Friday, March 29, 2024

अभिजीत बनर्जी के नोबेल से आखिर क्यों मुंह चुरा रही है मोदी सरकार?

कल ज्यादातर लोग पीएम मोदी द्वारा अर्थशास्त्र के लिए नोबेल हासिल करने वाले अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी ईस्टर डूफ्लो को शुभकमाना संदेश दिए जाने में देरी को उनके जेएनयू लिंक से जोड़कर देख रहे थे। इस बात में कोई शक नहीं कि यह एक कारण था। लेकिन यही प्रमुख था ऐसा भी नहीं है। इससे भी ज्यादा बनर्जी का खुद का आर्थिक चिंतन और भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर उनकी राय प्रमुख वजह थी। जिस पर उन्हें यह नोबेल हासिल हुआ है। अभिजीत बनर्जी के शोध का विषय ही दुनिया में गरीबी खत्म करने के उपायों पर केंद्रित है।

एक ऐसे समय में जबकि पूरे देश की अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त है। और तमाम आर्थिक पैमानों पर वह लगातार पीछे जा रहा है। और उससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि एक-एक कर सरकार से जुड़े सभी सक्षम लोग उसका साथ छोड़कर जा रहे हैं। ऐसे में देश की नाजुक स्थिति का अंदाजा लगाना किसी के लिए मुश्किल नहीं है। और ऊपर से समस्या को लेकर मौजूदा वित्तमंत्री की निगाह उबर और ओला से आगे बढ़ ही नहीं पा रही है। दरअसल अर्थव्यवस्था को मंदी से निकालने का जो रास्ता है उस पर वह जाने के लिए तैयार ही नहीं हैं। क्योंकि उसमें राज्य की भूमिका बड़ी है। और उसमें जाने पर सरकार को गार्जियन के तौर पर खड़ा होना होगा।

अभिजीत बनर्जी ने उसका रास्ता भी सुझाया था। जब उन्होंने नरेगा योजना में मजदूरों की मजदूरी बढ़ाने की सलाह दी थी। इसके अलावा कांग्रेस के साथ मिलकर उन्होंने न्याय योजना पर काम किया था जिसमें गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों को 6 हजार तक रुपये दिए जाने का प्रावधान था। एक ऐसे समय में जबकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है। इस तरह के प्रावधान उन लोगों के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं थे। बनर्जी ने सरकार के नोटबंदी के फैसले की जमकर मुखालफत की थी। उन्होंने कहा था कि जैसे नकद रुपये रखने वालों को सरकार ने सजा देने का फैसला किया हो।

इससे बाजार में और लोगों के बीच लिक्विडिटी का कम होना तय था। उसकी भरपाई होने में दशकों लग जाने की आशंका पहले से थी। ऊपर से बड़े स्तर पर लोगों को अपने काम से हाथ धोना पड़ा। इसका आखिरी नतीजा मंदी के तौर पर सामने है। क्योंकि लोगों के पास न तो खरीदने की क्षमता है और न ही दूर-दूर तक उसके फिर से हासिल करने की कोई संभावना। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो बाजार बिल्कुल ठप पड़ गया है। और इस अनिश्चितता ने ऐसे लोगों को भी किसी गतिविधि में जाने से रोक दिया है जिन्होंने कुछ पूंजी बचा रखी है।

दरअसल सरकार बनर्जी के मॉडल पर जाना ही नहीं चाहती है। सीतारमन ने मंदी से उबरने की जो कुछ नयी घोषणाएं की हैं। जनता नहीं, कारपोरेट उसके केंद्र में है। वह कारपोरेट टैक्स में छूट का मसला हो या फिर विभिन्न स्तरों पर उस हिस्से को पहुंचने वाला लाभ। हर तरीके से उसमें कारपोरेट को मालामाल करने की योजना है। उसी कड़ी में रीयल इस्टेट को उबारने के लिए उसने एक मुश्त 10 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा पैसे देने की घोषणा कर दी। लेकिन सवाल यह है कि अगर लोगों के पास पैसा ही नहीं है और लोग बाजार से कुछ खरीदेंगे नहीं तो भला कारपोरेट की झोली भरने से भी क्या होगा? जबकि इसके वैकल्पिक मॉडल में लोगों की जेबों में पैसा डालने का सुझाव है। यह काम कुछ सीधे और कुछ रोजगार पैदा करने के जरिये पूरा किया जा सकता है। ऐसा होने पर ही बाजार की पटरी पर खड़ी अर्थव्यवस्था की गाड़ी आगे बढ़ सकेगी।

दरअसल, अभिजीत मसले ने देश के भीतर दो मॉडलों बंगाल और गुजरात को भी अपने तरीके से एक बार फिर बहस के केंद्र में ला दिया है। इससे एक बार फिर यह बात साबित हो गयी है कि बंगाल की मेधा अमर्त्य सेन और अभिजीत बनर्जी पैदा करती है। जबकि गुजरात मेहुल चौकसी, नीरव मोदी। पहला देश ही नहीं बल्कि दुनिया में भारत की इज्जत को बढ़ाता है। क्रोनी कैपिटलिज्म की पैदाइश दूसरा हर तरीके से देश को बदनाम करने का काम कर रहा है।

