मई और जून में एशिया में दो बड़े युद्ध लड़े गए। एक भारत और पाकिस्तान के बीच जिसे भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के नाम से शुरू किया था। यह ऑपरेशन चार दिन तक चला, जो 6 और 7 की रात से शुरू होकर 10 मई को शाम 6:00 बजे समाप्त हो गया। इस युद्ध में युद्ध विराम की घोषणा अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने 10 तारीख को शाम 5 बजे की। उन्होंने कहा कि हमने दोनों देशों को युद्ध विराम के लिए राजी कर लिया है। भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के इस युद्ध में अपनी-अपनी सफलताओं के दावे हैं। लेकिन ट्रंप का व्यापार करने के नाम पर कराया गया यह समझौता भारत और पाकिस्तान की स्थितियों को अभिव्यक्त करने के लिए काफी है।
पहली बार दुनिया के किसी कोने में होने वाले युद्ध के दौरान एक तीसरी वैश्विक ताकत की चर्चा समाचार माध्यमों और वैश्विक राजनीतिक विश्लेषणों में कुछ ज्यादा ही जगह घेरने लगी। जिससे चीन विश्व मंच पर एक आर्थिक सामरिक शक्ति के रूप में दिखाई देने लगा।
दूसरा युद्ध- 12 जून को इजराइल द्वारा ईरान पर हमले के साथ शुरू हुआ। जिसमें पहले ही दिन ईरान को भारी क्षति उठानी पड़ी। लेकिन अन्य अरब मुल्कों के विपरीत ईरान ने इजराइल के समक्ष समर्पण की स्थिति को पलटते हुए पलटवार किया और इजराइली अजेयता के मिथ को तोड़ने में कामयाब रहा। सामरिक और तकनीकी दृष्टि से इजराइल से कमजोर समझा जाने वाला ईरान ने जिस तरह से हाईफा तेल अवीव सहित इजराइल के महत्वपूर्ण शहरों पर मिसाइली हमला कर इजराइली रक्षा प्रणाली को ताश के पत्तों की तरह ढहा कर युद्ध में वापसी की।
उससे वैश्विक शक्ति संतुलन में गुणात्मक बदलाव आ गया है। अमेरिका का खुला समर्थन और युद्ध में सक्रिय भागीदारी तथा यूरोपीय यूनियन के इजराइल के साथ खड़ा होने के बावजूद ईरान ने जिस तरह से इजराइल को संकट में डाला। उसने दुनिया की निगाह एक बार फिर चीन की तरफ मोड़ दी। क्योंकि अकेले चीन ने ही यह कहकर चौंका दिया था कि इजराइल ने सभी तरह की सीमाओं का अतिक्रमण किया है। जिसे किसी भी तर्क से स्वीकार नहीं किया जा सकता।
अमेरिकी संलिप्तता और युद्ध विराम
अमेरिका द्वारा 23 जून को ईरानी परमाणु ठिकानों पर की गई बमबारी और उसके बाद कतर स्थिति अमेरिका के सबसे बड़े सैनिक अड्डे पर ईरानी मिसाइलों के पलटवार ने पश्चिमी जगत को चौंका दिया। जिसे 56 मुस्लिम मुल्कों के शासक हैरत भरी नजरों से देखते रह गए। इस प़लटवार के कुछ घंटे बाद ही ट्रंप ने इजराइल को मजबूर किया कि वह युद्ध विराम स्वीकार कर ले। इजराइल ईरानी मिसाइल से हो रहे विध्वंस को देखते हुए युद्ध विराम की कोशिश ट्रंप के माध्यम से करने लगा था। खबर तो ऐसी भी आ रही है कि ट्रंप ने कतर और इराक की सरकारों पर दबाव डाला कि वह ईरान को युद्ध विराम के लिए राजी करें। दक्षिण पश्चिम एशिया के सैकड़ों अमेरिकी सैन्य अड्डों पर यह किसी अरब मुल्क द्वारा किया गया पहला हमला था। (हालांकि खबरें आ रही हैं कि आपसी सहमति से हमले किए गए थे।) इसके बाद दोनों देशों में युद्ध विराम लागू हो सका।
