प्रतिरोध के अधिकार पर अदालत ने भी लगाई मुहर, दो यूएपीए आरोपियों को मिली जमानत

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राष्ट्रवादी मोड के बजाय संविधान सम्मत और कानून पर चलने वाली अदालतें न्याय करती हैं और ऐसी व्यवस्था देने से नहीं पीछे हटतीं, जिसमें सरकार और सत्तारूढ़ दलों के लिए अप्रिय स्थिति उत्पन्न हो। ऐसा ही आदेश कोच्चि की एक विशेष एनआईए अदालत ने दिया है। केरल पुलिस द्वारा 10 महीने पहले एनआईए को सौंपे गए दो छात्रों को जमानत देते हुए, कोच्चि की एक विशेष एनआईए अदालत ने कहा कि माओवादी साहित्य को अपने पास रखने, सरकार-विरोधी प्रदर्शनों में उपस्थित रहने या मजबूत राजनीतिक विश्वासों को रखने मात्र से किसी व्यक्ति को आतंकवादी गतिविधि में शामिल होना नहीं कहा जा सकता है।

ताहा फजल और अल्लान शुएब पर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत आरोप लगाए गए थे। पुलिस और एनआईए दोनों ने कहा था कि वे प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) से संबद्ध थे। उन्हें कोच्चि की एक विशेष एनआईए अदालत ने बुधवार, 9 सितंबर को जमानत दे दी। एनआईए जज अनिल के भास्कर ने अपने आदेश में कहा कि अभियोजन पक्ष के संगठन के साथ अपने संबंध को साबित करने के लिए ठोस सुबूत नहीं दे सका।

न्यायाधीश भास्कर ने कहा कि प्रतिरोध करने का अधिकार संवैधानिक रूप से सही है। उन्होंने कहा कि सरकार की नीतियों और फैसलों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन, भले ही यह गलत कारण के लिए हो, इसे देशद्रोह या इरादतन कृत्य या अलगाववादी कृत्य नहीं कहा जा सकता है। अदालत ने कहा कि माओवादी साहित्य और वर्ग संघर्ष, या यहां तक कि माओवादी होने के नाते पढ़ना ‘अपराध नहीं है’, हालांकि यह ‘हमारी संवैधानिक राजनीति’ के साथ सिंक्रनाइज़ नहीं है। किसी व्यक्ति की राजनीतिक मान्यताओं को केवल तभी प्रतिकूल माना जा सकता है जब ‘हिंसा भड़काने के लिए अभियुक्तों की ओर से कोई सकारात्मक कार्य’ किया गया  हो।

प्रतिरोध करने का अधिकार संवैधानिक रूप से गारंटीकृत अधिकार है। यह अच्छी तरह से तय है कि ‘कानून द्वारा स्थापित सरकार’ उन लोगों से सर्वथा अलग है जो प्रशासन चलाने में शामिल हैं। सरकार की नीतियों और फैसलों के खिलाफ एक विरोध प्रदर्शन को, भले ही यह गलत कारण से हो, इसे देशद्रोह या देशद्रोह के समर्थन में जानबूझ कर किए गए कार्य के रूप में नहीं कहा जा सकता है।

न्यायाधीश भास्कर ने कहा कि कम्युनिस्ट विचारधारा, माओवाद, वर्ग संघर्ष आदि पर पुस्तकों को रखने मात्र से आरोपियों के खिलाफ कुछ भी प्रतिकूल साबित नहीं होता है। अदालत ने कहा, “यह तभी प्रतिकूल होता है जब हिंसा को भड़काने के लिए आरोपियों की ओर से कोई सकारात्मक कार्रवाई की गई हो। प्रथमदृष्टया इस संबंध में ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है कि आरोपियों  ने इस तरह का कोई कृत्य किया है। न्यायालय ने यह भी विशेष रूप से उल्लेख किया कि एनआईए ने चार्जशीट से यूएपीए (जो प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता से संबंधित है) की धारा 20 को हटा दिया है। कोर्ट ने कहा कि यहां तक कि एनआईए के पास भी ऐसा मामला नहीं है कि आरोपी माओवादी संगठनों के सदस्य हैं।

एनआईए की अदालत ने कड़ी शर्तों के तहत माओवादियों से कथित संबंधों के आरोप में गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत पिछले साल नवंबर में गिरफ्तार किए गए दोनों छात्रों ताहा फजल और अल्लान शुएब को जमानत दी और दोनों को हर महीने के पहले शनिवार को अपने संबंधित पुलिस थाने में पेश होने, अपना पासपोर्ट जमा कराने और माओवादी सगंठनों से किसी भी तरह कोई संपर्क न करने का निर्देश दिया है। अदालत ने एक-एक लाख रुपये के बॉन्ड पर जमानत देने के साथ ही करीबी रिश्तेदारों को उनका जमानतदार बनने का निर्देश भी दिया है। दोनों आरोपी न्यायिक रिमांड पर थे।

फजल और शुएब क्रमशः पत्रकारिता और कानून के छात्र और माकपा की शाखा समिति के सदस्य हैं। उन्हें पिछले साल दो नवंबर को कोझिकोड से गिरफ्तार किया गया था। वाम शासित राज्य में उनकी गिरफ्तारी की व्यापक तौर पर आलोचना की गई थी। माओवाद से कथित संबंध की बात सामने आने के बाद केरल में माकपा ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया था।

केरल पुलिस की विशेष टीम ने उन्हें गिरफ्तार किया था। इसके बाद उन्हें एनआईए के सुपुर्द कर दिया गया था। लगभग 10 महीने बाद मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) से जुड़े कोझिकोड के दोनों छात्रों को बुधवार को एनआईए की अदालत ने कड़ी शर्तों के साथ जमानत दे दी। पुलिस ने उनके पास से नक्सली पर्चे बरामद किए थे। इनमें जम्मू-कश्मीर में केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए कदम की निंदा की गई थी।

इसके पहले केरल उच्च न्यायालय ने 27 नवंबर 2019 को सत्तारूढ़ माकपा के दोनों छात्र कार्यकर्ताओं फजल (24) और शुएब (20) की जमानत याचिका खारिज कर दी थी। इन दोनों को गैरकानूनी गतिविधियां निरोध कानून (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किया गया था। उच्च न्यायालय ने पुलिस की ओर से सौंपे गए उन साक्ष्यों को स्वीकार कर लिया है, जिसमें यह साबित करने का प्रयास किया गया है कि गिरफ्तार छात्रों के संबंध माओवादियों के साथ हैं। इसी आधार पर दोनों की जमानत याचिका खारिज की गई थी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

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