Saturday, April 27, 2024

महंगाई और बेरोजगारी से क्यों बदहाल है यूरोप की जनता?

नई दिल्ली। अकसर जब मंहगाई, बेरोज़गारी और बदहाली की बात आती है, तब हमारा ध्यान एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों की ओर जाता है, क्योंकि ये देश शताब्दियों से इन समस्याओं से जूझ रहे हैं। शायद ये इन देशों के लोगों की नियति बन गई है, यही कारण है कि इन देशों की जनता में बड़े पैमाने पर यूरोपीय देशों में जाने और वहां बसने की ललक है। हर साल वहां रोज़गार और बेहतर जीवन की तलाश में ये वहां जा रहे हैं, परन्तु आज यूरोप तथा अमेरिका की जनता खुद ही मंहगाई और बदहाली से त्रस्त है।

यहां पर भी मुट्ठी भर लोग तेज़ी से समृद्ध हो‌ रहे हैं और बहुसंख्यक जनता का जीवन स्तर तेज़ी से गिर रहा है। यह सही है कि यूरोप और अमेरिका ने बहुत आर्थिक विकास किया तथा बहुसंख्यक जनता को उनकी मूलभूत समस्या रोटी-रोज़गार से निजाद दिलाई, परन्तु अब स्थितियां बदल रही हैं, इन देशों में भी मंदी व आर्थिक स्तर के कारण इन देशों के लोगों का जीवन स्तर भी तेज़ी से गिर रहा है।

लाखों सालों के मानव विकास के बाद आज तकनीकि के क्षेत्र में तथाकथित ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ की बात हो रही है यानी अपार तरक़्क़ी की बातें हो रही हैं, लेकिन विज्ञान की इस अपार तरक़्क़ी के बावजूद मेहनतकश जनता आज भी बुनियादी ज़रूरतों के लिए जद्दो-जहद करने को मजबूर है।

ऐसी ही एक लड़ाई है- खाद्य सुरक्षा के लिए यानी भरपेट पौष्टिक भोजन के लिए। पहले के समाजों में अक्सर अकाल पड़ते थे, अनाज की कमी होती थी। जबकि आज दुनिया-भर में अनाज की बहुतायत है, लेकिन इसके बावज़ूद भी धरती पर करोड़ों लोगों को अच्छा भोजन नहीं मिल पाता।

हम अकसर एशिया और अफ़्रीका के देशों में लाखों लोगों के भूखे पेट सोने की कहानियां सुनते रहे हैं, लेकिन आज हम धरती के उस हिस्से में भोजन की कमी के बारे में बात करेंगे, जो अपनी तरक़्क़ी और ख़ुशहाली के लिए जाना जाता है यानी यूरोपीय महाद्वीप की।

पिछले साल 2023 में यूरोप की सड़कें प्रदर्शनकारियों से पटी पड़ी रही हैं, क्योंकि आर्थिक मंदी के कारण लोगों के जीवन में बड़ी गिरावट आई है। मौजूदा समय में बढ़ती क़ीमतों ने लगभग एक तिहाई यूरोपीय लोगों को ग़रीबी में धकेल दिया है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार पिछले तीन सालों में यूरोपीय लोगों की खरीदशक्ति में गिरावट आई है, जिससे ज़्यादातर लोगों को एक या दो समय का भोजन छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है। पिछले तीन सालों में आधे से ज़्यादा यूरोपीय लोगों ने अपने ख़र्च में कटौती की है। दो में से एक यूरोपीय निवासी सोचता है कि महंगाई और कम वेतन के चलते वह अगले महीने ग़रीबी में धंस जाएगा।

