Thursday, March 28, 2024

ग्राउंड रिपोर्ट: क्यों है बिहार में सबसे ज्यादा सांप्रदायिक हिंसा?

पटना। 2 फरवरी, 2022 को केेंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय द्वारा राज्यसभा में दी गयी सूचना के अनुसार (NCRB डाटा) 2018-2020 के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक दंगों के कुल 1,807 मामले दर्ज किए गए हैं। जिसमें बिहार में सबसे अधिक यानि 419 सांप्रदायिक हिंसा के मामले दर्ज किए गए हैं। वहीं वर्ष 2017 में ही बिहार में कुल 163 सांप्रदायिक/धार्मिक हिंसा के मामले सामने आए थे।

साल 1989 में कांग्रेस सरकार के वक्त भागलपुर जिले में पहली बार बिहार सांप्रदायिक हिंसा में झुलसा था। इसके बाद कई सालों तक छिटपुट घटनाओं को छोड़ कमोबेश बिहार ने साम्प्रदायिक हिंसा का दौर नहीं देखा। हाल के 5-6 सालों के आंकड़े को देखें तो मन में सवाल उठता है कि बिहार में दंगे क्यों हो रहे हैं? नीतीश सरकार इस पर लगाम लगाने में असमर्थ क्यों दिख रही है? आंकड़े बता रहे हैं कि जब से नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ दूसरी बार गठबंधन करके 2017 में सरकार बनाई है, स्थितियाँ बदल गई हैं।

हिंदू-मुसलमान नफ़रत की धीमी आंच पर उबल रहा बिहार

बिहार के पटना शहर के पुनइचाक एरिया में लगभग 13 साल से सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे मधुबनी के अभिषेक बताते हैं कि, “राजधानी होने के बावजूद भी पहले हिंदू नव वर्ष और रामनवमी साधारण तरीके से पटना में मनाया जाता था। पोल पर इतना बड़ा- बड़ा पोस्टर और बैनर नहीं लगा रहता था। अब पटना की तरह ही बिहार के कई शहरों में रामनवमी की तरह ही ‘हिंदू नववर्ष’ को लेकर भी रैली का चलन शुरू हो गया है। हिंदू नववर्ष पर रैली निकालने का चलन बिल्कुल नया है। मोहर्रम की तरह ही हिंदू नव वर्ष और रामनवमी की रैली में भाला और तलवार लेकर जयघोष किया जाता है। कुछ जगहों पर जानबूझकर धार्मिक कार्यक्रमों में खुलेआम भड़काऊ गाने बजाए जाते हैं और आपत्तिजनक नारे लगते हैं। मैं यह बिल्कुल नहीं कहता हूं कि जाहिल एक तरफ है दोनों तरफ हैं। लेकिन सरकार की खामोशी की वजह से जाहिलों का मन बढ़ा हुआ है।”

नीतीश की पार्टी के कार्यकर्ता की हत्या बीफ़ और मॉब लिंचिंग का मामला तो नहीं?

2022 के फरवरी महीने में बिहार के समस्तीपुर जिला में सत्ताधारी जनता दल यूनाइटेड से जुड़े मोहम्मद ख़लील आलम की हत्या हुई। फिर तीन दिनों बाद खलील से जुड़ा एक वीडियो वायरल हुआ। जिसमें कुछ हिंदूवादी संगठन के लोग खलील को बीफ खाने पर मार रहे थे। जिसके बाद कई राजनीतिक दलों ने पूरी घटना को एक मॉब लिंचिंग करार दिया। हालांकि प्रशासन की नजर में वह एक आम हत्या है। आश्चर्य की बात है कि उनकी मौत के बाद भी उनकी पार्टी का कोई भी नेता उनके घर नहीं गया। 

चारों तरफ है भगवा का शोर

मोहम्मद ख़लील आलम के बड़े भाई मोहम्मद सितारे विस्तार से पूरी घटना के बारे में बताते हैं, “जब 16 फरवरी के दिन शाम तक भैया वापस घर नहीं आए तो भाभी ने फोन किया था। किसी ने जवाब दिया कि जब तक मेरा 5 लाख वापस नहीं देगा वह घर नहीं आएगा। फिर खलील की लाश मिली और दूसरे दिन वीडियो वायरल हुआ। आप वीडियो देखिए उसके बाद कुछ और कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अफसोस है कि पुलिस पूरे मामले को पैसा लेनदेन से जुड़ा बता रही है।”

