पिछले दस-11 सालों में, जब से नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने हैं, सुप्रीम कोर्ट में एक दो नहीं, जितने भी सीजेआई बने हैं, सभी कहीं न कहीं या तो मोदी के ही मन की बात आगे बढ़ाते रहे हैं या सरकार के साथ खड़े नजर आये हैं। यह बात अब बाकायदा इंटरनेशनल रिसर्च रिपोर्टों में भी सामने आने लगी हैं। कायदे कानून के इलाके में दुनिया के सबसे सम्मानित पब्लिकेशनों में से एक है ‘इंटरनेशनल जर्नल ऑफ कॉन्सटीटयूशनल लॉ’।
यह जर्नल अमेरिका के न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ लॉ के सहयोग से प्रकाशित होता रहा है। इसी में रेहान अबेरत्ने और सुरभि करवा की इसी महीने एक रिसर्च पब्लिश हुई है जो स्टेप बाई स्टेप बताती है, बल्कि यह साबित करती है कि कैसे पिछले दस सालों में सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई बनने वाले लोग मोदी के आगे झुक गए।
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया (एससीआई) लंबे टाइम से अपनी कॉन्स्टिट्यूशनल गार्जियन की रोल को “सिकुड़ने” की समस्या से जूझ रहा है, क्योंकि उसका डॉकेट ओवरलोड है और वो अपील कोर्ट का रोल भी निभाता है। 2010 से 2015 तक की सारी ओपिनियन्स की स्टडी में पता चला कि कोर्ट के सिर्फ 10% से कम केस ह्यूमन राइट्स या मार्जिनलाइज्ड ग्रुप्स के इंटरेस्ट से जुड़े थे। हाल के सालों में, कोर्ट-जिसे कभी दुनिया का सबसे पावरफुल कोर्ट कहा जाता था-ने पॉलिटिकली चार्ज्ड कॉन्स्टिट्यूशनल मैटर्स पर फैसला देने से सिस्टमैटिकली बचना शुरू कर दिया।
कुछ केस में, सुप्रीम कोर्ट ने कॉन्स्टिट्यूशनल इम्पॉर्टेंस के मैटर्स को सुनने से मना कर दिया। मिसाल के लिए, कोर्ट ने सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट, 2019 की कॉन्स्टिट्यूशनल वैलिडिटी को चैलेंज करने वाली पिटीशंस पर चुप्पी साध ली। इस एक्ट ने पहली बार रिलीजन को इंडियन सिटिजनशिप पाने का साफ क्राइटेरिया बनाया, जिसमें हिंदुओं को मुस्लिम्स और क्रिश्चियन्स से प्रायोरिटी दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट की कॉन्स्टिट्यूशनैलिटी को चैलेंज करने वाली रिट पिटीशंस को सुनने से बचकर इन इश्यूज से किनारा कर लिया।
उसी समय , सुप्रीम कोर्ट ने एग्जीक्यूटिव की तरह काम करते हुए असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) को तेजी से आगे बढ़ाया। नतीजे में, असम में लाखों लोगों की सिटिजनशिप छिन गई, और कई को इंडिया के सबसे बड़े डिटेंशन सेंटर में डाल दिया गया, जो “इलीगल माइग्रेंट्स” के लिए है।
सुप्रीम कोर्ट ने उन मैटर्स को भी टाला, जिन्हें जल्दी से डील करना चाहिए था। मिसाल के लिए, हेबियस कॉर्पस रिट्स, जो पहले प्रायोरिटी पर सुनी जाती थीं, उन्हें अनसुना छोड़ दिया गया। इसी तरह, अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट, 1967 और सेडिशन लॉ जैसे ओवरब्रॉड और मनमाने तरीके से अप्लाई होने वाले लॉ को चैलेंज करने वाली पिटीशंस इंडेफिनिटली पेंडिंग हैं।