बंगाल से जुड़े बुद्धिजीवियों की चिंता के केंद्र में अगर आम लोग हैं तो गुजरात में लुटेरे और क्रोनी कैपिटलिस्ट हैं। और उन्हीं के पक्ष में खड़ा हुआ देश का प्रधानमंत्री है। जिसके आगे बढ़ने के साथ ही यह पूरी जमात आगे बढ़ी है। पहले उन्होंने मुख्यमंत्री रहते गुजरात के स्तर पर उनकी लूट की व्यवस्था सुनिश्चित की। अब देश के स्तर पर उसी काम को आगे बढ़ा रहे हैं। जनता की गाढ़ी कमाई की संपत्तियों वह रेलवे हो या कि एनटीपीसी और बीएसएनल हो कि बीपीसीएल सब कुछ अपने इन चहेतों को औने-पौने दामों पर दे रहे हैं।

इनका राष्ट्रवाद कितना संकीर्ण है और यह हिंदू-मुस्लिम के तंग नजरिये से भी तब और छोटा हो जाता है जब यह हिंदुओं के बीच भी अपने दुश्मन खोजने लगता है। अभिजीत उन्हीं दुश्मनों में से एक हैं। और इससे यह बात बिल्कुल स्पष्ट तरीके से समझी जा सकती है कि दरअसल बीजेपी और संघ का राष्ट्रवाद कुछ और नहीं बल्कि मूलत: पूंजीपतियों की सेवा है। उसमें गरीबों के लिए कोई स्थान नहीं है। वहीं तक उसकी जरूरत है जहां तक उनसे अपने पक्ष में वोट हासिल किया जा सके। और इस काम में हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक संघर्ष उसका सबसे बड़ा हथियार साबित हो रहा है। लिहाजा घृणा और नफरत की यह गाड़ी उसे सत्ता की मंजिल तक बगैर किसी गरीब की चिंता किए आसानी से पहुंचा देती है।

इसीलिए संघ और मोदी के लिए सांप्रदायिकता की यह सवारी बेहद मुफीद साबित होती है। यूपी के मुख्यमंत्री ने एक कलम से कल 28 हजार होमगार्डों की नौकरी ले ली। क्योंकि सरकार के खजाने में पैसा नहीं है। लेकिन उसी के साथ ही यह खबर भी आयी है कि वह अयोध्या में दीवाली को पूरे धूम-धाम से मनाएंगे। जिसमें जनता की कमाई के करोड़ों रुपये खाक हो जाएंगे। अब कोई पूछे कि यह खजाना किसका है और किसके लिए बना है? पूछने वाला सबसे बड़ा राष्ट्रद्रोही, धर्मविरोधी और सेखुलर घोषित कर दिया जाएगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए बनर्जी ने कहा है कि यह डावांडोल स्थिति में है। और पिछले पांच-छह सालों में तो कुछ ग्रोथ भी दिखी थी भविष्य में उसकी भी कोई संभावना नजर नहीं आ रही है। अब अगर देश का एक अर्थशास्त्री जिसके प्रयोग को नोबेल कमेटी ने भी माना है और उसे दुनिया के स्तर पर लागू करने की बात की जा रही है। उसका अगर देश की सरकार फायदा नहीं उठाती है तो उसे क्या कहा जाएगा?

बनर्जी को नोबेल देने के पीछे एक खास मकसद है। आमतौर पर माना जाता है कि नोबेल उसी को दिया जाता है जिसकी अपने दौर में कोई प्रासंगिकता होती है। या फिर उससे कोई मकसद हासिल करना होता है। दरअसल पश्चिमी देशों और अमेरिका में जारी उथल-पुथल पूंजीवाद के संकट के तौर पर देखे जा रहे हैं। यूरोप में नागरिकों को अब तक राज्य से मिलने वाले लाभ में बड़े स्तर पर कटौती की जा रही है।

हालांकि उसका विरोध भी उसी स्तर पर हो रहा है। राजनीतिक तौर पर ब्रिटेन में अगर जर्मी कोर्बिन हैं तो अमेरिका में बर्नी सैंडर्स इसकी अगुआई कर रहे हैं। दूसरी तरफ पूंजीवाद किसी भी तरीके से अपने को बनाए रखने और बचाए रखने की कोशिश में एक ऐसी हास्यास्पद स्थिति में पहुंच जा रहा है जिसका नतीजा ट्रंप और जान्सन जैसे लोग हैं। जिन्हें इस दौर का राजनीतिक जमूरा कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ये सभी न केवल घृणा और नफरत को बढ़ाने का काम कर रहे हैं बल्कि पूंजीवादी सत्ता बनाए रखने की कोशिश में समाज में हर तरह के मतभेद को उभारने से भी बाज नहीं आ रहे हैं। भारत में इन शक्तियों के प्रतिनिधि संघ और मोदी हैं।

(पढ़िए महेंद्र मिश्र का पूरा लेख।)

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