बिहार में फंस गई है कई पार्टी प्रमुखों की प्रतिष्ठा; जीत गए तो बल्ले-बल्ले, हार गए तो सब कुछ साफ़ 

बिहार की 40 लोकसभा सीटों को लेकर बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं। खासकर बीजेपी वाले इस नारे के साथ आगे बढ़ रहे हैं कि अबकी बार चार सौ पार। पहले यह नारा पीएम मोदी ने दिया और फिर बीजेपी वालों के साथ ही गोदी मीडिया ने इस नारे को जनता तक पहुंचाने का बीड़ा उठा लिया। आतंरिक सर्वे की कहानी सामने आयी। बीजेपी समर्थक सभी सर्वे एजेंसियां फिर चार सौ पार वाले नारे को सही साबित करने के लिए राज्यवार सर्वे जनता के सामने परोसने लगीं।

सर्वे ने अपना काम किया फिर गोदी मीडिया ने सर्वे को जनता तक पहुंचाने में जी जान लगा दिया। देश के भीतर अब एक ही नारा चल रहा है अबकी बार चार सौ पार। इस सर्वे में सब कुछ पीएम मोदी के इकबाल को केंद्र में रखा गया, साथ ही केंद्र सरकार की योजना से लाभान्वित होने वाले लोगों को केंद्र में रखा गया। 

उधर एक और सर्वे सामने आया। इस सर्वे में जनता के मिजाज को पढ़ा गया और जमीनी हकीकत को भी परखा गया। जनता कितनी परेशान है और जनता के बीच राहुल गाँधी की कितनी पहुँच बढ़ी है इस बात को केंद्र में रखकर जो सर्वे सामने आया उसके मुताबिक़ बीजेपी को 212 सीटों के पास ही रखा गया है। इस सर्वे को कोई भी गोदी मीडिया आगे नहीं बढ़ा रहा है। कोई बढ़ाए भी तो कैसे ? कोई बढ़ाएगा तो उसका दाना-पानी जो बंद हो सकता है। इन्हीं दो सर्वे को ध्यान में रखकर बिहार की बात की जा सकती है। 

चार सौ पार के सर्वे को आगे बढ़ाने वाले लोग बिहार में एनडीए को 38 सीट दे रहे हैं। कह रहे हैं कि पिछली बार 40 में से 39 सीट एनडीए को मिली थी तो इस बार 38 सीट एनडीए के पाले में जायेगी। यानी इस बार भी कोई सीट न तो राजद को मिलना है न कोई सीट कांग्रेस को मिलेगी। कोई सीट वाम दलों के पास भी नहीं जायेगी। चार सौ पार के सर्वे को स्थापित करने के लिए यह सब किया गया है।

उधर जो सर्वे जानता के मिजाज को पढ़ते हुए और देश के भीतर बदले राजनीतिक माहौल को देखते हुए किये गए हैं और बीजेपी को मात्र 212 सीट देश भर में मिलने की बात की गई है, उसके मुताबिक़ बिहार में बीजेपी को मात्र 9 सीटें दी गई हैं। कौन सर्वे सच होगा और कौन सर्वे झूठा साबित होगा यह सब देखने की बात होगी। लेकिन इतना तो तय है कि इस बार के चुनाव में सबसे ख़राब हालत जदयू की हो गई है। जदयू कोई सीट जीत पाती भी है या नहीं या फिर चार पांच सीटों तक सिमट जाती है यह सब चार जून को ही पता चल पायेगा। 

लेकिन आज हम जिस बिंदु पर बहस कर रहे हैं वह है बिहार की कई पार्टियों के प्रमुखों की प्रतिष्ठा कैसे दांव पर फंस गई है। अगर ये पार्टियां चुनाव जीत जाती हैं तो संभव है कि उनकी पार्टी बच भी जाए और परिणाम उनके खिलाफ चले गए तो अगले साल विधान सभा चुनाव लड़ने लायक भी वे शायद ही बच पाए। 

तो कहानी यही है कि जो पार्टी प्रमुख अपने दलों को चुनावी मझधार से बाहर निकालने में लगे हुए हैं वे खुद भी भंवर में फंस गए हैं। ऐसे सभी नेताओं की साख दांव पर जा लगी है। अगर इनके दांव सफल हो गए तो सब कुछ ठीक है और दांव उलटा पड़ गया तो पार्टी भी जाएगी और खुद भी अन्धकार में डूब सकते हैं। 

बानगी के तौर पर उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक मोर्चा यानी रालोमो को ही ले सकते हैं। उपेंद्र कुशवाहा इस बार बिहार की काराकाट सीट से लड़ रहे हैं। पिछली बार यही कुशवाहा दो सीटों काराकाट और उजियारपुर से  चुनाव लड़े थे। दोनों जगह से वे हार गए। हारने के बाद भी वे महागठबंधन से जुड़े रहे । खूब बयानबाजी करते रहे। लालू यादव और कांग्रेस के साथ बैठकर नीतियां बनाते रहे लेकिन चुनाव आने से पहले ही वे पिछले साल ही फिर से पलटी मारते हुए एनडीए के साथ चले गए। नीतीश कुमार को खूब कोसते रहे, आज कुशवाहा नीतीश के साथ हैं। इस बार उनका भविष्य दांव पर लगा हुआ है।

