(साम्प्रदायिकता भारत के राजनीतिक जीवन में एक विषैला कांटा है। भारत की एकता धर्मनिरपेक्षता पर ही निर्भर है, इसके विपरीत साम्प्रदायिकता और धर्मांधता हमारे राष्ट्र को छिन्न-भिन्न कर देगी: जवाहरलाल नेहरू)
28 मई को नई संसद के कथित उद्घाटन के समय जो कुछ हुआ, वह सत्तर वर्ष के लोकतंत्र के इतिहास में अभूतपूर्व था। जहां एक ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सारी पुरानी परम्पराओं को तोड़कर सर्वोच्च पद पर आसीन जनजाति समाज से आने वाली ‘राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु’ को द़रनिकार करके ख़ुद ही वे सारे काम कर रहे थे, जो राष्ट्रपति को करना चाहिए, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि सारा समारोह देखने से यह प्रतीत हो रहा था कि यह किसी लोकतांत्रिक देश के संसद भवन का उद्घाटन न होकर किसी प्राचीन हिन्दू राजा का राज्याभिषेक हो रहा है। पंडे-पुजारी मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। प्रधानमंत्री का तिलक कर रहे थे।
एक पुरानी स्वर्णजड़ित छड़ी उनको दी गई, जिसे ‘सेंगोल’ कहा जा रहा है; उसके बारे में ऐतिहासिक तथ्य यह है कि पुराने तमिल चोलवंशी राजाओं के राज्याभिषेक के समय वह ब्राह्मण पुजारियों द्वारा वर्तमान राजा को दी जाती थी। वह राजदण्ड का प्रतीक था। उसका अर्थ था कि:- “राजा धर्म के आधार पर शासन करते हुए ब्राह्मणों की रक्षा करेगा।” वास्तव में वह राजतंत्र में धर्म की सर्वोच्चता का प्रतीक था। इसकी तुलना हम ‘तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप एर्दोगान’ से कर सकते हैं, जिन्होंने कट्टरपंथियों को ख़ुश करने के लिए हागिया सोफिया मस्ज़िद : जो पहले एक संग्रहालय था, को 10 जुलाई वर्ष 1920 में संग्रहालय से बदलकर पुनः मस्ज़िद में बदल दिया।
वाइज़ेंटाइन सम्राट कोन्स्टान्टिन के द्वारा वर्ष 537 में सबसे पहले इसे एक चर्च के रूप में निर्मित किया गया। हागिया सोफिया के इतिहास में अगला महत्वपूर्ण बदलाव 1453 में शुरू हुआ, जब तुर्क शासक फतह सुल्तान मेहम ने हागिया सोफिया को मस्जिद में बदल दिया। 1935 में हागिया सोफिया की तक़दीर फिर से बदली, जब मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने नए तुर्की गणराज्य के धर्मनिरपेक्ष आदर्शों को दर्शाने हेतु इसे ‘सभी राष्ट्रों और धर्म के लोगों के लिए खुले संग्रहालय’ में बदल दिया। 1985 में इसे यूनेस्को ने ‘विश्व विरासत स्थल’ घोषित किया गया। अगर तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान ने एक संग्रहालय को मस्ज़िद में बदल दिया, तो संघ परिवार और नरेन्द्र मोदी ने एक पुरानी छड़ी को संग्रहालय से निकलकर संसद भवन में स्थापित कर दिया एवं धर्म आधारित राष्ट्र निर्माण की घोषणा कर दी।
1947 में जब ‘अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन’ ने जवाहरलाल नेहरू को सत्ता हस्तांतरित की, तब यही राजदण्ड तमिलनाडु के एक मठ द्वारा तात्कालीन प्रधानमंत्री को इस पेशकश के साथ दिया गया, कि उसे वे संसद में स्थापित करेंगे। इस विषय पर नेहरू का यह मानना था कि लोकतंत्र में इस सामंती धार्मिक प्रतीक की कोई आवश्यकता नहीं है, इसलिए उसे इलाहाबाद म्यूजियम में रखवा दिया गया।