समस्तीपुर के एक स्थानीय पत्रकार नाम न बताने की शर्त पर बताते हैं कि, “जिस क्रूरता से इस जघन्य हत्याकांड को अंजाम दिया गया है। इससे तो नहीं लगता है कि पैसे के लेन-देन का मामला है। अपराधी ने खुद वीडियो इंस्टाग्राम पर डाला है। पुलिस ने इसे क्यों पैसे के लेन-देन का मामला बताया है, ये आप भी समझ रहे हैं।”

डीजे और भड़काऊ गाने बिहार में दंगों का सांप्रदायिक पैटर्न

पश्चिम चंपारण के माधोपुर मन प्रखंड के सामाजिक कार्यकर्ता चांद अली बताते हैं कि, “शोभा यात्राओं में शामिल किए गए डीजे में बजाए जा रहे कुछ गानों के बोल इतने विवादित होते हैं कि कहिए मत। पहले रामनवमी में जुलूस कहीं-कहीं निकलता था। अब लगभग हर शहर में निकलने लगा है। धर्म के प्रति आस्था अच्छी बात है लेकिन दूसरे धर्म के प्रति नफरत। चाहे किसी से भी हो, मोहर्रम में भी कुछ लड़के बेवजह बाइक से उन मोहल्लों में जाते हैं जहां हिंदू ज्यादा रहते हैं। उसका भी हम विरोध करते हैं।”

“टोपी वाला भी सर झुकाकर जय श्री राम बोलेगा और दूर हटो, अल्लाह वालों क्यों जन्मभूमि को घेरा है जैसे गाने को सुनकर किसका खून नहीं खौलेगा। बस्ती के पास आकर ऐसा गाना चला कर हम लोगों को टारगेट किया जाता है। अब्बा लोग कहते हैं कम संख्या में हो चुप रहो वरना मारे जाओगे।” नाम ना बताने की शर्त पर 23 वर्षीय एक मुस्लिम लड़का बताता है। 

दंगे के आरोपी यूट्यूबर को सम्मानित किया जाता है

22 मार्च यानी बिहार दिवस के दिन पटना स्थित रवींद्र भवन सभागार में आयोजित कार्यक्रम ‘आइए प्रेरित करें बिहार’ के तहत वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और राज्य के गृह विभाग के विशेष सचिव विकास वैभव ने मनीष कश्यप को सम्मानित किया। मनीष कश्यप एक यूट्यूबर हैं।

मनीष कश्यप का सम्मान।

पटना के स्थानीय पत्रकार सन्नी बताते हैं कि, “14 फरवरी 2019 को कश्मीर में हुए पुलवामा घटना के बाद मनीष कश्यप और उनके साथी ने कई भड़काऊ वीडियो बनाए थे। जिसके बाद 25-30 उपद्रवी ल्हासा मार्केट में घुस कर कश्मीरी दुकानदार को मारे थे और उसके साथ गाली-गलौज किए थे। जिसके बाद रूपसपुर के नागेश कुमार पांडेय,आलमगंज के चंदन और बेतिया के मझौनिया के त्रिपुरारि तिवारी उर्फ मनीष कश्यप, (जिन्हें बिहार दिवस में पुरस्कार मिला है) को गिरफ्तार किया गया था।”

बिहार के डुमरांव से विधायक अजीत कुशवाहा ने सदन में मामला उठाकर पुलिस अधिकारी विकास वैभव और दंगा आरोपी मनीष कश्यप पर कार्रवाई की मांग की है। अजीत बताते हैं कि, “कितनी शर्म की बात है कि दंगे के आरोपी को बिहार में सम्मानित किया जा रहा है। मनीष कश्यप जैसे आरोपी को सम्मानित करने से बिहार की गंगा जमुनी तहज़ीब को खतरा है। विकास वैभव जैसे अधिकारी को भी सोचना चाहिए, लोकप्रियता के लिए जो विभागीय काम से अलग करते रहते है।”

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की धर्मनिरपेक्ष छवि पर सत्ता में रहने की राजनीति कितनी हावी है?

