अब अमेरिका अपने असली रूप में आ गया है। यही उसकी असलियत है जो ट्रम्प के रूप में सामने आ रही है। अभी तक वह एक फसाड मेंटेन कर रहा था। जिसमें लोकतंत्र, सेकुलरिज्म, मानवाधिकार, संप्रभुता से लेकर न जाने किन-किन आधुनिक वैज्ञानिक मूल्यों की बात की जाती थी। लेकिन ये सारे उसके मुखौटे हुआ करते थे। और इनके आधार पर उसने ढेर सारी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को खड़ा किया था जिनके जरिये वह न केवल पूरी दुनिया पर राज करता था। बल्कि अपने सामानों के लिए बाजार का विस्तार और फिर ज्यादा से ज्यादा मुनाफे की गारंटी करता था।
पूंजी का विस्तार और यूरोप के विकसित देशों के साथ मिलकर तीसरी दुनिया के देशों का अधिक से अधिक शोषण इसका प्रमुख उद्देश्य हुआ करता था। इस शोषण, वर्चस्व और बाजार को बनाए रखने के लिए उसे कई बार युद्ध में भी जाना पड़ा। और फिर इस तरह से मैनुफैक्चरिंग से लेकर प्रोडक्शन के तमाम क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभाने के जरिये वह दुनिया के बाजारों में अपने सामानों की खपत की गारंटी करता था इसी का नतीजा था कि वह दुनिया का सबसे समृद्धिशाली देश बना हुआ था।
लेकिन संकट तब आया जब चीन जैसा एक दूसरा देश खड़ा हो गया जो अमेरिकी पूंजी और उसकी टेक्नॉलाजी के बल पर उसके पूरे मैनुफैक्चरिंग सेक्टर को अपनी ओर खींच लिया। अपने सस्ते श्रम और दूसरी सुविधाओं की बदौलत वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सबसे मुफीद स्थान बन गया। जिसका नतीजा यह हुआ कि न केवल अमेरिका की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो गयी बल्कि वहां बेरोजगारी समेत दूसरी समस्याएं खड़ी होने लगीं। और पूरा अमेरिकी बाजार चीनी सामानों से पट गया। अभी तक तमाम क्षेत्रों में अगली चौकी पर खड़ा अमेरिका हर क्षेत्र पर पिछड़ने लगा। अब उसके पास केवल मिलिट्री इंडिस्ट्रियल कांप्लेक्स का ही सहारा था। जिसमें हथियारों का उत्पादन और उनकी बिक्री उसका प्रमुख कार्यभार रह गया। जिसकी सफलता की प्रमुख शर्त यह थी कि ऐन-केन प्रकारेण दुनिया के किसी भी हिस्से में युद्ध चलता रहे और तमाम देशों के बीच तनाव बना रहे। यूक्रेन-रूस तथा इजराइल और फिलिस्तीन युद्ध उसी के नतीजे थे।
अनायास नहीं बाइडेन को मृतप्राय नाटो को फिर से जिंदा करना पड़ा और उसमें नये-नये सदस्य जोड़ने की उन्होंने कवायद शुरू कर दी। फिर इस तरह से मिलिट्री इंडस्ट्रियल कांप्लेक्स के लिए एक स्थाई आधार मिल गया। लेकिन अमेरिका का संकट केवल इतने से हल होने नहीं जा रहा था। पूंजीवाद जब संकट में आता है तो उसे हल करने के लिए वह सबसे क्रूरतम रूप भी धारण करने से परहेज नहीं करता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि 1929 की मंदी ने ही हिटलर और मुसोलिनी को पैदा किया था और इस तरह से दूसरा विश्वयुद्ध सामने आया था। अमेरिकी जनता ने अपने संकट को हल करने के लिए न केवल दक्षिणपंथी रिपब्लिकन पार्टी को चुना है बल्कि उसके घोर दक्षिणपंथी चेहरे ट्रम्प को अपना नेता बनाया है।