कुल मिलाकर, 31 जनवरी 2025 तक, 33 कॉन्स्टिट्यूशनल इम्पॉर्टेंस के मैटर्स पांच या उससे ज्यादा जजों की बेंच के सामने पेंडिंग थे। चूंकि सीजेआई के पास इन मैटर्स को लिस्ट करने और बेंच में अलॉट करने की पावर है, ये ऑफिस की इंस्टिट्यूशनल फेलिंग है कि ये अनसुलझे हैं। कुछ और केस में, सुप्रीम कोर्ट ने अहम कॉन्स्टिट्यूशनल इश्यूज पर फैसला टालकर रूलिंग बीजेपी गवर्नमेंट को फायदा पहुंचाया। मिसाल के लिए, इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम, जो 2018 में इनकम टैक्स और इलेक्शन लॉ में अमेंडमेंट्स से शुरू हुई। इसने पूरी तरह अनॉनिमस डोनेशंस को मुमकिन बनाया, और पॉलिटिकल पार्टियों को डोनेशन छुपाने के और तरीके दिए।
छह साल बाद, 2024 में, सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार इस स्कीम को अनकॉन्स्टिट्यूशनल डिक्लेयर किया और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया को 2019 से सारे इलेक्टोरल बॉन्ड्स की डिटेल देने का ऑर्डर दिया। भले ही ये अच्छा रिजल्ट था, सुप्रीम कोर्ट को ये केस पहले डिसाइड करना चाहिए था। पिटीशन 2018 में फाइल हुई थी, और कोर्ट ने 2019 में नेशनल इलेक्शंस के टाइम इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम पर स्टे देने से मना कर दिया था। नतीजे में, रूलिंग पार्टी को सबसे ज्यादा डोनेशंस मिले, और ऐसा लगता है कि उन्हें टैक्स अथॉरिटीज से कंपनियों को बचाने और गवर्नमेंट कॉन्ट्रैक्ट्स देने के लिए क्विड प्रो क्वो पेमेंट्स मिले।
राइट-टू-इन्फॉर्मेशन लॉ में रिग्रेसिव अमेंडमेंट्स को चैलेंज करने वाली कॉन्स्टिट्यूशनल पिटीशंस भी पेंडिंग हैं। ये अमेंडमेंट्स सेंट्रल गवर्नमेंट को इन्फॉर्मेशन कमिश्नर्स की टेन्योर, सैलरी, और अलाउएंसेस कंट्रोल करने की पावर देते हैं। इन अमेंडमेंट्स को बरकरार रखकर, सुप्रीम कोर्ट ने गवर्नमेंट को सेंट्रल इन्फॉर्मेशन कमीशन पर गलत असर डालने दिया, जिसका मिशन पब्लिक के राइट टू इन्फॉर्मेशन को प्रोटेक्ट करना है।
कुछ और केस में, सुप्रीम कोर्ट ने गवर्नमेंट के खिलाफ फैसला दिया, लेकिन बाद में अपने ऑर्डर्स को इम्प्लीमेंट नहीं कराया। मिसाल के लिए, कोर्ट ने “आधार” लेजिस्लेशन को पार्शियली स्ट्राइक डाउन किया, जो एक नेशनल बायोमेट्रिक आइडेंटिफिकेशन सिस्टम है और कॉन्स्टिट्यूशनल राइट्स टू प्राइवेसी और सिटिजनशिप को तोड़ता है। गवर्नमेंट ने इस फैसले को इग्नोर कर दिया और आधार एक्ट में अमेंडमेंट करने वाला एक ऑर्डिनेंस पास कर दिया, जो सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट की कंटेम्प्ट में था। कोर्ट के फैसले के बावजूद, आधार को “मैंडेटरी” बनाया गया है, कई आइडेंटिटी कार्ड्स के साथ, जो प्राइवेसी के राइट को तोड़ता है।
रिसर्च बताती है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट का जो संविधान के रक्षक का रोल है, वो लगातार कम होता जा रहा है। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्राइम मिनिस्टर बनने के बाद से सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों से मुंह मोड़ना शुरू कर दिया, जो संविधान के सामने मोदी सरकार की नफरत भरी नीतियों की वजह से खड़े हुए। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार संविधान से जुड़े अहम मामलों को सुनने से मना कर दिया।
