झारखंड। आजादी के बाद राज्य में कितना विकास हुआ यह उतना उल्लेखनीय नहीं है, जितना कि अलग राज्य गठन के बाद हुए विकास का। आजादी के बाद से ही एकीकृत बिहार में सरकार द्वारा छोटानागपुर क्षेत्र के विकास को लेकर उदासीनता के आरोप लगते रहे हैं, चाहे सरकार किसी की भी रही हो। सभी ने इस क्षेत्र की खनिज सम्पदाओं का दोहन किया।
इसे लेकर क्षेत्र के लोग आन्दोलित रहे, अलग राज्य की मांग की गई। अलग राज्य की अवधारणा थी कि क्षेत्र का और इस क्षेत्र में बसने वाले आदिवासी समुदाय का विकास होगा। यही कारण रहा है कि अलग राज्य का नामकरण झारखंड के रूप में उभरकर सामने आया।
अलग राज्य की मांग को लेकर लगातार आन्दोलन हुए और अंततः 15 नवंबर 2000 को बिहार से झारखण्ड को अलग राज्य का दर्जा हासिल हो गया। दोहराने की जरूरत नहीं है 22 साल के इस राज्य में 11 मुख्यमंत्री हुए, जिसमें एक रघुवर दास को छोड़कर बाकी दस मुख्यमंत्री आदिवासी समुदाय से हुए बावजूद आज आम आदिवासियों की स्थिति यथावत है।
झारखंड के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार की जनाकांक्षी योजनाओं की घोषणाएं आज केवल डपोरशंखी घोषणाएं साबित हो रही हैं। जंगल पहाड़ों की तलहटी में बसे गांवों की स्थिति बद से बदतर तो हैं। जिला मुख्यालय व प्रखंड मुख्यालय से सटे गांवों की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है।
अगर इन क्षेत्रों में विकास की कोई तस्वीर नजर भी आती है तो वह केवल प्रशासनिक मिलीभगत से क्षेत्र के कुछ दलालों के माध्यम से कमीशनखोरी के लिए होता है। जैसे पेयजल के लिए ‘जलमीनार’, रौशनी के लिए ‘सौर उर्जा’ की व्यवस्था या बिजली के ट्रांसफर लगाना इत्यादि, जो बाद में “चूं चूं का मुरब्बा” साबित होता है। मतलब जलमीनार जल विहीन, सौर उर्जा या ट्रांसफर बिजली विहीन होकर ‘शोभा की वस्तु’ के रूप में ‘निठल्ले’ खड़े रहते हैं।
धनबाद का कतरासगढ़ कभी राजवाड़ा हुआ करता था। इस राजवाड़े के अंतिम राजा हुए पूर्णेदु नारायण सिंह थे, जो राजवाड़ा खत्म होने के बाद कतरास विधानसभा क्षेत्र के विधायक चुने गए।
इसी क्षेत्र का गांव है देवघरा जहां आजादी के बाद और झारखंड अलग राज्य बनने के बाद भी आज इस गांव में पीने के पानी की इतनी किल्लत यह है कि दिन ही नहीं यहां के लोग महिलाएं, पुरुष और बच्चे पानी के लिए रात में भी जागकर डांड़ी से पानी ढोने का काम करते हैं। यह हाल हर मौसम में रहता है। खेत के निचले हिस्से में एक छोटा सा गड्ढा बनाया जाता है जिसे डांड़ी कहते हैं।
झारखण्ड में पानी उपलब्धता के लिए डांड़ी बनाने का यह बहुत पुराना सिस्टम है, जिसका उपयोग आज भी सुदूर गांवों में हो रहा है। कहना ना होगा कि विकास का यह विद्रूप चेहरा राजनीतिक बतोलेबाजी और सरकार की डपोरशंखी योजनाओं की असली तस्वीर है।
