उत्तर प्रदेश के चुनाव-नतीजों से दो बातें स्पष्ट पता चल रही हैं, एक, यह कि लोकतंत्र अभी हारा नहीं है, क्योंकि भाजपा-गठबंधन को 42 प्रतिशत वोट मिला है, यानी 58 प्रतिशत वोट भाजपा के विरोध में पड़ा है, और दो, जनता ने लोकतंत्र के हिन्दूकरण पर मुहर लगा दी है। हिंदुत्व की इस जीत को अगर गहराई से देखें, तो यह खुला खेल जातिवाद का है। इस जातिवाद के भी दो रूप हैं, और दोनों के मूल में अलग-अलग तत्व हैं। समझाने के लिहाज से मैं इसे उच्च और निम्न वर्गीय जातिवाद का नाम दूंगा। उच्च वर्ग में चार जातियां हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और कायस्थ। यह वर्ग हिंदुत्व का सबसे बड़ा समर्थक है। भाजपा से पहले, यह वर्ग कांग्रेस के साथ था और तब तक साथ रहा, जब तक कि कांग्रेस सत्ता से बाहर नहीं हो गई। असल में कांग्रेस के शासन में सारी नीतियाँ और योजनाएं इसी वर्ग के हाथों में थीं, पर जब कांग्रेस कमजोर हुई, और भाजपा सत्ता में आई, तो यह वर्ग भाजपा के साथ खड़ा हो गया। कांग्रेस में फिर भी कुछ धर्मनिरपेक्षता थी, जिसकी वजह से वहाँ इस वर्ग को हमेशा यह डर बना रहता था कि कहीं गैर-द्विज शासक न बन जाएं।
हालाँकि कांग्रेस ने हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि शासन की बागडोर ब्राह्मणों के हाथों में रहे। लेकिन भाजपा पूरी तरह हिंदुत्ववादी है, और घोर मुस्लिम-विरोधी भी है, इसलिए उच्च वर्ग को वह डर अब नहीं है, जो उसे कांग्रेस में रहता था, कि गैर-द्विज या गैर-हिंदू (मुसलमान) सत्ता में आकर उन पर हावी हो जायेंगे। अब यह वर्ग भाजपा का अंधा वोट-बैंक है। यह किसी भी स्थिति में भाजपा के खिलाफ नहीं जा सकता। यह वर्ग सामाजिक रूप से सम्मानित और आर्थिक रूप से मजबूत है। इसलिए इस वर्ग की न कोई सामाजिक समस्या है और न आर्थिक समस्या। सर्वाधिक नौकरियां और संसाधन इसी वर्ग के पास हैं, और जब मोदी सरकार ने सवर्णों के लिए दस परसेंट आरक्षण अलग से दिया, तो यह वर्ग भाजपा से और भी ज्यादा खुश हो गया। दलित-पिछड़ी जातियों की आरक्षित सीटों पर भर्ती न करने की नीतियों से भी यह वर्ग भाजपा से खुश रहता है। यह वर्ग मुसलमानों और दलितों के खिलाफ लाए गए भाजपा के नागरिकता-कानून से भी भाजपा का भक्त हो गया। इसलिए यह वर्ग भाजपा के खिलाफ सपने में भी नहीं जा सकता। इस वर्ग से भाजपा का रिश्ता वैसा ही है, जैसे साड़ी का नारी के साथ-साड़ी बिच नारी है कि नारी बिच साड़ी है।
दूसरे किस्म का जातिवाद निम्न वर्गीय जातिवाद है, जिसमें दलित-पिछड़ी जातियां आती हैं। किसी समय ये जातियां कांशीराम के सामाजिक-परिवर्तन आंदोलन से बहुत प्रभावित थीं, और बसपा की ताकत बनी हुईं थीं। एक बड़ी ताकत मुसलमानों की भी इनके साथ जुड़ी हुई थी। यह एक विशाल बहुजन शक्ति थी, जिसने भाजपा को उत्तर प्रदेश में सत्ता से बाहर रखा था। लेकिन बाद में कांशीराम ने ही भाजपा से हाथ मिलाकर इस शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया। परिणाम यह हुआ कि भाजपा को सत्ता से बाहर रखने वाली बसपा अब खुद ही सत्ता से बाहर हो गई। यह अकस्मात नहीं हुआ, बल्कि इसे बसपा और भाजपा-गठजोड़ ने धीरे-धीरे अंजाम दिया। बसपा से गैर-जाटव (और चमार) नेतृत्व को हटाने की शुरुआत कांशीराम के समय में ही हो गई थी। और मुसलमानों को भी बसपा से अलग करने की कार्यवाही खुद कांशीराम करके गए थे।