आज यूरोप में केवल 15% लोग ही आर्थिक रूप से सुरक्षित महसूस करते हैं। एक अन्य सर्वे के अनुसार पिछले छह महीनों में 29% यूरोपीय लोगों ने अपना सफ़र करना कम किया है, 23% ने ठंड के बावज़ूद घर का हीटर चालू नहीं किया है, 30% ने परिवार के सदस्यों या दोस्तों से पैसे लेना या देना शुरू कर दिया है, 21% ने सेहत समस्याएं होने पर भी इलाज़ नहीं करवाया, 18% ने भूख लगने के बावज़ूद एक समय का भोजन छोड़ दिया, 11% ने दान किया हुआ भोजन या कपड़े लिए और 10% ने अपने दोस्तों या परिवार के घर को बसेरे के रूप में इस्तेमाल किया, क्योंकि उनके पास रहने की जगह के लिए पैसे नहीं थे।

हर क्षेत्र में महंगाई ने लोगों को मुश्किल चुनाव करने पर मजबूर कर दिया है कि किस बुनियादी ज़रूरत पर ख़र्च किया जाए और किस पर ख़र्च नहीं किया जाए।

2022 के बाद से ही महंगाई ने यूरोपीय लोगों के लिए जीवन कठिन बना दिया है। खाने-पीने की चीज़ों के दाम बढ़ने से लोगों को सबसे ज़्यादा परेशानी उठानी पड़ रही है। सर्वे के मुताबिक़ 38 फीसदी लोग अब दिन में तीन बार खाना नहीं खा पाते हैं।

बता दें कि पिछले साल भोजन पदार्थों की बढ़ी कीमतों ने चार दशक का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। मार्च 2023 में यूरोप में भोजन पदार्थों की महंगाई 19.2% के शिखर पर पहुंच गई। 37 यूरोपीय देशों में से 33 में भोजन पदार्थों की महंगाई कुल महंगाई से ज़्यादा थी। तुर्की में यह दर 72.5% के चिंताजनक स्तर पर पहुंच चुकी है।

एक समय का भोजन छोड़ने के अलावा, भोजन की गुणवत्ता में भी भारी गिरावट आई है। ज़ाहिर है इन सबका सबसे बुरा असर बच्चों पर पड़ा है। यूरोप के एक चौथाई बच्चों पर आज भयानक ग़रीबी में धकेले जाने का ख़तरा है। ये हालात लाज़मी तौर पर उनके सेहतमंद विकास को प्रभावित कर रहे हैं।

आंकड़ों को इतना विस्तार देने का उद्देश्य यह बताना है कि सबसे ख़ुशहाल माने जाने वाले महाद्वीप पर भी आज कामकाजी लोगों को बुनियादी ज़रूरतों के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। ऊपर दिए गए आंकड़े यह स्पष्ट करते हैं, कि यूरोप एक गहरी मंदी के क़गार पर है, जिसका बुरा असर लोगों के बिगड़ते हालातों में दिखाई देने लगा है।

यह वही यूरोप है, जिसके गुण पूंजीवादी अर्थशास्त्री गाते थे, कि यूरोप पूंजीवाद का स्वर्ग है। लेकिन ऐसे हालातों ने यह स्पष्ट कर दिया है, कि पूंजीवाद केवल कुछ अमीर लोगों के लिए स्वर्ग बना सकता है, वह भी आम बहुसंख्यक लोगों के जीवन को नरक बनाकर। लोगों की असल बेहतरी तो केवल समाजवाद में ही हो सकती है, जहां पैदावार लोगों की ज़रूरतों के लिए हो ना कि मुनाफ़े के लिए।

ऐसे मुश्किल हालातों का सामना कर रहे यूरोप के लोग चुप नहीं हैं। उन्होंने अपने हालात बदलने के लिए बड़े संघर्ष शुरू कर दिए हैं। डाक विभाग, रेलवे विभाग और दूसरे कई क्षेत्रों के लाखों कर्मचारियों ने बड़े पैमाने पर हड़तालों, धरनों, प्रदर्शनों के माध्यम से सरकारों की जनविरोधी नीतियों का विरोध करना शुरू कर दिया है। ज़रूरत है कि बुनियादी ज़रूरतों से उपजी इन लड़ाइयों को एक बड़े क्रांतिकारी आंदोलन में परिवर्तित करके इस जनविरोधी व्यवस्था को बदल देने की है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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