उनको घेरने के लिए इंडिया गठबंधन ने बड़ा दांव खेल है। कुशवाहा के खिलाफ मजबूत उम्मीदवार को उतारा गया है। कुशवाहा बेहद परेशान हैं। बिहार में इस बात की चर्चा चल रही है कि अगर कुशवाहा इंडिया के साथ रहते तो शायद काराकाट की सीट को इस बार जीत जाते लेकिन अब वैसा कुछ नहीं है। काराकाट में भी अब कुशवाहा का विरोध किया जा रहा है। इस बार कुशवाहा जीत गए तो उनकी पार्टी बच भी सकती है और हार हो गई तो वे खुद भी पैदल होंगे और उनकी पार्टी कहाँ जाएगी कहा नहीं जा सकता। 

कुशवाहा की तरह ही जीतन राम मांझी की स्थिति है। मांझी की पार्टी अभी बिहार सरकार में भी शामिल है। लेकिन माझी को गया सुरक्षित सीट से मैदान में उतारा गया है। माझी का मुकाबला इस बार इंडिया गठबंधन में राजद नेता कुमार सर्वजीत से है। हालांकि पिछले चुनाव में भी मांझी गया सीट से चुनाव लड़े थे लेकिन तब एनडीए उम्मीदवार विजय कुमार से वे हार गए थे। इस बार माझी एनडीए से उम्मीदवार हैं। हालत ये है कि मांझी के खिलाफ भी लोग खूब बोल रहे हैं। पिछले चुनाव में जिन लोगों ने उन्हें वोट डाला था अबकी बार वे राजद के साथ चले गए हैं।

मांझी लोगों के बीच बहुत से बयान दे रहे हैं और गया को आगे बढ़ाने की बात कर रहे हैं लेकिन मांझी की बातों पर अब कोई यकीन नहीं कर रहा। खबर के मुताबिक़ बीजेपी के लोग भी इस बात को कहते हैं कि मांझी की जीत कोई जरूरी नहीं है। अगर वे हार भी जाते हैं तो क्या होगा। छोटी पार्टियां बिहार की राजनीति में किसी बोझ से कम नहीं। एनडीए के भीतर भी माझी को लेकर कोई बड़ी चिंता नहीं है। ऐसे में माझी अगर जीत जाते हैं तो उनकी पार्टी हम अगले साल विधान सभा चुनाव जीतने लायक हो सकती है और ऐसा नहीं हुआ तो माझी की राजनीति के साथ ही हम की राजनीति क्या होगी यह कोई नहीं सकता। 

इस चुनाव में सबसे ख़राब स्थिति तो मोदी के हनुमान कहे जाने वाले चिराग पासवान की हो गई। यह बात और है कि चिराग पासवान इस बार हाजीपुर सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। इस सीट पर पहले उनके चाचा पशुपति पारस चुनाव जीतकर आये थे और फिर मोदी मंत्रिमंडल में शामिल हो गए थे। लेकिन इस बार सब कुछ पलट गया है। चिराग का सामना इस बार इंडिया गठबंधन से है। अब दावे के साथ चिराग नहीं कह सकते कि उनकी जीत निश्चित ही है।

उनकी हार हो जाए इसके लिए उनके चाचा भी पूरी तैयारी के साथ लगे हुए हैं। अगर चिराग की हार हो जाती है तो उनकी पार्टी का बचना मुश्किल हो सकता है। चिराग पासवान बिहार के उभरते नेता हैं। युवा हैं और बेहतर समझ भी रखते हैं लेकिन इस बार उनकी जीत-हार से उनकी पार्टी को प्रभावित होना है। उनके चार अन्य साथ जो चुनाव लड़ रहे हैं चुनाव के बाद उनकी स्थिति क्या होगी इस पर भी कई सवाल उठ रहे हैं। 

बिहार की राजनीति में पप्पू यादव की अपनी हैसियत है। वे भले ही इधर काफी समय से चुनाव नहीं जीत पाए हैं लेकिन पूर्णिया से लेकर सहरसा, सुपौल और मधेपुरा में उनकी अपनी पहचान है और उनके लोग भी हैं। बदलते समीकरण में उनकी पार्टी जनाधिकार पार्टी कांग्रेस में विलय कर गई है। लेकिन पप्पू यादव को पूर्णिया सीट नहीं मिल पायी। वे पूर्णिया से चुनाव लड़ना चाहते थे।

हालांकि अब वे निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर उसी पूर्णिया से मैदान में हैं और राजद नेता बीमा भारती और बीजेपी उम्मीदवार के खिलाफ ताल ठोक रहे हैं। बड़ी बात तो यह है कि वे भले ही निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन उनके हाथ में कांग्रेस का झंडा है। अगर पप्पू यादव इस चुनाव को जीत जाते हैं तो बिहार में बड़ी राजनीतिक घटना हो सकती है और अगर वे चुनाव हर गए तो उनकी राजनीति भी संकट में फंस सकती है। 

उधर, विकासशील इंसान पार्टी के महागठबंधन में शामिल होने और राजद कोटे से तीन सीट – गोपालगंज, मोतिहारी और झंझारपुर वीआईपी को मिलने के बाद माना जा रहा है कि पार्टी के प्रमुख मुकेश सहनी भी खुद चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतर सकते हैं। हालांकि पार्टी ने अब तक अपने उम्मीदवारों की आधिकारिक घोषणा नहीं की है।

अगर मुकेश सहनी भी मैदान में उतरते हैं तो उनके भविष्य की भी परीक्षा हो सकती है। कहा जा रहा है कि जिन तीन सीटों पर मुकेश सहनी की पार्टी को चुनाव लड़ना है, वे सभी सीटें काफी जटिल हैं। ऐसे में मुकेश सहनी की पार्टी चुनाव में कुछ बेहतर परफॉर्मेंस करती है तो उनके दिन लौट सकते हैं वरना उनकी पार्टी भी रसातल में जा सकती है।

(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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