काफी संख्या में यादव और अन्य पिछड़ी जातियां भी बसपा से जुड़ी हुई थीं। अनुप्रिया पटेल के पिता भी पहले बसपा में ही थे, जिन्होंने बाद में उससे निकलकर अपनी अलग पार्टी बनाई थी। आज वह भाजपा को मजबूत कर रही है। बसपा में जितने भी अन्य पिछड़ी जातियों के नेता थे, वे भी सब बसपा से अलग हो गए या निकाल दिए गए। सच्चाई यह है कि इसके पीछे भी भाजपा की रणनीति थी, जो बसपा-प्रमुख से गठबंधन करने के दौरान बनी थी। यादव जाति भी पहले बसपा से ही जुड़ी थी, पर बाद में मुलायम सिंह यादव और मायावती के बीच हुए संघर्ष में वह उससे अलग हो गई। बसपा से टूटे मुसलमान भी मुलायम सिंह से जुड़ गए। और वे यादवों तथा मुस्लिम समाज के एकछत्र नेता बन गए। लेकिन गैर-यादव पिछड़ी जातियों को वे फिर भी अपनी पार्टी से नहीं जोड़ पाए। उत्तर प्रदेश की यह एक विशाल जनशक्ति थी, जिसे सपा और बसपा दोनों ने उपेक्षित छोड़ दिया था। उपेक्षित वर्ग पर जो भी प्यार से हाथ रखता है, वह उधर ही चला जाता है, यह स्वाभाविक नियम है।
यह प्यार का हाथ उस पर आरएसएस और भाजपा ने रखा। हिंदुत्व की चुनावी रणनीति के तहत आरएसएस और भाजपा ने इस उपेक्षित वर्ग में महादलित और महापिछड़ा वर्ग बनाकर अपना राजनीतिक खेल शुरू किया। उसने उनके लिए जाटव-चमारों तथा यादवों से पृथक आरक्षण की नीति बनाई और उसका कारण भाजपा ने यह बताया कि चमार महादलितों का और यादव महापिछड़ों का हक खा जाता है, इसलिए उनके हकों को बचाने के लिए महादलितों और महापिछड़ों के लिए अलग से आरक्षण देने की जरूरत है। यह जादू काम कर गया। भाजपा ने उन्हें पूरी तरह से न केवल चमार और यादव वर्ग के विरुद्ध खड़ा किया, बल्कि मुस्लिम विरोधी भी बना दिया। इस महादलित और महापिछड़े वर्ग में शिक्षा की दर सबसे कम और धर्म के आडम्बर सबसे ज्यादा हैं। भाजपा ने इन्हीं दो चीजों का लाभ उठाया, और वे उसके हिंदू एजेंडे से आसानी से जुड़ गए।
भाजपा के हिंदू एजेंडे का मुख्य बिंदु या पहली शर्त है—मुस्लिम-विरोध। यह विरोध उनमें सबसे ज्यादा भरा गया। उनसे कहा गया कि अगर सपा जीत गयी, तो पूरे प्रदेश में मुगल-राज वापस आ जाएगा, जगह-जगह गायें कटेंगी और हिदू लड़कियां सुरक्षित नहीं रहेंगी। वाल्मीकियों से कहा गया कि ये मुसलमान ही हैं, जिन्होंने अतीत में तुम्हें मार-मारकर मेहतर बनाया था, तुम तो राजपूत थे। अशिक्षित और उन्मादी दिमाग में यह सब जल्दी भर जाता है। इसलिए इस महावर्ग ने ‘मुस्लिम नहीं, हिंदू राज चाहिए’ की नीति पर चलकर, एकजुट होकर जमकर भाजपा को वोट दिया। भाजपा नेताओं ने उनके बीच लगातार इसी सवाल के साथ प्रचार भी किया कि राम-भक्तों पर गोली चलवाने वाली सरकार चाहिए, या राम-मंदिर बनवाने वाली? कांवड़ यात्रा रुकवाने वाली सरकार चाहिए या कांवड़ निकलवाने वाली? इसका सबसे रोचक उदाहरण सुरक्षित सीटों पर सपा के दलित उम्मीदवारों का हारना है, जहाँ उन्हें मुसलमानों और यादवों के सिवा किसी उच्च हिंदू और दलित-पिछड़ी जाति का वोट नहीं मिला।