भारत का पाकिस्तान पर टारगेटेड हमला और इजराइल अमेरिका संयुक्त गठजोड़ द्वारा ईरान पर किए गए आक्रामक हमले के बाद घटित हुए तेजगति के घटनाक्रम से डेढ़ महीने में दुनिया में बहुत कुछ बदल गया है। इस बदलाव ने वर्ल्ड जियो पोलिटिकल सिनैरियो को पूर्ण रूपेण प्रभावित किया है।
अमेरिका का व्यापार युद्ध
इस समय यूरोप, अमेरिका से लेकर एशिया तक दक्षिणपंथ के उभार का दौर चल रहा है। हर जगह वे ताकतें तेजी से राजनीतिक परिदृश्य पर हावी हो रही हैं, जो दुनिया को और ज्यादा कॉर्पोरेट केंद्रित विश्व व्यवस्था के अधीन लाना चाहती हैं। इसका बुनियादी कारण है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 80 वर्षों से पूंजीवादी साम्राज्यवादी विश्व का नेतृत्व करने वाला अमेरिका गंभीर आर्थिक और राजनीतिक संकट से गुजर रहा है। इस समय उसकी बादशाहत पर खतरा मंडराने लगा है। ट्रंप वस्तुत: अमेरिका के पतन काल के प्रतिनिधि होने जा रहे हैं।
ग्लोबल साउथ
इधर राजनीतिक हलकों में वैश्विक स्तर पर एक नई तरह की परिघटना पर चर्चा गरम है। जिसे ग्लोबल साउथ का उभार कहा जा रहा है। बताया जा रहा है कि पश्चिम को ग्लोबल साउथ से गंभीर चुनौती मिलने लगी है। इसलिए जब ट्रंप अमेरिका फर्स्ट और मेक अमेरिका ग्रेट अगेन यानी (मागा) का नारा लेकर आए तो कोई आश्चर्य नहीं हुआ। इसी दक्षिणपंथी लफ्फाजी और नग्न कॉर्पोरेट परस्ती से ट्रंप दुबारा अमेरिका के राष्ट्रपति बने हैं। आते ही ट्रंप ने आक्रामक व्यापार नीतियों को आगे बढ़ाना शुरू किया जिसे टैरिफ वार कहा जा रहा है।
ट्रंप का टैरिफ वार
इस नीति के दो पक्ष हैं। एक- बाहर से अमेरिका में आ बसे प्रवासी मजदूरों को अवैध घुसपैठिया बताकर अमेरिका से उनके देश में अमानवीय ढंग से डिपोर्ट करना और दूसरा विभिन्न देशों पर टैरिफ के नाम पर व्यापार युद्ध थोपना। डिपोर्ट करने की कार्रवाई का दुनिया के कई देशों ने कड़ा विरोध किया और अमेरिका के साथ उनके संबंध तनाव पूर्ण हो गये। लेकिन भारत सरकार ने ट्रंप के सामने आत्म समर्पण कर दिया। जिसका परिणाम हुआ कि भारतीय अप्रवासियों को बेड़ियों हथकड़ियों में जकड़ कर अपराधियों की तरह भारत में ला पटका गया।
टैरिफ के नाम पर ट्रंप ने विभिन्न देशों को धमकाना शुरू किया कि वह अगर अपने यहां टैरिफ नीतियों में बदलाव नहीं करेंगे तो अमेरिका भी उनके ऊपर कड़े टैरिफ लगाएगा। यहां तक कि उन्होंने भारत चीन जैसे देशों को धमकाते हुए कहा कि निर्यात पर ये देश शुल्क घटायें। नहीं तो इन देशों पर रेसिप्रोकल टैरिफ लगा देंगे।
उन्होंने भारत सहित कई देशों पर नये टैरिफ की घोषणा भी कर दी। भारत जैसे देश ट्रंप की धमकी से पीछे हट गए और आयात शुल्क घटाने लगे। बाद में ट्रंप ने भारत के साथ व्यापार वार्ता के लिए 90 दिन का समय देते हुए नए टैरिफ पर रोक लगा दी। इस समय भारत अमेरिका के बीच में व्यापार समझौते पर गहन वार्ता चल रही है। उम्मीद है इस लेख के लिखे जाने तक इस पर समझौता हो जाएगा। जो भारत के व्यापारियों और किसानों के लिए बड़ी आपदा साबित होने जा रहा है।
चीन की चुनौती
