क्या सोनिया का मास्टर स्ट्रोक है परदेश में फँसे ग़रीबों का रेल-भाड़ा भरने का फ़ैसला?

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कोरोना संकट के दौरान परदेश में फँसे और पाई-पाई को मोहताज़ ग़रीब और प्रवासी मज़दूरों के लिए काँग्रेस की ओर से मदद का हाथ बढ़ाने की पेशकश से बीजेपी ख़ेमा सकपका गया है। बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने तो अपनी ही सरकार की नीति पर ज़ोरदार हमला किया है। बीजेपी की लद्दाख इकाई के अध्यक्ष ने पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया तो इसके कई अन्य विधायक भी तमाम अव्यवस्था को लेकर अपनी ही सरकारों और उसके ज़िला प्रशासन को आड़े हाथ लेते रहे हैं। उधर, सैकड़ों किलोमीटर सड़क को पैदल नापते हुए परदेश से अपने गाँवों की ओर बढ़ रहे ग़रीब प्रवासी मज़दूरों की ख़बरें आने और तस्वीरों के वायरल होने का सिलसिला जारी है। जबकि सूरत में एक बार फिर प्रवासी मज़दूरों ने सरकार के कान के आगे घंटी बजायी है। ऐसे माहौल में काँग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने ज़बरदस्त मास्टर स्ट्रोक लगाया है।

सोनिया का हमला

सोनिया गाँधी ने ऐलान किया कि परदेश में फँसे प्रवासियों को उनके गृह राज्यों तक भेजने का रेल भाड़ा यदि केन्द्र सरकार और रेलवे नहीं भर सकती तो काँग्रेस उनका ख़र्च उठाएगी। उनका बयान है कि श्रमिक और कामगार राष्ट्र-निर्माण के दूत हैं। जब हम विदेश में फँसे भारतीयों को हवाई जहाज़ों से निःशुल्क वापस लाने को अपना कर्तव्य समझते हैं तो ग़रीबों पर यही नियम लागू क्यों नहीं हो रहा? जब हम अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रम्प के लिए अहमदाबाद के हुए आयोजन पर सरकारी ख़ज़ाने से 100 करोड़ रुपये ख़र्च कर सकते हैं, जब प्रधानमंत्री के कोरोना फंड में रेल मंत्रालय 151 करोड़ रुपये दान दे सकता है, तो फिर तरक्की के ग़रीब ध्वज-वाहकों को आपदा की इस घड़ी में निःशुल्क रेल यात्रा की सुविधा क्यों नहीं मिल सकती?

रेल-भाड़े की पेशकश

सोनिया गाँधी सिर्फ़ बयानबाज़ी तक सीमित नहीं रहीं। उन्होंने कहा कि 24 मार्च को सिर्फ़ चार घंटे के नोटिस पर लगाये गये लॉकडाउन के कारण करोड़ों कामगार अपने घरों तक वापस लौटने से वंचित हो गये। 1947 के बँटवारे के बाद देश ने पहली बार ऐसे दिल दहलाने वाले मंजर देखे कि हज़ारों प्रवासी कामगार सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने घर जाने के लिए मजबूर हो गये। इनके पास न राशन, न पैसा, न दवाई, न साधन, लेकिन जान पर खेलकर अपने गाँव पहुँचने की इनकी अद्भुत लगन देखकर भी केन्द्र सरकार को तरस नहीं आया। ग़रीबों के प्रति मोदी सरकार की ऐसी बेदर्दी और बेरुखी को देखते हुए काँग्रेस पार्टी ने तय किया है कि उसकी हरेक प्रदेश इकाई प्रवासी मज़दूरों के रेल-भाड़े का ख़र्च उठाएगी।

मोदी सरकार का एक और यू-टर्न

सोनिया गाँधी के इस तेवर से बीजेपी का हाल काटो तो ख़ून नहीं वाला हो गया। इसीलिए और फ़ज़ीहत से बचने के लिए ऐलान हुआ कि विमान सेवाओं की बहाली के बाद विदेश से जिन्हें वापस लाया जाएगा, उनसे भी किराया लिया जाएगा। ये मोदी सरकार का एक और यू-टर्न है। वुहान में लॉकडाउन के बाद और ईरान में फँसे जिन भारतीयों को वापस लाया गया था, उनसे कोई किराया नहीं लिया। पहले भी जब कभी विदेश से भारतीयों को निकालकर लाया गया तो सारा खर्च सरकार ने ही उठाया। सम्पन्न तबके की ऐसी ‘मुफ़्तख़ोरी’ किसी को नहीं खटकी। इसे लेकर सरकार ने कई बार अपनी पीठ थपथपायी। अभी मार्च तक चले संसद के बजट सत्र में भी यही हुआ। लेकिन अब संकट में फँसे करोड़ों प्रवासियों से रेल भाड़े वसूलने का फ़ैसला ग़रीबों के प्रति मोदी सरकार की संवेदनशीलता पर सवालिया निशान तो ज़रूर लगाता है। विपक्ष का हमला सही है कि मोदी सरकार को जितनी परवाह विदेश जाने वाले भारतीयों की है, उतनी परवाह देश में रहने वालों ग़रीबों की नहीं है।