उच्च वर्गीय जातिवादी वर्ग का तो कोई इलाज नहीं है, वह संपन्न वर्ग है, जो कभी नहीं चाहेगा कि किसी दलित-पिछड़ी जातियों की सरकार बने। (अगर चाहेगा भी तो बहुत मजबूरी में), परन्तु निम्नवर्गीय जातिवादी वर्ग का इलाज भी अब आसान नहीं है। उनका ब्रेनवाश हो चुका है। उन्हें उनकी अस्मिता से जोड़ना अब बहुत मुश्किल है। यह दौर रामस्वरूप वर्मा या ललई सिंह का नहीं है, यह भाजपा का हिंदू दौर है, जिसमें लोकतान्त्रिक विचार-प्रचार की उतनी गुंजाइश नहीं है, जितनी उनके दौर में थी। पिछड़ी जातियों को उनकी अस्मिता से जोड़ने का मतलब है, हिंदू-अस्मिता का खंडन करना, जो हिंदुत्व का खुला विरोध होगा। भाजपा सरकार उच्च वर्ग में हिंदुत्व का विरोध सहन कर भी सकती है, पर दलित-पिछड़े वर्गों में कभी बर्दाश्त नहीं करेगी। क्योंकि भाजपा की सारी राजनीतिक शक्ति और हिंदू राष्ट्र का सारा दारोमदार इसी अशिक्षित और उन्मादी दलित-पिछड़े वर्ग पर टिका है। इस वर्ग को शिक्षित करने का मतलब है हमेशा अपनी जान हथेली पर रखकर चलना, और देश-द्रोह के जुर्म में जेल में सड़ना। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यह प्रचार करेगा कौन? क्या सपा-बसपा? बिल्कुल नहीं। यह काम कोई सामाजिक संगठन ही कर सकता है, जिसकी बस सुंदर कल्पना ही कर सकते हैं।
अब एक बड़ा सवाल मुसलमानों के संबंध में विचार करने का यह रह जाता है, कि वे कहाँ जाएँ? भाजपा ने उन्हें हिंदू समाज के उच्च और निम्न दोनों वर्गों के लिए अछूत और घृणित बना दिया है। यह लोकतंत्र के लिए अच्छी घटना नहीं है। अगर समाजवादी पार्टी से हिंदुओं की घृणा इसी आधार पर बनी रहेगी कि उसकी वजह से मुसलमान सत्ता में आ जायेंगे, तो यह हिंदुओं का वह खतरनाक जातिवाद है, जो मुसलमानों को भारतीयता से भी खारिज करने से नहीं चूकेगा। अवश्य ही हिंदुओं को यह नफ़रत आरएसएस और भाजपा से ही मिली है, और इन चुनावों ने भी जाहिर कर दिया है कि यह नफ़रत अब और गहरी हो गई है। इसका समाधान क्या है? क्या लोकतंत्र में किसी भी समुदाय के हितों की अनदेखी की जा सकती है? चुनाव-अभियान के दौरान मुसलमानों के लिए बुलडोजर की धमकी दी गई, और विद्रूप देखिए कि जीत के बाद भी बुलडोजर पर बैठकर जश्न मनाया गया। यह भड़काऊ प्रदर्शन क्या मुसलमानों के प्रति खुली हिंसा का संकेत नहीं है? अगर भाजपाई मंदिर को राजनीतिक हवा दे सकते हैं, तो मुसलमानों से यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वे अपने मजहबी मुद्दे न उठायें?
इन चुनावी नतीजों ने एक बात और साफ़ कर दी है कि सपा एक मजबूत विपक्ष के रूप में उभर कर आई है। और उसके नेता मुसलमानों की आवाज सदन में उठाएंगे ही। पर अफ़सोस इस बात का है कि भाजपाई बहुमत दलित-पिछड़ों की आवाज उठाने का काम नहीं करेगा।
(कंवल भारती दलित चिंतक और लेखक हैं। आप आजकल रामपुर में रहते हैं।)