फरवरी का दूसरा पखवारा बिहार में बड़ी राजनीतिक घटनाओं से भरा और राष्ट्रीय राजनीति के लिए दूरगामी महत्व का होने जा रहा है। 25 फरवरी को सुदूर सीमांचल में पूर्णिया के रंगभूमि मैदान में महागठबंधन की संयुक्त रैली होने जा रही है, जिसके बारे में नीतीश कुमार ने दावा किया है कि, “विपक्ष को एकजुट करने की मुहिम पूर्णिया से शुरू हो रही है। पूर्णिया के बाद पूरे बिहार और फिर देश के अन्य हिस्सों में इसे अभियान का रूप दिया जाएगा।”
महागठबंधन सरकार बनने के बाद पिछले 23 सितंबर को पूर्णिया के इसी मैदान में रैली करके अमित शाह ने ताल ठोकी थी और 2024 के लिए भाजपा के बिहार अभियान की शुरूआत की थी।
उधर 15 से 20 फरवरी तक पटना में भाकपा माले का राष्ट्रीय महाधिवेशन होने जा रहा है। फासीवाद के खिलाफ लोकतन्त्र की रक्षा को समर्पित पार्टी के इस राष्ट्रीय समागम के पहले दिन 15 मई को पटना के गांधी मैदान में विराट रैली हो रही है।
इस महाधिवेशन में फासीवाद विरोधी लड़ाई में जमीनी स्तर पर प्रतिरोध की रणनीति तो बनेगी ही, 18 फरवरी को भाजपा विरोधी विपक्षी दलों के संयुक्त मोर्चे के निर्माण की दिशा में कन्वेंशन आयोजित है जिसमें माकपा, भाकपा, राजद, जदयू, कांग्रेस, JMM आदि को आमंत्रित किया गया है।
ज्ञातव्य है कि आंदोलनों की अग्रणी ताकत होने के साथ ही बिहार विधानसभा में 12 सीटें हासिल कर, बिहार की एक उल्लेखनीय राजनीतिक शक्ति बन चुकी भाकपा माले सत्तारूढ़ महागठबन्धन में शामिल है, हालांकि वह सरकार में शामिल नहीं है। उसने अपने लिए सरकार और जनता तथा जनांदोलनों के बीच सेतु बने रहने की चुनौतीपूर्ण भूमिका तय की है।
गौरतलब है कि तमाम वाम लोकतांत्रिक ताकतों के बीच सबसे पहले भाकपा माले ने ही बाबरी मस्जिद विध्वंस को महज साम्प्रदायिकता नहीं, वरन सांप्रदायिक फासीवाद के उदय के बतौर चिन्हित किया था, तब से पिछले 3 दशकों से उसी स्पष्ट समझ के साथ पार्टी, उसके छात्र-युवा व तमाम जन- संगठन तीखे प्रतिरोध संघर्षों में जूझते रहे हैं और अपनी रणनीति विकसित करते रहे हैं।
महाधिवेशन के दस्तावेज में उस संकल्प को दुहराया गया है और रणनीति को अपग्रेड किया गया है, “फासीवादी आपदा और विनाश के भंवर से अपने मुल्क को बचाना आज क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। यह चुनौती निश्चय ही सभी लोकतान्त्रिक ताकतों और वैचारिक धाराओं के बीच व्यापकतम सम्भव एकता और सहयोग की मांग करती है।”
यह स्वागत योग्य है कि फासीवाद विरोधी लड़ाई में “एकजुट विपक्ष के निर्माण, और आने वाली चुनावी लड़ाई में मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने के महत्व” को स्वीकार करते हुए भी पार्टी ऐसी कोशिशों की सीमाओं के प्रति सजग है।
महाधिवेशन के लिए जारी पार्टी के दस्तावेज में कहा गया है, “भारत में बन रही वर्तमान विपक्षी एकता अभी तक फासीवाद विरोधी चेतना या प्रतिबद्धता से लैस नहीं है… बहुत से विपक्षी दल आरएसएस का विरोध करने अथवा घृणा, झूठ और आतंक के जहरीले अभियान को चुनौती देने के लिए तैयार नहीं हैं।
अधिकतर विपक्षी दलों के बीच नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और अमेरिकापरस्त विदेशनीति के सवालों पर आम सहमति भी कायम है। विरोध की आवाज उठाने वाले नागरिकों और जनांदोलनों के विरुद्ध दमनकारी कानूनों के इस्तेमाल, राज्य दमन और उत्पीड़न के सवाल भी विपक्षी एजेंडे में पूरी तरह उपेक्षित हैं।
इसीलिए विपक्षी दलों और ताकतों के साथ अधिकतम सम्भव एकता बनाने व बढ़ाने के साथ साथ कम्युनिस्टों को फासीवाद के विरुद्ध समग्र एवं प्रभावी प्रतिरोध विकसित करने के लिए अपनी सम्पूर्ण राजनीतिक व वैचारिक स्वतंत्रता कायम रखते हुए ही काम करना होगा।”
महज चुनावी हार जीत की संसदीय विपक्षी दलों की सतही समझ के विपरीत पार्टी ने नवउदारवादी अर्थनीति के गहराते संकट के मौजूदा संकट की स्थिति (conjuncture) पर भारत में उभरे फासीवाद के दीर्घकालीन चरित्र को नोट किया है, “मोदी सरकार को चुनावों में शिकस्त देकर फासीवाद को निर्णायक रूप से परास्त नहीं किया जा सकता। एक दो चुनावी हारों को झेलने लायक ताकत संघ ब्रिगेड को मिल चुकी है।
जरूरत है कि इसकी विचारधारा और राजनीति को जोरदार तरीके से खारिज करते हुए एक बार फिर इसे भारतीय राजनीति और समाज के हाशिये पर पहुंचा दिया जाए। फासीवादी हमले का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए सुदृढ लोकतन्त्र और सामाजिक बदलाव के चैम्पियन के रूप में कम्युनिस्टों को एक दीर्घकालीन और आमूलगामी प्रतिरोध संघर्ष के लिए तैयार हो जाना चाहिए।”
भारतीय मार्का फासीवाद की हमारे समाज में मौजूद आंतरिक जड़ों की तलाश करते हुए दस्तावेज में नोट किया गया है, “अंबेडकर ने कहा था कि संविधान इस अलोकतांत्रिक जमीन पर लोकतन्त्र की सजावट भर है। उन्होंने जाति को आधुनिक भारत के लिए सबसे बड़ी बाधा के रूप में पहचाना था और सामाजिक बराबरी तथा आज़ादी सुनिश्चित करने के लिए इसके पूर्ण खात्मे का आह्वान किया था।
इसीलिए उन्होंने हिन्दूराष्ट्र को सबसे बड़ी आपदा कहा था जिसे हर हाल में भारत को बचाया जाना चाहिए। सर्वाधिक प्रतिगामी विचारों, प्रवृत्तियों और तौर-तरीकों की जड़ें भारत के दमनकारी सामाजिक ढांचे, खासकर गहरी जड़ें जमाये ब्राह्मणवादी जातिव्यवस्था एवम पितृसत्ता में हैं, जो फासीवादी हमले के लिए ईंधन का काम करके उसे और भी मजबूती और वैधता दे रहा है।”
इस ठोस शिनाख्त के अनुरूप फासीवाद से लड़ने का ठोस रास्ता दस्तावेज प्रस्तावित करता है, “कम्युनिस्टों को भारतीय इतिहास व संस्कृति के प्रत्येक प्रगतिशील एवं परिवर्तनकामी पहलू को, खासतौर पर शक्तिशाली जातिभेद-विरोधी और पितृसत्ता विरोधी संघर्षों को तथा भारतीय समाज एवं इतिहास की बराबरी, तार्किकता और बहुलता की तलाश के संघर्ष को जीतना होगा।”
दस्तावेज का निचोड़ है, “फासीवाद भारत के सामने बड़ी आपदा है। फ़ासीवाद विरोधी आंदोलन का लक्ष्य भारत को बचाना और उसका पुनर्निर्माण करना है। संविधान बचाओ का नारा रक्षात्मक अथवा यथास्थितिवादी नारा नहीं है। इसका उद्देश्य संविधान के प्रस्तावना में घोषित प्रतिबद्धताओं को हासिल करना है।
जहां फासीवाद भारत को बर्बादी और पीछे की ओर ले जा रहा है, वहीं फासीवाद विरोधी विजयी जनप्रतिरोध गणतंत्र को पुनर्स्थापित करेगा, जनता की ऊर्जा और पहलकदमी को उन्मुक्त करेगा तथा अधिकारसंपन्न जनगण के एक मजबूत लोकतन्त्र के बतौर भारत को पूरी तरह रूपांतरित कर देगा।”
फासीवाद विरोधी लड़ाई की इस सुस्पष्ट समझ और सुसंगत दिशा के साथ क्या भाकपा माले देश और लोकतन्त्र बचाने की लड़ाई की अग्रणी ताकत बनकर उभरेगी?
क्या वामपंथ फिर बिहार में बड़ी ताकतवर बन कर उभरेगा और हिंदी क्षेत्र में वामपंथ की नई अग्रगति का मार्ग प्रशस्त होगा?
क्या 2024 में दशकों बाद संसद में बिहार और हिंदी पट्टी से कम्युनिस्ट सांसदों की आवाज फिर गूंजेगी?
क्या बिहार में फासीवाद विरोधी संयुक्त मोर्चे का उभरता टेम्पलेट पूरे देश के लिए मॉडल बनेगा?
अतीत के अन्य नाजुक मोड़ों की तरह क्या बिहार एक बार फिर देश को रास्ता दिखायेगा और फासीवाद के शिकंजे से हमारी मातृभूमि और गणतंत्र को आज़ाद कराने की लड़ाई का हिरावल बनेगा?
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे हैं)
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