यह अजीब विडंबना है वह अमेरिका जिसके नेता कभी अब्राहम लिंकन हुआ करते थे। जिन्हें दास प्रथा को खत्म करने वाले नेता और मानवाधिकारों की रक्षा के चैंपियन के तौर पर जाना जाता है। कैनेडी फैमिली लोकतंत्र और उसके मूल्यों के प्रति समर्पित थी। रीगन तक जिन्हें न्यू लिबरल इकोनामी का सृजनकर्ता माना जाता है, ने भी लोकतंत्र के तमाम मूल्यों के खिलाफ जाने से परहेज किया। लेकिन इस बार अमेरिकी जनता ने एक ऐसा राष्ट्रपति चुना है जिसमें बेशुमार बुराइयां हैं। अच्छाई तो ट्रम्प की परछाईं से भी दूर रहती है। राष्ट्रपति रहते दो-दो बार उनके खिलाफ महाभियोग लाया जा चुका है। ‘कैपिटल हिल’ पर हमले की साजिश के वह सूत्रधार रहे हैं। व्यक्तिगत स्तर पर कई सारे आपराधिक मामलों में उनका नाम जुड़ा रहा है। राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ही यौन संबंधों के एक मामले में उनको कोर्ट से सजा तक हुई लेकिन अदालत ने उन्हें जेल से बख्श दिया। और अब जबकि वह राष्ट्रपति बन गए हैं तो आए दिन उनके तुगलकी फरमानों ने पूरी दुनिया को परेशान कर दिया है।
अमेरिका फर्स्ट के नारे के साथ वह हर देश को दोयम दर्जे के दायरे में धकेल देना चाहते हैं। साम्राज्यवादी हवस इतनी उबाले मार रही है कि वह हर किसी देश को निगल जाना चाहते हैं। यूरोप तक में वह डेनमार्क के इलाके ग्रीन लैंड पर अपना कब्जा चाहते हैं। पनामा नहर को वह पी जाना चाहते हैं। मैक्सिको और अमेरिका के बीच दीवार खड़ी कर दोनों देशों के बीच एक स्थाई लक्ष्मण रेखा खींच देना चाहते हैं। और गाजा को लेकर की गयी उनकी नई घोषणा ने पूरी दुनिया को सकते में ला दिया है।
वह चाहते हैं कि गाजा को फिलिस्तीनियों से खाली करा लिया जाए और फिर वह अपनी कंपनियों के जरिये वहां घरों का निर्माण करेंगे और फिर तमाम दूसरे लोगों के साथ फिलिस्तीनियों को भी उसमें बसने का मौका देंगे। यानि एक पूरे देश को दुनिया के नक्शे से ही खत्म करने की उन्होंने योजना बना डाली है। इस तरह से उन्होंने फिलिस्तीन के पूरे सफाए का रास्ता साफ कर दिया। न तो उन्हें कैंप डेविड समझौते की कोई चिंता है और न ही उसको वह याद करना चाहते हैं। जिसमें फिलिस्तीन मामले में टू स्टेट सोल्यूशन का प्रस्ताव पास किया गया था।
उस समझौते में अमेरिका के साथ इजराइल और फिलिस्तीन के अलावा दूसरे अरब देश भी शामिल थे। दुनिया में सबसे ज्यादा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले अमेरिका ने अब उनके नेतृत्व में पेरिस समझौते से खुद को अलग कर लिया है। जिन संस्थाओं से जुड़े होने में उनको नुकसान लग रहा है वह उससे अपना नाम वापस ले ले रहे हैं। यूएस एड एजेंसी हो या कि डब्ल्यूएचओ तमाम संस्थाओं से उन्होंने खुद को अलग करने का फैसला कर लिया है। इन फैसलों से अमेरिका की तरफ से उन संस्थाओं को मिलने वाली आर्थिक सहायता भी खत्म हो जाएगी। जिसका नतीजा यह होगा कि उनके सामने अपने अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा।
अमेरिका फर्स्ट और अमेरिकी फर्स्ट नारे के साथ उन्होंने पहला जो काम किया है वह अमेरिका की धरती पर मौजूद कथित अवैध प्रवासियों को बाहर निकालने का फरमान है। इस कड़ी में उन्होंने ग्वाटेमाला से लेकर कोलंबिया और इंडिया से लेकर मैक्सिको तक के नागरिकों को चिन्हित कर उन्हें मिलिट्री विमानों के जरिये उनके देशों में छोड़ने की शुरुआत की है। इस पूरे अभियान में न तो मानवाधिकारों का कोई ख्याल रखा जा रहा है और न ही मानवीय गरिमा का। प्रवासियों के हाथ में हथकड़ियां, पैरों में बेड़ियां और कमर पर जंजीरें बांध कर उन्हें मिलिट्री प्लेन में बैठा दिया जा रहा है। और फिर सैनिक बूटों के साये में उनको उनके देशों में छोड़ दिया जा रहा है। यात्रा के दौरान उनको न्यूनतम खाने और शौच सरीखी सुविधाओं का भी इस्तेमाल नहीं करने दिया जा रहा है। इन नागरिकों के साथ हार्ड कोर क्रिमिनल की तरह पेश आया जा रहा है।