सरकार की ग़रीब-विरोधी छवि

कोरोना संकट में मोदी सरकार के ग़रीब-विरोधी रवैये की ख़ूब भर्त्सना होती रही है। इसीलिए, ख़ुद प्रधानमंत्री अपनी ‘अदूरदर्शिता’ की वजह से ग़रीबों को हो रहे कष्ट के लिए उनसे वैसे ही माफ़ी माँग चुके हैं, जैसे उन्होंने नोटबन्दी के वक़्त माँगी थी। इसका मतलब ये हुआ कि ग़रीबों की तकलीफ़ों की जानकारी तो प्रधानमंत्री तक पहुँचती है, लेकिन ग़रीबों के कष्ट दूर करने का आइडिया या तो उन्हें सूझता नहीं या फिर उनकी इच्छा नहीं होती। मुमकिन है कि ग़रीबों के हितार्थ में प्रधानमंत्री को समुचित ‘इवेंट’ का आइडिया भी नहीं सूझता हो, वर्ना लॉकडाउन के दौरान क्या वो प्रधानमंत्री निवास में रहते हुए ही चमत्कार करके नहीं दिखा देते! कौन नहीं जानता कि चुटकियों में ‘मन की बात’ को ‘काम की बात’ में बदलने का माद्दा रखते हैं!

मनरेगा बना डूबते का सहारा

प्रधानमंत्री ने संसद में जिस मनरेगा के लिए मनमोहन सिंह और काँग्रेस की खिल्ली उड़ाई थी, वही गाँवों में आज ग़रीबों की रोज़ी-रोटी का सबसे कारगर ज़रिया है। मनरेगा को गड्ढे खोदने वाली योजना बताने के बावजूद मोदी सरकार ने इसे न सिर्फ़ जीवित रखा बल्कि लॉकडाउन में इसकी मज़दूरी भी बढ़ा दी। हालाँकि, ये बढ़ोत्तरी वैसे ही सांकेतिक थी जैसे जन-धन खाते वाली महिलाओं को हर महीने 500 रुपये देने का फ़ैसला। इसे लेकर मोदी सरकार की तारीफ़ से ज़्यादा आलोचना हुई क्योंकि असंगठित क्षेत्र के 60 करोड़ लोगों की आमदनी लॉकडाउन से ख़त्म हुई, जबकि 500 और 1,000 रुपये वाली सरकारी ख़ैरात भी इसके 10 फ़ीसदी लोगों तक भी नहीं पहुँची। दाने-दाने और पाई-पाई को मोहताज़ करोड़ों लोगों में सरकार के प्रति गहरा असन्तोष है।

बहरहाल, काँग्रेस की रेल-भाड़े वाली मदद भी कितने प्रवासी मज़दूरों तक पहुँच पाएगी और कितने लोग अपने-अपने गाँवों तक पहुँचने में सफल होंगे, इस पर सबकी नज़र ज़रूर रहेगी। लेकिन कोरोना के संकट काल में सोनिया गाँधी ने प्रवासी ग़रीब मज़दूरों के प्रति जो संवेदनशीलता दिखायी है, उसने अनायास ही 40 साल पुराने बेलछी नरसंहार की याद दिला दी। राजनीतिक प्रेक्षकों में इस बात पर कोई मतभेद नहीं रहा कि बेलछी कांड के ज़रिये इन्दिरा गाँधी ने ग़रीबों और दबे-कुचले लोगों का भरोसा जीतने में कामयाबी हासिल की थी।

क्या है बेलछी नरसंहार?

इसे आज़ाद भारत में बिहार का पहला जातीय नरसंहार माना जाता है। मौजूदा नालन्दा ज़िले के बेलछी गाँव में 27 मई 1977 को 11 दलित खेतिहर मज़दूर ज़िन्दा जला दिये गये। गाँव का दबंग कुर्मी महावीर महतो और उसके गुर्गे बन्दूक की नोंक पर मृतकों को उनके घरों से घसीटकर खुले मैदान में ले गये। वहाँ उन्हें बाँधकर, आसपास से लकड़ियाँ और घास-फूस जमा करके ज़िन्दा जला दिया गया। महावीर महतो के सिर पर स्थानीय निर्दलीय विधायक इन्द्रदेव चौधरी का हाथ रहता था। उसने गाँव की सार्वजनिक सम्पत्ति और तालाब पर अवैध कब्ज़ा कर रखा था तथा अक्सर अन्य जातियों के लोगों को सताता था। उन्हीं दिनों दुसाध जाति का एक खेतिहर सिंघवा अपनी ससुराल बेलछी आया। उसने महावीर के ज़ुल्म के विरुद्ध गाँव वालों को संगठित किया। यही विरोध बर्बर नरसंहार में बदल गया।

