Saturday, April 27, 2024

आखिर क्यों आम लोगों को करना चाहिए जेएनयू में फीस वृद्धि का विरोध

मैं आईआईएमसी से पास हुआ तो मुझे कोई नौकरी नहीं मिली। जबकि मैं सेकंड टॉपर था क्लास का। नौकरी किसी को नहीं मिली थी। जेएनयू कैंपस देखा था तो इच्छा थी कि यहां पढ़ लें। पहली बार अप्लाई किया नहीं हुआ।

अगले साल आते आते अमर उजाला की नौकरी से निकाला जा चुका था। घर से पैसे आने नहीं थे। रहने को घर नहीं था। खाने को पैसा नहीं। मैंने जेएनयू का फॉर्म भरा था लेकिन तैयारी करने को किताबें नहीं थीं।

मैं दोस्तों से उधार ले लेकर ऐसी हालत में था कि शर्म आती थी पैसा मांगने में किसी से। ऐसे में जेएनयू में कई बार मेस में जाकर चुपचाप थाली उठा लेता था। मेस वर्कर ने एक बार कहा कि पर्ची कहां है….मेरी शकल पर ही लिखा था मैं भूखा हूं…..

एक बार मैंने कहा- बहुत भूख लगी है….तो मेस वर्कर ने थाली में सब्जी डाल कर बोला। बैठ जाओ। आगे बढ़ने पर मेस मैनेजर के टोकने का खतरा था। ऐसा तीन-चार बार हुआ।

ये लिखते-लिखते हाथ कांप रहे हैं। मैं कई रातों को जेएनयू के बस स्टैंड पर सोया हूं क्योंकि मेरे पास सोने की जगह नहीं थी। ऐसे ही कई दिन मुझे जेएनयू के दोस्तों ने देखते ही नाश्ता कराया है बिना ये पूछे कि मेरा क्या हाल है। सब जानते थे मेरी हालत ठीक नहीं है।

मेरी ऐसी हालत देखने वाले कुछ लोग अभी भी फेसबुक पर मेरी मित्र सूची में हैं।

ऐसे ही एक दिन जेएनयू के एक सीनियर ने देखा तो बातचीत होने लगी। बातों बातों में उन्होंने कहा कि सोने की दिक्कत हो तो कमरे में आ जाया करो। कभी कभी चेकिंग होता है लेकिन संभाल लेंगे। मैं गया नहीं।

जेएनयू के ही एक छात्र ने पुरानी किताबें दी तैयारी करने के लिए। मैं बिना अतिश्योक्ति के ये कह रहा हूं कि भूख लगने पर मैंने भीगा गमछा पेट पर बांधा है और पढ़ाई की है।

उस पर भी बस नहीं हुआ। परीक्षा से पहले एडमिट कार्ड नहीं आया तो जेएनयू के उस समय के छात्र नेता ने खुद जाकर एग्जाम कंट्रोलर से लड़ाई कर के मुझे एडमिट कार्ड दिलाया।

जेएनयू में आज भी एमए की लिस्ट में मेरी फोटो नहीं है क्योंकि मेरे एडमिट कार्ड में फोटो नहीं था। नए एडमिट कार्ड के लिए पैसे भरने पड़े वो उस छात्र नेता ने अपनी जेब से दिए जो मैंने साल भर बाद उन्हें वापस किया।

एडमिशन के बाद मेरे पास मेस बिल देने को पैसा नहीं था। मेरे पिता महीने के हज़ार रूपए भेजने तक के लिए सक्षम नहीं थे। उन्होंने किसी से उधार लेकर पंद्रह सौ रूपए के साथ मुझे जेएनयू भेजा था जिससे मैंने पहले सेमेस्टर की फीस (करीब साढ़े चार सौ रूपए) भरी थी।

छह महीने तक मेरे एक दोस्त ने पैसे दिए मेस बिल के……अगर सेमेस्टर की फीस आज जितनी होती तो मैं सच में पढ़ नहीं पाता…

मेरे जैसे कई गरीब छात्र हैं जेएनयू में आज भी। कुछ साल पहले मैं बुलेट से आ रहा था कैंपस तो एक लड़का हवाई चप्पल में पैदल चलता हुआ मिला। चेहरे पर उदासी थी….उसने हाथ दिया तो मैंने गाड़ी पर बैठा लिया….बातों बातों में रूआंसा हो गया। मैं पूछने लगा तो वही सब। पिता किसान थे….महीने के मेस बिल का आठ सौ रूपया तक भेज नहीं पा रहे थे।

बहुत संघर्ष है पढ़ाई के लिए…जिनके पास पैसे हैं वो ये कभी नहीं समझेंगे।

( यह पोस्ट बीबीसी के पूर्व पत्रकार जे सुशील की है। जिसे वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के फेसबुक पेज से लिया गया है।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles