इतनी सी बातः जब छुपाने को कुछ न हो

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खबर आई कि सुप्रीम कोर्ट भी अब आरटीआई के दायरे में आएगा, लेकिन यह अधूरी या भ्रामक खबर है। सच यह है कि वर्ष 2005 में आरटीआई कानून लागू होने के साथ ही सुप्रीम कोर्ट भी आरटीआई के दायरे में था। कानून की परिभाषा कहती है कि संविधान के तहत बना हर संस्थान आरटीआई के दायरे में है। सरकारी खर्च पर चलने वाला हर संस्थान भी आरटीआई में है। सुप्रीम कोर्ट इन दोनों परिभाषा के तहत लोक प्राधिकार है।

आसान शब्दों में समझने के लिए एक उदाहरण। सरकार ने एक आदेश निकाला कि कार चलाने के लिए हर आदमी के पास ड्राइविंग लाइसेंस होना जरूरी है। अब कोई जज साहब कहें कि मैं तो जज हूं, मुझ पर यह लागू नहीं होगा। इस पर कोर्ट में दस साल मामला चले कि हर आदमी की श्रेणी में जज साहब आएंगे या नहीं।

आरटीआई एक्ट में स्पष्ट परिभाषा के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने 14 साल तक खुद को आरटीआई से बाहर रखने का प्रयास किया। दिल्ली निवासी सुभाषचंद्र अग्रवाल ने सूचना मांगी थी कि सुप्रीम कोर्ट के जज अपनी संपत्ति की सूचना जमा करते हैं अथवा नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने सूचना नहीं दी, तो मामला केंद्रीय सूचना आयोग गया। वर्ष 2009 में आयोग ने सुप्रीम कोर्ट का तर्क मानने से मना कर दिया।

आयोग के इस फैसले को मानकर सुप्रीम कोर्ट अपने बड़प्पन का परिचय दे सकता था, लेकिन संसद के कानून से अलग दिखने की जिद में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली कोर्ट में अपील कर दी। सिंगल बेंच में हार हुई। तब पुनर्विचार याचिका दाखिल हुई। इस तीन सदस्यीय बेंच में भी सुप्रीम कोर्ट को राहत नहीं मिली। तक खुद सुप्रीम कोर्ट में अपने ही मामले की सुनवाई हुई। पहले तीन संदस्यीय बेंच में, फिर पांच सदस्यीय संवैधानिक बेंच में।

खुशी की बात है कि 13 नवंबर को इस बेंच ने सुप्रीम कोर्ट को आरटीआई के दायरे में मान लिया। इस खबर पर हर भारतीय ने गर्व किया। उसने भी, जिसे कोई सूचना नहीं चाहिए। किन जज साहब के पास कितनी संपत्ति है, यह जानने में शायद ही किसी की दिलचस्पी हो, लेकिन सारे मंत्री, सांसद, विधायक, अफसर ऐसी सूचना सार्वजनिक करते हैं। सुप्रीम कोर्ट इससे मना करे, तो यह नागरिक समाज के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया था।

अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने खुद को आरटीआई के दायरे में मान लिया है, शायद ही कोई नागरिक ऐसी कोई सूचना मांगेगा, जिससे माननीय सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा पर कोई आंच आती हो। भारत का लोकतंत्र काफी परिपक्व हो चुका है। सूचना कानून के 14 साल के इतिहास में इसके दुरुपयोग की इक्का-दुक्का घटनाएं ही होंगी। ज्यादातर नागरिकों ने सूचना के अधिकार का सदुपयोग देश में सुशासन लाने और अपने जायज काम के लिए ही किया है। उम्मीद करें कि सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक आदेश से सूचना कानून के प्रति सम्मान बढ़ेगा। सुशासन की अनिवार्य शर्त है सूचना कानून। बस इसी का नाम है आरटीआई।

(विष्णु राजगढ़िया वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल भोपाल स्थित माखन लाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के तौर पर अध्यापन का काम कर रहे हैं।)

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