लेकिन चीन सहित कुछ देशों ने ट्रंप के धमकी को नकारते हुए जवाबी कार्रवाई की घोषणा कर दी। ट्रंप ने चीन पर एक मई से भारी शुल्क लगाने की घोषणा कर दी।जवाबी हमला करते हुए चीन ने भी अमेरिका के बराबर टैरिफ लगा दिया। अंत में ट्रंप ने चीनी सामानों पर ढाई सौ प्रतिशत तक शुल्क बढ़ा दिया। चीन ने जवाब देते हुए अमेरिका पर बराबर का टैरिफ लगाना शुरू किया। चीन जैसे को तैसा का जवाब देने लगा। वहीं कनाडा ने भी ट्रंप की धमकी को नकारते हुए जवाबी कार्रवाई की धमकी दी। ट्रंप के टैरिफ वार का यूरोप में भी विरोध होने लगा। जिससे अमेरिका अलगाव में पड़ गया। जिस कारण अमेरिका में भी ट्रंप के खिलाफ आक्रोश बढ़ने लगा।
उधर चीन ने रेयर अर्थ मिनरल सहित कई चीजों की सप्लाई रोक दी। जिससे अमेरिकी बाजार और उद्योगों के समक्ष संकट खड़ा होने लगा। परिणाम हुआ कि ट्रंप को चीन के सामने झुकना पड़ा है। अब ट्रंप को नए व्यापार समझौते के लिए चीन से बार-बार अपील करनी पड़ रही है। चीन ने कहा कि पहले अमेरिका अपने बढ़े हुए शुल्क वापस ले। फिर कोई बातचीत संभव हो सकती है। परिणाम यह हुआ है कि इस व्यापार युद्ध में चीन अमेरिका के ऊपर भारी पड़ गया।यहां तक कि ट्रंप को चुनाव जिताने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले एलन मस्क के साथ ट्रंप का टकराव बहुत बढ़ गया। कई विश्लेषकों का मानना है कि चीन के प्रति ट्रंप की नीति से मस्क नाराज थे। क्योंकि उनके व्यापारिक हित प्रभावित हो रहे थे। इस व्यापार युद्ध में अमेरिका को फौरी तौर पर पीछे हटना पड़ा है।
पश्चिम बनाम ग्लोबल साउथ
अमेरिका की अगुवाई में पश्चिमी ब्लॉक का द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही विश्व पर वर्चस्व रहा है। अमेरिका 1945 के बाद से ही वर्तमान साम्राज्यवादी पूंजीवादी विश्व का नेता भाग्य विधाता तथा संचालक बना हुआ है। सोवियत संघ जो एक दौर में पश्चिमी ब्लॉक यानी नाटो का प्रतिद्वंदी हुआ करता था। कब का बिखर चुका है। अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों का दुनिया पर एक छत्र राज 1991 से ही कायम हैं। सोवियत ब्लॉक के विघटन के बाद पश्चिमी मीडिया (जो दुनिया में 95% खबरों का उत्पादन करता है) ने एक नरेटिव बना रखा है कि पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं है जिसे राजनीतिक शब्दावली में एक ध्रुवीय दुनिया कहा जा रहा है।
लेकिन 21वीं सदी आते-आते वैश्विक परिदृश्य बदलने लगा है। अब ग्लोबल साउथ के नाम से एक नया शब्द जियो पोलिटिकल डिबेट में वैश्विक मंच पर दाखिल हो चुका है जो अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी ब्लॉक के लिए बड़ी चुनौती बन रहा है।
मूलतः ग्लोबल साउथ में यूरेशिया के साथ चीन हिंद चीन भारत बांग्लादेश ईरान ब्राज़ील दक्षिणी अफ्रीका इंडोनेशिया ईरान कतर इथियोपिया सहित कई देश आते हैं। जिनकी अर्थव्यवस्था तेज गति से विकसित हो रही है। ये मुल्क वस्तुत: पृथ्वी के दक्षिणी भूभाग में स्थित हैं। इसलिए इन्हें ग्लोबल साउथ कहा जा रहा है। एलपीजी (निजीकरण उदारीकरण और वैश्वीकरण) के लागू होने के बाद ऐसा लगता था कि अब अमेरिकी नेतृत्व में चल रहे पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था ही सामाजिक विकास की आखिरी मंजिल है। जिसे निकट भविष्य में कोई चुनौती नहीं मिलने वाली है।