इस मामले में कोलंबिया के राष्ट्रपति पेट्रो ने जो रीढ़ दिखायी है उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी। उन्होंने प्रवासी नागरिकों से भरे अमेरिकी सैन्य विमान को अपनी धरती पर उतरने ही नहीं दिया। और अपने विमानों के जरिये अपने नागरिकों को पूरे सम्मान के साथ अपने देश ले गए। प्रतिवाद मैक्सिको की तरफ से भी हुआ है। उसकी महिला राष्ट्रपति क्लाउडिया चेनबाम ने ट्रम्प को जो चुनौती दी है उसका नतीजा अमेरिका आने वाले दिनों में महसूस करेगा। उन्होंने कहा कि आपने एक दीवार खड़ी है। लेकिन आपको नहीं पता कि उसके पार 7 अरब लोग रहते हैं। जिन्हें आप उपभोक्ता के तौर पर जानते और बुलाते हैं। अगर उन्होंने आपके सामानों का बहिष्कार कर दिया तो फिर आपकी यह दीवार आपके लिए ही भारी पड़ जाएगी।
अमेरिका फर्स्ट के अपने नारे के तहत उन्होंने सबसे पहली घोषणा मैक्सिको, कनाडा और चीन से आने वाले सामानों पर टैरिफ बढ़ाने की की। हालांकि कनाडा और मैक्सिको से कुछ अंदरूनी समझौता हो गया और उन्हें कुछ दिनों के लिए टाल देने पर सहमति बन गयी है। लेकिन चीन पर वह बना हुआ है। इस तरह से तमाम देशों के साथ द्विपक्षीय रिश्तों में भी वह एकतरफा कार्रवाई कर रहे हैं। पनामा से लेकर डेनमार्क तक के राष्ट्राध्यक्षों ने अपने-अपने इलाकों पर कब्जा करने की ट्रम्प की धमकी पर न केवल कड़ा एतराज जाहिर किया है बल्कि अमेरिका के खिलाफ उठ खड़े होने की चेतावनी दी है।
इसी तरह से मैक्सिको की खाड़ी को अमेरिका की खाड़ी का नामकरण भी उनके इसी तरह के फैसले की एक मिसाल है। इन सारी घटनाओं को लेकर पूरी दुनिया में कड़ी प्रतिक्रिया हुई है। यह पहली बार है जब यूरोप और अमेरिका में खुला अंतरविरोध पैदा हो गया है। और अभी तक मिलकर दुनिया का शोषण करने वाले इन दोनों समूहों के आपस में ही टकराने का खतरा पैदा हो गया है। ऐसे में पहले से ही बन चुकी बहुध्रुवीय में कितने नये ध्रुव जुड़ेंगे कह पाना मुश्किल है। लेकिन इसमें एक बात तय है कि इन सभी ध्रुवों के तोप का मुंह इस बार अमेरिका की तरफ रहने वाला है। क्योंकि लोगों को अब लग गया है कि इस पागल हाथी को काबू में करना ही होगा।
और आखिरी बात जिस एक बात के लिए पश्चिमी देशों की सबसे ज्यादा सराहना की जाती थी वह था सेकुलरिज्म का सिद्धांत। जिसमें स्टेट और रिलीजन को अलग-अलग स्वतंत्र भूमिका में देखा गया था। और रिलीजन न केवल व्यक्तिगत दायरे तक सीमित था बल्कि वह राज्य के अधीन भी होता था। लेकिन ट्रम्प ने लगता है इस मूल्य को भी तिलांजलि देने का फैसला ले लिया है। ह्वाइट लोगों के पक्ष में अभियान चलाते-चलाते उन्होंने ईसाइयों के वर्चस्व को स्थापित करने का संकल्प ले लिया है। उन्होंने अपने एक बयान में कहा है कि ईसाइयों के खिलाफ वह किसी भी तरह के भेदभाव को बर्दाश्त नहीं करेंगे। किसी धर्म के पक्ष में इस तरह की खुली घोषणा जिसकी अभी तक कोई पोप भी हिम्मत नहीं कर सकता था, बहुत कुछ बयान करता है।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)
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