मिसाल के तौर पर, 2019 में सीएए आया, जिसमें पहली बार धर्म के आधार पर नागरिकता देने की बात हुई। हिंदुओं को मुस्लिम और ईसाइयों से ज्यादा तरजीह दी गई। इसकी सही-गलत की जांच के लिए कई याचिकाएं दाखिल हुईं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन पर कोई सुनवाई नहीं की। उसी दौरान सुप्रीम कोर्ट ने असम में एनआरसी को तेजी से लागू करवाया, जैसे कि वो सरकार का हिस्सा हो। इसका नतीजा ये हुआ कि असम में ढेरों लोगों की नागरिकता छिन गई और कई को देश के सबसे बड़े डिटेंशन सेंटर में डाल दिया गया, जहां “गैर-कानूनी प्रवासियों” को रखा जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने उन मामलों को भी टाला, जिन्हें जल्दी सुनना चाहिए था। मिसाल के लिए, हेबियस कॉर्पस याचिकाएं, जो पहले सबसे पहले सुनी जाती थीं, उन्हें अनसुना छोड़ दिया गया। ये याचिकाएं किसी को गलत हिरासत से बचाने के लिए होती हैं। इसी तरह, UAPA और देशद्रोह जैसे सख्त और मनमाने ढंग से इस्तेमाल होने वाले कानूनों को चुनौती देने वाली याचिकाएं भी सालों से लटकी हुई हैं।
31 जनवरी 2025 तक, 33 ऐसे बड़े मामले पांच या ज्यादा जजों की बेंच के सामने पेंडिंग थे, जो संविधान से जुड़े थे। चीफ जस्टिस (सीजेआई) के पास इन मामलों को सुनवाई के लिए लिस्ट करने और बेंच तय करने की ताकत है, लेकिन कोर्ट ने इसमें नाकामी दिखाई, क्योंकि ये मामले अभी तक हल नहीं हुए। कई बार सुप्रीम कोर्ट ने बड़े संवैधानिक मुद्दों पर फैसला टालकर सीधे-सीधे मोदी सरकार को फायदा पहुंचाया। मिसाल के लिए, 2018 में इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम आई, जिसमें इनकम टैक्स और चुनाव कानूनों में बदलाव करके पॉलिटिकल पार्टियों को बिना नाम बताए चंदा लेने की इजाजत दी गई। इससे चंदा देने वालों का नाम छुपाया जा सकता था।
इस स्कीम को 2018 में ही चुनौती दी गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2019 के चुनावों में इसे रोकने से मना कर दिया। छह साल तक BJP ने इस स्कीम से खूब चंदा इकट्ठा किया। 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे गैर-संवैधानिक बताया, लेकिन तब तक BJP सबसे ज्यादा चंदा ले चुकी थी। रिसर्च ऐसी कई खबरों के हवाले से बताती है कि BJP ने चंदे के बदले कंपनियों को टैक्स अथॉरिटीज से बचाने और सरकारी ठेके दिलवाने जैसे फायदे दिए गए।
इसी तरह, राइट-टू-इन्फॉर्मेशन कानून में बदलाव को चुनौती देने वाली याचिकाएं भी लटकी हुई हैं। इन बदलावों से मोदी सरकार को सूचना आयुक्तों का कार्यकाल, उनकी तनख्वाह और भत्ते तय करने की ताकत मिल गई। ये आयुक्त जनता के सूचना के हक की रक्षा करते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन बदलावों को नहीं रोका, जिससे मोदी इन आयुक्तों पर बेजा दबाव डाल रहा है कि सूचना नहीं देनी।
कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के खिलाफ फैसला तो दिया, लेकिन उसे लागू नहीं करवाया। मिसाल के लिए, 2018 में कोर्ट ने आधार कानून के कुछ हिस्सों को रद्द कर दिया, क्योंकि ये प्राइवेसी और नागरिकता के हक को तोड़ता था। लेकिन सरकार ने इस फैसले को नजरअंदाज कर दिया और आधार कानून में बदलाव करके इसे जरूरी बना दिया। आज आधार कई पहचान पत्रों के साथ अनिवार्य है, जो प्राइवेसी के हक को तोड़ता है।
वास्तव में 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्राइम मिनिस्टर बने, जजों की भर्ती को लेकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच टकराव शुरू हो गया। मोदी सरकार ने सबसे पहले एक नई व्यवस्था बनाई, जिसे नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन यानी NJAC कहा गया। इसमें छह लोग थे: सीजेआई समेत सुप्रीम कोर्ट के तीन जज, कानून मंत्री, और समाज से दो बड़े लोग। मकसद था कि जजों की भर्ती में मोदी जी उंगली कर सकें।
