए-नए तरह के सपने दिखाने में व्यस्त हैं। उस समय नकदी के चलन को कम करने का संकल्प दोहराया गया था, आज नगदी का चलन दो गुना बढ़ गया है। 500 और 1000 की नोट हटाकर और 2000 की नोट लाकर काले धन की अर्थव्यवस्था को खत्म करने के नुक्से को ढूंढने का साहस शायद मध्यकालीन भारत में मोहम्मद बिन तुगलक ही कर सकता था।

जीएसटी को 1947 की आज़ादी जैसे मध्य रात्रि के इवेंट द्वारा संसद के दोनों सदन बुलाकर गाजे-बाजे के साथ लागू किया गया। इन हिंदुत्ववादी आर्थिक फैसलों ने भारतीय अर्थव्यवस्था का कचूमर निकाल दिया है और ऊपर से तुर्रा यह कि हम दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके हैं। देश को कॉरपोरेट के हाथ में सौंपने और अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठाने के बाद संघ नीति भाजपा सरकार के लिए अब नफरती अभियानों में पनाह लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है।

क्रमशः जारी…

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता व सीपीआई (एमएल) यूपी की कोर कमेटी के सदस्य हैं)

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