बेलछी से इन्दिरा की वापसी

बेलछी काँड से दो महीना पहले, 24 मार्च 1977 को मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री बने थे। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में इन्दिरा गाँधी को जनता पार्टी से करारी हार मिली थी। वो सियासी सदमे में थीं। तभी बेलछी नरसंहार की ख़बर आयी। मौके की नज़ाकत भाँप इन्दिरा,  विमान से दिल्ली से पटना, फिर कार से बिहार शरीफ़ पहुँच गयीं। अब उन्हें कच्ची सड़क से 25 किलोमीटर दूर बेलछी गाँव पहुँचना था। स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो ने सोनिया गाँधी की जीवनी ‘द रेड साड़ी’ में इस प्रसंग के बारे में इन्दिरा गाँधी के हवाले से लिखा:

“उस दिन तेज़ बारिश हो रही थी। बेलछी के रास्ते पर कीचड़-पानी की वजह से जीप का चलना मुश्किल था। सबने कहा कि ट्रैक्टर ही आगे जा सकता है। मैं सहयोगियों के साथ ट्रैक्टर पर चढ़ी। ट्रैक्टर भी कुछ दूर जाकर कीचड़ में फँस गया। मौसम और रास्ते को देख सहयोगियों ने वापस लौटने की राय भी दी। लेकिन मुझे तो धुन सवार थी कि हर हाल में बेलछी पहुँचना है। पीड़ित दलित परिवार से मिलना है। इसीलिए मैंने साथियों से कहा, जो लौटना चाहते हैं, लौट जाएँ। मैं तो बेलछी जाऊँगी ही। हालाँकि, मैं जानती थी कि कोई नहीं लौटेगा।” 

इन्दिरा गाँधी ने आगे बताया कि “कीचड़-पानी के बीच हम आगे बढ़ते रहे। शाम हो चली थी। आगे एक बरसाती नदी थी। इसे पार करने का उपाय नहीं था। तभी गाँव के मन्दिर के हाथी ‘मोती’ का पता चला। लेकिन उस पर बैठने का हौदा नहीं था। मैंने कहा, चलेगा। हाथी पर कंबल-चादर बिछाकर बैठने की जगह बनायी गयी। आगे महावत बैठा। उसके बाद मैं और मेरे पीछे प्रतिभा पाटिल बैठीं। प्रतिभा डर से काँप रही थीं। उन्होंने मेरी साड़ी का पल्लू कसकर पकड़ रखा था। हाथी जब नदी के बीच पहुँचा तो पानी उसके पेट तक पहुँच गया। नदी पार होने तक अन्धेरा घिर आया। बिजली कड़क रही थी। ये सब देख थोड़ी घबराहट भी हुई। लेकिन फिर मैं बेलछी के पीड़ित परिवारों के बारे में सोचने लगी। ख़ैर, जब बेलछी पहुँची तो रात हो चुकी थी। पीड़ित परिवारों से मिली। मेरे पहुँचने पर गाँव वालों को लगा जैसे कोई देवदूत आ गया हो। मेरे कपड़े भींग चुके थे। उन्होंने मुझे पहनने के लिए सूखी साड़ी दी। खाने के लिए मिठाइयाँ दीं। फिर कहने लगे, आपके ख़िलाफ़ वोट किया, इसके लिए क्षमा कर दीजिए।”

बेलछी के बाद

पाँच दिन बाद इन्दिरा गाँधी बेलछी से दिल्ली लौटीं। अब तक उनका बेलछी दौरा अन्तर्राष्ट्रीय सुर्ख़ियाँ बटोर चुका था। ढाई महीने पहले जनता की ज़बरदस्त नाराज़गी झेल चुकी इन्दिरा गाँधी के जज़्बे की अब ख़ूब तारीफ़ हो रही थी। तब हाथी पर सवार होकर बेलछी जा रही इन्दिरा गाँधी की तस्वीर और इससे जुड़ी कहानी कहाँ नहीं छपी! इसी यादगार मोड़ ने राजनीति और लोकप्रियता में इन्दिरा गाँधी की ऐसी वापसी हुई कि 1980 में हुए मध्यावधि चुनाव से वो बहुमत के साथ सत्ता में वापस लौटीं और मृत्यु तक प्रधानमंत्री रहीं।

ज़ाहिर है, राजनीति में हवा का रुख़ पलटने में ज़्यादा देर नहीं लगती। इसीलिए सभी राजनेता हर बात का राजनीतिकरण करने का मौक़ा ढूँढ़ते रहते हैं। ये हवा जिसके ख़िलाफ़ होती है, वो हमेशा ‘इस मुद्दे पर राजनीति नहीं होनी चाहिए’ की दुहाई देता रहता है। यही वजह है कि ग़रीब प्रवासियों का रेल-भाड़ा भरने की काँग्रेस की पेशकश सोनिया गाँधी का मास्टर स्ट्रोक है। कोरोना संकट से पहले भी देश की आर्थिक दशा बहुत ख़राब थी। लॉकडाउन ने बचे-खुचे को भी ध्वस्त कर दिया। ग़रीबों पर ऐसी मार पहले कभी नहीं पड़ी। इसीलिए रेल-भाड़े की पेशकश काँग्रेस के लिए टर्निंग प्वाइंट बन सकती है। हालाँकि, चुनाव अभी बहुत दूर हैं और जनता की याददाश्त अच्छी नहीं होती।

(मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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