लेकिन ये व्यवस्था शुरू होने से पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने इसे 2015 में रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि NJAC जजों की भर्ती में कोर्ट की सबसे बड़ी ताकत छीन लेता है, जो संविधान का बुनियादी हिस्सा है। इस फैसले की खूब आलोचना हुई, क्योंकि न तो इसमें बताया गया कि जजों की भर्ती में कोर्ट का आखिरी फैसला क्यों जरूरी है, और न ही कॉलेजियम की कमियों को ठीक करने की बात हुई। पिछले दिनों राज्यपालों पर आए सुप्रीम फैसले के बाद यह साफ-साफ सामने आया कि NJAC मोदी सरकार की सुप्रीम कोर्ट पर कब्जा करने की एक बड़ी योजना का पहला कदम था। सरकार ने कोर्ट की कमजोरियों का फायदा उठाया, जो हाल के CJI की हरकतों की वजह से सामने आई थीं।
जर्नल में छपी रिसर्च बताती है कि सुप्रीम कोर्ट दो तरह का काम करता है – एक तो ये देश का सबसे बड़ा अपील कोर्ट है, जहां सिविल और क्रिमिनल अपील्स सुनी जाती हैं। दूसरे, ये संविधान से जुड़े बड़े मामलों को भी देखता है, जैसे कि हकमारी की शिकायतें। लेकिन कोर्ट पर काम का बोझ बहुत ज्यादा है।
1950 में सुप्रीम कोर्ट को एडमिशन स्टेज पर करीब 1000 केस मिले थे, जिनमें से 227 की रेगुलर हियरिंग हुई। वहीं 2010 तक सुप्रीम कोर्ट को 70,000 केस मिले थे, जिनमें से 7642 की सुनवाई हुई। इतने ज्यादा केसों की वजह से सुप्रीम कोर्ट कभी पूरी बेंच में नहीं बैठता। इसके जज छोटी-छोटी बेंच में बैठते हैं, ज्यादातर दो-दो जजों की बेंच होती है, और ये बेंच बार-बार बदलती रहती हैं।
इस वजह से किसी केस का नतीजा इस बात पर निर्भर करता है कि उसे कौन से जज सुन रहे हैं। इसीलिए जजों की भर्ती और बेंच का बंटवारा बहुत अहम हो जाता है। मास्टर ऑफ रोस्टर के तौर पर CJI तय करता है कि सुप्रीम कोर्ट की बेंच में कौन से जज होंगे और वो कौन से केस सुनेंगे। संविधान से जुड़े बड़े मामलों के लिए CJI बेंच को अपने हिसाब से बनाता है, और इसके लिए कोई सख्त नियम नहीं हैं।
कुछ रिसर्च में पता चला कि कई CJI ने संविधान से जुड़े बड़े केस अपने पास ज्यादा रखे, कुछ जजों को ऐसे केस से दूर रखा, और अपने पसंदीदा जजों को फायदा दिया। रिसर्च बताती है कि कई CJI ने अपने समय में संविधान से जुड़े बड़े मामलों की बेंच ही नहीं बनाई, जिससे लोगों के बुनियादी हकों की रक्षा कमजोर हुई। मिसाल के लिए, CJI रमना ने अपने समय में सिर्फ एक संवैधानिक बेंच बनाई, जबकि 53 ऐसे केस पेंडिंग थे। CJI बोबड़े के समय में तो कोई संवैधानिक मामला ठीक से सुना ही नहीं गया और बोबड़े हार्ले डेविडसन पर सवार होकर फुर्र हो लिए।
कभी-कभी CJI वकीलों की जल्दी सुनवाई की गुजारिश पर केस को फटाफट लिस्ट कर देता है। मिसाल के तौर पर, 2019 में सुप्रीम कोर्ट की एक महिला कर्मचारी ने शिकायत की कि CJI रंजन गोगोई ने उसका यौन उत्पीड़न किया। इस केस को CJI ने खुद एक बेंच बनाकर सुना, वो भी शनिवार को, जो कोर्ट की छुट्टी का दिन होता है। एक बड़े सरकारी वकील की गुजारिश पर ये बेंच बनाई गई। हैरानी की बात ये थी कि CJI गोगोई खुद इस केस में आरोपी थे, फिर भी उन्होंने केस सुना और कर्मचारी की शिकायत पर टिप्पणी की। इस तरह की हरकत से सुप्रीम कोर्ट की साख पर सवाल उठे।