आज सत्तर वर्ष बाद नये संसद के उद्घाटन के समय म्यूजियम से उसे निकालकर साधु-संतों द्वारा मंत्रोच्चार विधि से प्रधानमंत्री को सौंपा गया, जिसे उन्होंने स्पीकर की कुर्सी के बगल में स्थापित कर दिया। इस सांकेतिक परिघटना पर भाजपा समर्थक और विरोधी दोनों यह कह रहे हैं कि “यह हिन्दू राष्ट्र (हिन्दू राजतंत्र) की ओर बढ़ाया गया पहला और महत्वपूर्ण क़दम है।” क्या पंद्रह अगस्त 1947 को संसद भवन में जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिया गया ‘नियति से साक्षात्कार’ नामक भाषण में भारतीय जनमानस को धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और समानता के मूल्यों की बात सत्तर साल के अन्दर तिरोहित करके संविधान को बिना बदले ही हिन्दू राष्ट्र की नींव डाल दी गई। इसके लिए हमें भारतीय संविधान तथा यूरोपीय समाजों का भी अध्ययन करना पड़ेगा, जहां पहली बार धर्मनिरपेक्षता का जन्म हुआ।
भारत में संविधान की प्रस्तावना में 42वें संविधान संशोधन के बाद ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ा गया, लेकिन ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का प्रयोग भारतीय संविधान के किसी भाग में नहीं किया गया। वैसे संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद मौज़ूद हैं, जो भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र साबित करते हैं, मसलन ‘अनुच्छेद 25 से 28 के बीच वर्णित धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार’। इसके अलावा भारतीय धर्मनिरपेक्षता धर्म और राज्य के बीच संबंध विच्छेद पर ज्यादा ज़ोर नहीं देती, बल्कि अन्तर्धार्मिक समानता और सर्व धर्म समभाव पर अधिक ज़ोर देती है, इसका सीधा मतलब यह निकलता है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता धर्म से केवल एक सैद्धांतिक दूरी की बात करती है। दूसरी ओर पश्चिमी देशों की धर्मनिरपेक्षता में करीब-करीब राज्य को धर्म से पूरी तरह से अलग कर लिया गया है।
जवाहरलाल नेहरू अपने निजी जीवन में नास्तिक और पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष थे, लेकिन वे भी भारत में पश्चिम देशों की तरह की धर्म निरपेक्षता की नीति लागू नहीं कर पाए, इसके अनेक कारण थे। इसमें सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि कांग्रेस में भी हिन्दूवादी तत्वों का बहुमत था। नेहरू जी के विरोध के बावज़ूद देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद नवनिर्मित सोमनाथ मन्दिर का उद्घाटन करने चले जाते हैं अथवा उन्हीं के कार्यकाल में अयोध्या में रात को बाबरी मस्जिद की दीवार तोड़कर उसमें भगवान की मूर्तियां रखवा दी गईं, लेकिन वे उसे हटवा न सके। महिलाओं को अधिकार देने वाला ‘हिन्दूकोड बिल’ भी वे बहुत मुश्किल से पास करवा पाए, क्योंकि कांग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेता ही इसका विरोध कर रहे थे।
सर्व धर्म समभाव की नीति ऊपर से देखने पर बहुत अच्छी लगती है कि इसमें सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान किया जाता है, लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं होता है, क्योंकि इसमें बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा मिलता है। उदाहरण के लिए:- पुल या सरकारी इमारतों आदि के उद्घाटन में नारियल तोड़ना, हवन-पूजन का आयोजन करना। राजनेता सरकारी खर्चे पर धार्मिक स्थलों का दौरा करते हैं। भारत में हिन्दू धार्मिक समुदायों की संख्या अधिक होने के कारण चारों ओर सरकारी काम-काज में उसी के प्रतीक दिखने लगते हैं। भाजपा या नरेन्द्र मोदी ने इसी अवधारणा को अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुँचा दिया।