पीने के पानी के लिए तीन किलोमीटर की दूरी तय कर जंगल-झाड़ियों के बीच से रास्ता बनाते हुए ऊंची-नीची पगडंडियों को पार करते हुए एक बहते हुए नाले के पास के एक खेत में पहुंचना होता है। जहां दो डांड़ी बना हुआ है जिससे गांव की महिलाएं, पुरुष और बच्चे बारी-बारी से एक-एक कर पीने का पानी निकालते हैं और साथ लाए बर्तन में भरते हैं। ज्यादातर इस काम को महिलाएं करती हैं। किसी-किसी परिवार की महिलाएं रात में पानी भर लेने का काम इसलिए कर लेती हैं ताकि सुबह वे और उनके घर के पुरूष अपने दैनिक के लिए समय पर निकल सकें।
इस गांव की सबसे बड़ी समस्या पानी की इस किल्लत के निराकरण के लिए आजतक न तो प्रशासनिक और न ही पंचायत स्तर से कोई पहल हुई है। जबकि गांव की कुल आबादी लगभग ढाई हजार है और वोटरों की कुल संख्या लगभग 1800 है। लोग वोट देते हैं और सरकारें बनती हैं लेकिन इनकी दशा वहीं की वहीं यथावत है।
गांव के राजेंद्र बेसरा बताते हैं कि “यह गांव लगभग 500 साल पुराना है। बेसरा बताते हैं कि जबसे उन्होंने होश संभाला है तब से पानी लाने की इसी क्रिया को देखते आ रहे हैं। वहीं गांव की महिलाएं कजरी देवी, बेला मझियाइन और देवंती मझियाइन भी बताती हैं कि वे भी बचपन यही देखती आईं हैं कि इस गांव के लोग यहीं से पानी भरते आ रहे हैं।
बेला मझियाइन बताती है कि जिस खेत में डांड़ी बना हुआ है वहां की मिट्टी इतनी चिकनी है कि बराबर फिसलन का डर बना रहता है। हम महिलाएं बहुत मुश्किल से पानी निकालने का काम करती हैं।
ग्रामीणों ने बताया कि यहां पानी का स्तर काफी ऊपर है। डांड़ी की गहराई लगभग चार फीट और चौड़ाई डेढ़ से दो फीट है। कुछ फीट डांड़ी खोदने पर पानी स्वयं रिसने लगता है। यहां पानी की कमी नहीं है, लेकिन पानी लेने के लिए उचित व्यवस्था और साधन नहीं है।
गांव की कई महिलाओं ने बताया कि गांव के कुछ पैसे वाले लोगों ने अपने घर में पीने का पानी की व्यवस्था कर ली है। लेकिन हम जैसे गरीबों का कोई नहीं है। कजरी देवी व अन्य महिलाओं ने बताया कि बरसात में बहुत दिक्कत होती है। ओलावृष्टि होने पर तो पानी भरने के रास्ते में छिपने की भी जगह नहीं मिलती।
ग्रामीणों ने बताया कि 15 साल पहले स्थानीय जनप्रतिनिधि ने अपने फंड से एक कुंआ खुदवाया था लेकिन वह कुछ ही दिनों बाद दलदल का रूप ले लिया।
दसवीं की परीक्षा पास कर चुकी लक्ष्मी कुमारी बताती है कि खराब रास्तों के कारण कभी-कभी फिसल कर गिर जाते हैं। सिर पर रखा पानी से भरा बर्तन भी गिर जाता है। इसकी वजह से बर्तन भी चिपटा हो जाता है।
धर्माबांध पंचायत की महिला मुखिया के पुत्र अनूप रवानी ने कहते हैं कि समस्या की जानकारी तो है लेकिन मुखिया का फंड बहुत ही कम होता है, उतने फंड में काम चलाना मुश्किल है।
उन्होंने कहा कि जिला परिषद की बैठक में बस्ती से डांड़ी तक सड़क निर्माण कराने एवं डांड़ी के बगल में ही डीप बोरिंग कराकर पाइपलाइन से गांव तक इस पानी को पहुंचाने की मांग रखी जाएगी।
(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं।)