बिहार की राजनीति को नजदीक से जानने वाले ‘केवल सच’ के संपादक बृजेश मिश्रा बताते हैं कि, “बीजेपी और जदयू दोनों दलों के नेता मानते हैं कि जहां नीतीश, भाजपा के लिए ज़रूरी हैं वहीं नीतीश कुमार के लिए भी भाजपा का साथ कई कारणों से मजबूरी है। नीतीश कुमार भाजपा के साथ गठबंधन में जरूर हैं लेकिन उन्होंने कभी भी किसी भी कट्टर हिंदूवादी संगठन और आरएसएस का प्रचार या फिर उनकी तरफदारी नहीं की है। भाजपा उनके लिए कितना जरूरी है यह समझना है तो 2014 के लोकसभा चुनाव का नतीजा देख लीजिए जब नीतीश वामपंथी दल के साथ मिलकर चुनाव मैदान में गए और 40 लोकसभा सीटों में से मात्र दो सीटों पर जीते। जबकि भाजपा का पासवान, कुशवाहा के साथ तालमेल था और वो 31 सीटों पर जीती।”

मुख्यमंत्री नीतीश और पीएम मोदी

“बिहार में जातिगत आंकड़ा यूं बूना हुआ है कि अभी बीजेपी, जदयू और राजद अकेले के दम पर सरकार नहीं बना सकती हैं। क्योंकि तीनों पार्टियां एक जाति विशेष को लेकर राजनीति कर रही हैं और बिहार में जाति एक अखंड सत्य है। भाजपा का ऊंची जाति और बनिया वर्ग पर पकड़ के कारण नीतीश कुमार का भाजपा के साथ रहना उनकी मजबूरी है।” आगे बृजेश मिश्रा बताते है।

बिहार का अतीत सांप्रदायिक हिंसा के लिए कुख्यात रहा है

बिहार के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक आत्मेश्वर झा बताते हैं कि, “आजादी से ठीक पहले और उसके बाद के महीनों में बिहार ने सबसे बुरी सांप्रदायिक हिंसा देखी है। विभाजन के वक्त बिहार में भी हजारों लोग मारे गए थे। जब बिहार और झारखंड एक था तब उर्दू को राजकीय भाषा का दर्जा देने के वक्त रांची में सांप्रदायिक हिंसा हुई थी। फिर उसी दौर में दक्षिण बिहार के जमशेदपुर और हजारीबाग में रामनवमी जुलूसों को लेकर कई दंगे हुए। 1984 के सिख दंगे में भी बिहार का पटना शरीफ और हजारीबाग बुरी तरह प्रभावित रहा था। भागलपुर का दंगा किसे याद नहीं हैं, जब रामनवमी में ‘शोभा यात्रा’ के बाद फैले सांप्रदायिक तनाव ने बिहार के माथे पर एक काला धब्बा छोड़ दिया था। फिर लालू प्रसाद यादव के शासनकाल के वक्त देश सांप्रदायिक हिंसा से जलता रहा, तब बिहार में अमन-चैन बना रहा। नीतीश के पहले शासनकाल में भी अमन चैन से बना रहा। हालांकि अब का माहौल देखकर लग रहा है कि नीतीश कठपुतली बन के रह गए हैं।”

बिहार में बढ़ रहा है संघ के प्रति लगाव

दिल्ली से लगभग 1000 और बिहार की राजधानी पटना से ढाई सौ किलोमीटर दूर एक छोटा शहर सुपौल है। जहां वर्षों तक कांग्रेस, जदयू और राजद का खासा प्रभाव रहा है। जातिगत संरचना को देखा जाए तो बीजेपी यहां कभी भी अकेले शासन में नहीं आ सकती है। 2014 में भी बीजेपी जदयू से अलग होकर लड़ रही थी तो सुपौल में हार गई थी। 

सुपौल के मोहित मुंबई में फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट राइटिंग का काम करते हैं। मोहित बताते हैं कि, “कोसी तटबंध के भीतर 30 से 35 गांव ऐसे हैं जहां गरीबी अपनी अंतिम सीमा पर है। जहां राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और कम्युनिस्ट शब्द कोई मायने नहीं रखता। वहां भी पिछले दो-तीन सालों से रामनवमी में जुलूस निकाला जा रहा है। जानकर हैरानी होगी कि एक दो जगह संघ की शाखा भी लग रही है। इसकी मुख्य वजह है सरकार की उदासीनता। इन गांवों में सरकार की सुविधा तो नहीं पहुंच पाती है लेकिन आरएसएस कार्यकर्ता वंचित वर्गों के सदस्यों को सेवाएं प्रदान करते हैं। बाढ़ के वक्त हमेशा तैनात रहते हैं। इस बात से तो सभी परिचित हैं कि आरएसएस का होता विस्तार ही बीजेपी को जीत दिला रहा है।”

(बिहार से राहुल की रिपोर्ट।)

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