वास्तव में सच्ची धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा क्या है? इसके लिए हमें मध्ययुगीन यूरोपीय इतिहास को देखना होगा, जहां चर्च और राजसत्ता के बीच गहरा गठजोड़ था। कहीं-कहीं तो यह राजसत्ता पर चर्च के वर्चस्व के रूप में देखने में आता है। वेटिकन में बैठे पोप का इतना प्रभाव था कि वह राजाओं को गद्दी पर बैठाता-उठाता था। राजाओं के राज्याभिषेक में भी पोप की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी, वही राजा को राजमुकुट पहनाता था। ईसाइयत की मूल अवधारणा के विपरीत पोप ने यह अवधारणा फैलाई कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है तथा उसके ख़िलाफ़ विद्रोह करने का मतलब है ईश्वर के ख़िलाफ़ विद्रोह करना।
यही कारण है कि अनेक लोग; जिन्होंने चर्च की इस अवधारणा का विरोध किया या विज्ञानवाद प्रसार किया, उन्हें चर्च की आज्ञा से ज़िन्दा जला दिया गया या उनकी हत्या कर दी गई। उन्हीं में एक महत्वपूर्ण नाम ‘ब्रूनो’ का भी था, जिसे केवल इसलिए वेटिकन के चौराहे पर खम्भे से बांधकर ज़िन्दा जला दिया गया, क्योंकि उसने शोध करके यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि ब्रह्माण्ड का केन्द्र पृथ्वी न होकर सूरज है, जो कि बाइबिल के सिद्धांतों के विपरीत बात थी, यद्यपि आधुनिक समय में चर्च ने इसे अपनी ग़लती मान ली है तथा उसी जगह पर ब्रूनो की एक प्रतिमा भी लगाई गई है।
यूरोप की इस धार्मिक अवधारणा पर सबसे पहले हमला 1779 की फ्रांसीसी क्रांति में हुआ। जहां पर समाज में पादरी और सामंतों का एक मज़बूत गठजोड़ था, इस कैथोलिक बहुल देश में पादरियों का बहुत गहरा प्रभाव जनजीवन पर था। जनता के शोषण में राजा और पादरी दोनों की भूमिका थी। पादरियों के पास बड़ी-बड़ी ज़मींदारियां थीं, इसी के कारण क्रांति के बाद सामंतों के साथ-साथ पादरियों की भी सम्पत्तियों को ज़ब्त कर लिया गया। राजनीति में उनके अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। क्रांति में जिस स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व का उद्घोष किया गया, उसमें धर्मनिरपेक्षता सबसे प्रमुख थी।
यद्यपि आज अमेरिका सहित सारे यूरोप में धर्मनिरपेक्षता की इसी अवधारणा को अपनाया गया है, परन्तु फ्रांस में इसका वास्तविक स्वरूप देखने को मिलता है। कुछ वर्ष पहले पेरिस के बाहरी इलाके में इतिहास के एक शिक्षक की हत्या मुस्लिम कट्टरपंथियों ने कर दी थी, जिस पर यह आरोप था, कि उसने अपनी कक्षा में विवादित मोहम्मद साहब के कार्टून दिखाए थे। ‘सैमुएल पैटी’ नाम के इस शिक्षक की आलोचना से ‘फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों’ ने इंकार कर दिया और उसके कार्टून दिखाने के फ़ैसले का समर्थन किया तथा इस्लामी कट्टरपंथी संगठनों के ख़िलाफ़ कार्यवाही तेज़ कर दी, लेकिन इस्लाम पर मैक्रों के इस बयान पर मुस्लिम देश नाराज़ भी हुए तथा कई देशों में फ्रांस के ख़िलाफ़ प्रदर्शन भी हुए। इस पूरी घटना के बाद ‘लैसिते’ शब्द फ्रांस में काफी चर्चा में था।