अगस्त 2017 में जब दीपक मिश्रा CJI बने तब कई बड़ी घटनाएं हुईं। एक वकीलों के ग्रुप ने सुप्रीम कोर्ट में शिकायत की कि उड़ीसा हाई कोर्ट के एक पुराने जज ने सुप्रीम कोर्ट में दो केस जितवाने के लिए गलत तरीके अपनाए थे। इन दोनों केसों में मिश्रा बेंच का हिस्सा थे। ग्रुप ने इसकी जांच की मांग की। जस्टिस चेलमेश्वर ने इस केस को पांच जजों की बेंच को भेजा, जिसमें CJI मिश्रा और चार सीनियर जज होने चाहिए थे। लेकिन मिश्रा ने मास्टर ऑफ रोस्टर की ताकत का इस्तेमाल करके केस को दूसरी बेंच में ट्रांसफर कर दिया, जिसमें वो खुद तो थे, लेकिन चार सीनियर जजों को हटा दिया गया। इस नई बेंच ने शिकायत को खारिज कर दिया।
ये साफ गलत था, क्योंकि मिश्रा को इस केस से खुद को अलग करना चाहिए था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसके बाद जनवरी 2018 में चार सीनियर जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके मिश्रा की आलोचना की। जस्टिस चेलमेश्वर, जो सबसे सीनियर थे, ने कहा कि ये सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार हुआ है। उन्होंने कहा कि कोर्ट का कामकाज ठीक नहीं चल रहा और कई गलत चीजें हो रही हैं।
इन जजों ने मिश्रा को एक चिट्ठी भी लिखी, जिसमें कहा गया कि CJI को केस बांटने की ताकत कोर्ट के काम को सुचारू बनाने के लिए दी गई है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि CJI सबसे ऊपर है। वो तो बराबर जजों में पहला है। चिट्ठी में ये भी कहा गया कि CJI को पुराने नियमों के हिसाब से सही बेंच को केस देना चाहिए, लेकिन मिश्रा ने ऐसा नहीं किया। इन जजों ने साफ कहा कि मिश्रा की हरकतों से सुप्रीम कोर्ट की आजादी और साख को नुकसान पहुंचा है।
इस प्रेस कॉन्फ्रेंस की वजह एक दूसरा बड़ा केस था। ये केस जज बी.एच. लोया की मौत से जुड़ा था। लोया एक सीबीआई कोर्ट में जज थे, और उनकी मौत संदिग्ध हालात में हुई। वो एक ऐसे केस में जज थे, जिसमें अमित शाह पर गुजरात में सोहराबुद्दीन की गैर-कानूनी हत्या का इल्जाम था। कहा गया कि लोया को अमित शाह को बरी करने के लिए बड़ी रकम दी गई थी। उनकी मौत हार्ट अटैक से बताई गई। लोया की मौत की जांच के लिए तीन शिकायतें दाखिल हुईं।
CJI मिश्रा ने इस केस को पहले जस्टिस अरुण मिश्रा को दिया, जो बाद में रिटायर होने के बाद नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन के हेड बने। फिर मिश्रा ने इस केस को तीन जजों की बेंच में ट्रांसफर कर दिया, जिसमें वो खुद थे। इस बेंच ने शिकायतों को जल्दी खारिज कर दिया। इसके अगले दिन सात विपक्षी पार्टियों ने संसद में मिश्रा के खिलाफ महाभियोग की कोशिश की, लेकिन BJP से जुड़े राज्यसभा के अध्यक्ष ने इसे स्वीकार नहीं किया। इसके बाद मिश्रा ने एक नई लिस्ट बनाई, जिसमें उन चार सीनियर जजों को संवैधानिक बेंच से हटा दिया गया।
कुछ महीने बाद, वकील शांति भूषण ने एक याचिका दाखिल की, जिसमें मास्टर ऑफ रोस्टर की ताकत को साफ करने की मांग की गई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया। जस्टिस सीकरी ने कहा कि CJI पर भरोसा करना चाहिए कि वो इस ताकत का सही इस्तेमाल करेगा। मिश्रा अक्टूबर 2018 में रिटायर हो गए। उनके बाद आए पांच CJI ने इस ताकत को ठीक करने की कोई कोशिश नहीं की।
