मोदी जी किसलिए गए हैं अमेरिका?

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आखिर पीएम मोदी अमेरिका गए क्यों यह अभी भी बड़ा सवाल बना हुआ है? क्योंकि अभी तक भारत को कुछ हासिल होता हुआ नहीं दिख रहा है। सिवाय अमेरिका के महंगे तेल और गैस के निर्यात की शर्तों और एफ-35 लड़ाकू विमानों की खरीद के जिसमें अमेरिका का लाभ ही लाभ और भारत का साफ नुकसान है। क्योंकि इतनी दूर से उन्हीं बाजार कीमतों पर अमेरिका से तेल और गैस खरीदना कोई बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला तो नहीं हो सकता है।

तब केवल उस ट्रम्प से मुलाकात करने के लिए और दुनिया के सामने यह पेश करने के लिए कि अमेरिका का राष्ट्रपति उनका दोस्त है। इसके लिए यात्रा का यह जाल-माजरा फैलाया गया है।

हमको नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के शपथ ग्रहण समारोह में बुलाए न जाने की पूर्व भनक लगते ही उन्होंने शपथ ग्रहण समारोह का आमंत्रण हासिल करने के लिए देश के विदेश मंत्री को अमेरिका भेज दिया था। लेकिन वह अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हुए। और लाख कोशिशों के बाद भी ट्रम्प ने उन्हें नहीं बुलाया। 

और एक ऐसे समय में जबकि हमारे नागरिकों को हाथ में हथकड़ी लगाकर और पैर को जंजीरों से बांधकर अमेरिका भेज रहा है। ऐसा करने वाले शख्स से गले मिलने के लिए भला आप क्यों बेताब थे? क्या आपको अपनी गरिमा और सम्मान का कोई ख्याल नहीं था? अवलन तो आपको इसका बढ़चढ़ कर विरोध करना चाहिए था। फिर भी माना कि कोलंबिया और मैक्सिको के राष्ट्राध्यक्षों की तरह आप में हिम्मत नहीं है। लेकिन कम से कम यह यात्रा रद्द करने का फैसला तो आपके हाथ में था। भला ऐसे देश की क्या यात्रा करना जो आपके नागरिकों के सीने पर चढ़कर उनके मान-सम्मान का मान-मर्दन कर रहा हो। 

जिस एक मामले में देश का अपर हैंड है। बैलेंस ऑफ पेमेंट भारत के पक्ष में है। उस टैरिफ के मामले में भी ट्रम्प ने घोषित कर दिया कि वह कोई समझौता नहीं करने जा रहे हैं। उन्होंने लेवल प्लेइंग फील्ड का वास्ता देते हुए उसे बढ़ाने की अपनी नीति को जायज ठहराया। यानि इस मामले में भी भारत को नुकसान ही होना है। 

हां एक बात ज़रूर हो सकती है जिसके लिए यह यात्रा आपकी मजबूरी रही हो। वह था अपने मित्र गौतम अडानी को अमेरिका के आपराधिक शिकंजे से बचाना। हालांकि ट्रंप के साथ संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में अमेरिकी पत्रकार के पूछे गए सवाल के जवाब में भले ही आपने कहा हो कि ऐसे व्यक्तिगत मामले दो राष्ट्राध्यक्षों के बीच बातचीत के मुद्दे नहीं होते। लेकिन सवाल के बाद आपके चेहरे की भाव-भंगिमा और पूरी देह भाषा यह बता रही थी कि आपने ट्रम्प के साथ वार्ता में इस मुद्दे पर क्या किया है? हालांकि आपकी यात्रा से पहले ही अमेरिकी सरकार ने उस कानून को पॉज देकर अडानी को राहत दे चुकी थी।

लेकिन यह न तो अपने-आप हुआ होगा और न ही अनायास। यह भी एक रहस्य का विषय हो सकता है। लेकिन ऐसा रहा नहीं। आपने जिस तरह से अमेरिकी शर्तों के सामने समर्पण किया है उससे यह बात जाहिर हो रही है कि उसके बदले में देश को भले न कुछ मिला हो लेकिन आपको ज़रूर हासिल हुआ है।

आप के खून में यह जो व्यापार है वह पूरे राष्ट्र के सम्मान पर भारी पड़ रहा है। आजादी की लड़ाई से न तो आपको और न ही आपके पुरखों का कोई वास्ता था। अवलन तो उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ गलबहियां कर रखी थीं। इसलिए साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई की जगह समर्पण का रास्ता ही आपको भाता है। और ऐसा करके एक बार फिर आपने उसी को साबित किया है।

अमेरिकी यात्रा के दौरान किसी एक भी जगह आपकी रीढ़ दिखती तो कहा जाता कि चलिए मोदी जी यहां खड़े हुए। लेकिन हर जगह तो जैसे आपने समर्पण का मन बना लिया था। दुनिया के नंबर वन अमेरिकी व्यवसायी एलन मस्क से आपने मुलाकात का कार्यक्रम इस तरह से रखा जैसे आप किसी व्यापारी से नहीं बल्कि हेड ऑफ स्टेट से मिलने जा रहे हों। और इस कड़ी में आपने अपने अधिकारियों का एक बड़ा लश्कर तैयार कर लिया।

मस्क से मुलाकात की जो तस्वीरें आयी हैं वह बेहद शर्मनाक हैं। एक तरफ आप बैठे हैं और आपके आधे दर्जन से ज्यादा अधिकारी। दूसरी तरफ मस्क हैं और उनके तीन बच्चे और उनकी प्रेमिका। क्या भारत के किसी और प्रधानमंत्री के बारे में ऐसा सोचा जा सकता है? आप की कोई व्यक्तिगत इज्जत है या नहीं इसके बारे में आप फैसला करिये लेकिन एक राष्ट्र के तौर पर भारत का दुनिया में बड़ा सम्मान है। अपना न सही लेकिन देश के सम्मान का तो आपको लिहाज रखना चाहिए था।  

अवैध प्रवासी भारतीयों के मामले में आपने साफ कर दिया कि किसी भी नागरिक के अवैध रूप में किसी दूसरे देश में रहने का आप समर्थन नहीं करते। और इस मामले में आपने अपनी नीति को अमेरिका को बता दिया है। लेकिन आपने यह नहीं बताया कि भारतीय नागरिकों को हथकड़ियों में बांधकर वापस भेजे जाने के मसले को आपने ट्रम्प के सामने उठाया या नहीं? कहीं ऐसा न हो कि आप भारत वापस लौटें और भारतीयों की दूसरी खेप उन्हीं हथकड़ियों और बेड़ियों के साथ आपके पीछे-पीछे आए।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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