‘लैसिते’ फ़्रांसीसी शब्द laity से निकला है, जिसका अर्थ है- आम आदमी या ऐसा शख़्स, जो पादरी नहीं है। लैसिते सार्वजनिक मामलों में फ़्रांस की धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत है, जिसका उद्देश्य धर्म से मुक्त समाज को बढ़ावा देना है।
- इस सोच का विकास फ़्रांसीसी क्रांति के दौरान शुरू हो गया था।
- इस विचारधारा को अमलीज़ामा पहनाने के लिए साल 1905 में एक क़ानून लाया गया। इस क़ानून में धर्म और राज्य को अलग-अलग कर दिया गया।
- आसान भाषा में कहें, तो ये विचार संगठित धर्म के प्रभाव से नागरिकों और सार्वजनिक संस्थानों की स्वतंत्रता को दर्शाता है।
- दरअसल सदियों तक यूरोप के दूसरे देशों की तरह फ़्रांस में भी रोमन कैथोलिक चर्च का बोलबाला रहा है। शासन में चर्च के दबदबे को कम करने के लिए धर्म से मुक्त समाज की अवधारणा विकसित होनी शुरू हुई।
- इसी क्रम में 20वीं शताब्दी के शुरू में लैसिते एक क्रांतिकारी सोच बनकर उभरी, लेकिन इसे राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाने में दशकों लग गए।
- इसे लोगों तक पहुंचाने के लिए राज्य ने एक संस्था बनाई, जिसे फ़्रांसीसी भाषा में ‘ऑब्ज़र्वेटॉइर डे लैसिते’ या ‘धर्मनिरपेक्षता की संस्था’ कहा जाता है।
- इस संस्था की वेबसाइट पर लैसिते की परिभाषा में कहा गया है कि ‘लैसिते’ अंतरात्मा की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
लैसिते को और भी दृढ़ बनाने की कोशिश का मुख्य कारण फ़्रांस और यूरोप में कट्टर इस्लाम का पनपना है। मैड्रिड या लंदन में आतंकवादी हमले हों या फिर डच फ़िल्म निर्माता थियो वैन गॉग की हत्या या हाल ही में पैग़ंबर मोहम्मद के कार्टून को नापसंद करने पर हिंसा और विरोध। इन सभी घटनाओं को फ़्रांस के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर हमले की तरह से देखा जा रहा है। इसके अलावा, जब फ्रांस में सार्वजनिक जगहों पर हिजाब और बुर्क़े पर प्रतिबंध लगाए गए, तो मुसलमानों ने इसे अपने धर्म पर अंकुश की तरह से देखा, जिससे मामला और भी उलझ गया। अगर हम फ्रांस की मौजूदा राजनीतिक ताने-बाने को समझें तो एक तरफ़ यहां इस्लामी कट्टरपंथ में उछाल आया है, तो दूसरी तरफ़ गोरी नस्ल के फ़्रांसीसी समाज में इस्लाम विरोधी विचार बढ़ा है।
- यानी जिस मज़हबी कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ लैसिते को आगे बढ़ाया गया है, वो कट्टरपंथ दोनों तरफ बढ़ता हुआ नज़र आ रहा है।
- ऐसे में न केवल राज्य बल्कि बौद्धिक वर्ग की भूमिका काफी अहम हो जाती है।
- सहिष्णुता एक ऐसी नीति है, जो एक बहुसांस्कृतिक समाज के साथ वास्तव में तालमेल बिठाती है।
वास्तव में फ्रांसीसी धर्मनिरपेक्षता की इस नीति ने भी इसे लागू करने में अनेक प्रश्न खड़े किए हैं, परन्तु आज जिस तरह से न केवल तीसरी दुनिया के देशों में, बल्कि यूरोप और अमेरिका में भी नस्लवाद सहित हर तरह की धार्मिक और जातीय कट्टरता बढ़ रही है। यहां तक कि रूस में भी सत्तर साल के समाजवादी शासन के बाद वहां पर भी आर्थोडॉक्स चर्च की भूमिका तेज़ी से बढ़ रही है, उस समय फ्रांस की इस धर्मनिरपेक्ष नीति का अध्ययन भारत के लिए भी महत्वपूर्ण है। भारत की एकता और अखंड़ता को बचाए रखने के लिए धर्मनिरपेक्षता पहली अनिवार्य शर्त हैं।
(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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