CJI डी.वाई. चंद्रचूड़ के समय भी इस ताकत का गलत इस्तेमाल हुआ। मिसाल के तौर पर, उमर खालिद नाम की जमानत याचिका को खास जज को दे दिया गया। वही जज जिसको फेयरवेल देने से बार एसोसिएशन ने मना कर दिया था। खालिद पर 2019-2020 में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने का इल्जाम था। उनकी जमानत सालों तक लटकी रही, भले ही उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं थे।
ये केस सुप्रीम कोर्ट के नियमों के खिलाफ खास जज को दिया गया। आखिरकार 2024 में खालिद ने अपनी याचिका वापस ले ली। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने इस जज को फेयरवेल ना देकर साबित किया कि जज ना सही, बार तो कानून की ओर खड़ा है।
2017 में CJI मिश्रा ने कहा कि कॉलेजियम अपनी सलाह और फैसले पब्लिक करेगा, ताकि पारदर्शिता बढ़े। लेकिन 2017 से 2019 तक की सलाह को देखने पर पता चला कि ये सिर्फ दिखावा था। वजहें बहुत हल्की थीं, और कई बार ऐसा लगा कि फैसले छुपाने के लिए लिखा गया। 2019 के बाद तो कॉलेजियम ने सलाह पब्लिक करना ही बंद कर दिया, सिर्फ नॉमिनेटेड जजों की लिस्ट देने लगा।
2023 में कॉलेजियम ने विक्टोरिया गौरी को मद्रास हाई कोर्ट के लिए चुना। गौरी BJP की एजेंट तो थी ही, उसने मुस्लिम-ईसाइयों के खिलाफ भेदभाव वाली बातें कही थीं। लेकिन कॉलेजियम को ये बातें पता नहीं थीं। जब ये बात सामने आई, तो याचिका दाखिल हुई। CJI चंद्रचूड़ ने एक बेंच बनाई, जिसने याचिका खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि कॉलेजियम के फैसले की समीक्षा नहीं की जा सकती।
वहीं जस्टिस अकिल कुरैशी ने अमित शाह को एक पुराने केस में हिरासत में लिया था। 2019 में उन्हें मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस चुना गया, लेकिन मोदी ने उनकी नॉमिनेशन रोक दी। फिर उन्हें त्रिपुरा हाई कोर्ट भेज दिया गया। 2021 में वो सुप्रीम कोर्ट के लिए चुने जाने लायक थे, लेकिन कॉलेजियम ने उन्हें चुना ही नहीं। मोदी से डर गया। ऐसे ही जस्टिस एस. मुरलीधर को भी 2020 में दिल्ली हाई कोर्ट से पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट भेज दिया गया, क्योंकि उन्होंने दिल्ली दंगों में एक भाजपाई गुंडे के खिलाफ कार्रवाई की सलाह दी थी। सरकार ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट के लिए भी नहीं चुना, भले वो सीनियर थे।
2023 में कॉलेजियम ने पांच नॉमिनीज की भर्ती रोकने की सरकार की वजहें पब्लिक कीं। मोदी ने एक नॉमिनी का विरोध इसलिए किया, क्योंकि वो समलैंगिक था। दो अन्य का विरोध इसलिए, क्योंकि उन्होंने BJP की आलोचना की थी। कॉलेजियम ने कहा कि ये वजहें संविधान के खिलाफ हैं, लेकिन मोदी ने जवाब में कॉलेजियम को ही गलत ठहराया।
सुप्रीम कोर्ट का एप्रोच और भी कॉन्स्टिट्यूशनली प्रॉब्लमैटिक है, अगर हम सीजेआई से जुड़े कई कॉन्ट्रोवर्सीज को देखें, जिनमें केस रैंडमली लिस्ट किए गए या प्रोग्रेसिव ज्यूडिशियल बेंच से छीन लिए गए। ये डिसीजन्स बिना किसी ट्रांसपेरेंसी या अकाउंटेबिलिटी के हुए। सीजेआई कोई वजह नहीं देता कि सुप्रीम कोर्ट केस सुनने से क्यों मना करता है या मास्टर ऑफ रोस्टर के तौर पर एडमिनिस्ट्रेटिव डिसीजन्स को जस्टिफाई करने के लिए। नतीजा ये नहीं होता कि पॉलिटिकल ब्रांचेज के साथ डायलॉग बढ़ता है, बल्कि ज्यूडिशियल साइलेंस होता है, जो एग्जीक्यूटिव और सीजेआई को बिना रोक-टोक काम करने देता है।
(जे पी सिंह कानूनी मामलों के जानकार हैं।)