सामाजिक विकास की गति कभी रुक नहीं सकती। एलपीजी की नीतियों का दक्षता पूर्वक प्रयोग करते हुए चीन ने दृढ़ता, साहस और प्रतिबद्धता के साथ अपने डेमोग्राफिक डिविडेंड का व्यवस्थित ढंग से निवेश किया और शांति के साथ धीरे-धीरे कदम आगे बढ़ाया। जिसका परिणाम दुनिया के सामने है। प्रचार पाखंड और दिखावे से दूर रहते हुए चीन ने 21वीं सदी में g7( अमेरिका यूके फ्रांस जर्मनी इटली कनाडा ऑस्ट्रेलिया )सहित दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को पछाड़ते हुए दूसरी अर्थव्यवस्था बन चुका है। जो अब सीधे अमेरिका को चुनौती दे रहा है। चीनी नीति निर्धारकों की योजनाअनुसार 2035 में चीन को विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाना है।
नाटो के विपरीत चीन की नीति
शांति सहअस्तित्व व अहस्तक्षेप के उसूल पर दृढ़ता से कायम रहते हुए चीन ने नाटो के किसी भी उकसावे और युद्ध परियोजना का हिस्सेदार नहीं बना। चीन की बुनियादी नीति में “यह अर्थव्यवस्था ही है जिस पर दुनिया के सभी ऊपरी ढांचे खड़े होते हैं। अंततोगत्वा अर्थव्यवस्था ही है जो सभी मानवीय और भौतिक गतिविधियों का निर्णायक आधार है” के सूत्र वाक्य को अमल में लाते हुए चीन ने दुनिया को चकित कर दिया है। एक ध्रुवीय दुनिया का नेतृत्व करते हुए अमेरिका ने लगभग 100से ज्यादा देशों में सीधे हस्तक्षेप किया। वहां की सरकारों को गिराया, युद्ध थोपा और मीडिया का दुरुपयोग कर झूठे नैरेटिव रचकर इन देशों को तबाह किया।
लोकतंत्र मानवाधिकार और नागरिक स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटते हुए अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिम ने इन्हीं मूल्यों को रौंदना शुरू किया। अमेरिका ने इराक, अफ़गानिस्तान लीबिया, सीरिया, मिस्र, अल्बानिया और युगोस्लाविया से अलग हुए देशों को प्रत्यक्षतः रौंद डाला। लाखों नागरिक बच्चे और महिलाएं मार दिए गए या भूख दवा के अभाव से तड़प कर मर गए। अरब के साथ यूरोप में कई देशों के इंफ्रास्ट्रक्चर ध्वस्त कर दिए गए और वहां के प्राकृतिक संसाधनों पर अमेरिकी यूरोपीय कंपनियों ने कब्जा कर लिया। यह सब लोकतंत्र की रक्षा स्थापना और विश्व को सुरक्षित रखने के नाम पर हो रहा था।
एलपीजी के दौर में अमेरिकी (नाटो) तांडव के प्रतिवाद का सवाल
जब अमेरिकी नेतृत्व में वित्तीय पूंजी घूम-घूम कर दुनिया में तांडव मचा रही थी और राष्ट्र राज्यों का शिकार कर रही थी। तो उसके पीछे खड़ा था अमेरिका का पेंटागन। जिसकी मूल शक्ति पेंटागन में छिपी थी। पेंटागन ने दुनिया भर में 100 से अधिक देशों में 902 सैनिक अड्डे खड़ा कर रखे हैं। उसके साथ-साथ यूके, स्पेन, फ्रांस, इटली, जर्मनी ने भी विश्व भर में सैन्य जाल खड़ा कर रखा है। पूंजीवाद की लोकतांत्रिक मानवीय और नैतिक शक्ति के बल पर नहीं बल्कि इसी सैन्य शक्ति के द्वारा अमेरिका और नाटो ने असहमत और विपक्षी सरकारों व्यवस्थाओं को ध्वस्त किया है। एक धुरी दुनिया बनते ही अमेरिका और नाटो द्वारा राष्ट्र राज्यों के विनाश के साथ-साथ भौगोलिक संरचना में परिवर्तन करने लगे थे। फिलिस्तीनी त्रासदी इसका जीता जागता उदाहरण है।
चीन की खामोशी
तो एक प्रश्न बहुत तेजी से मीडिया द्वारा उछाला गया कि चीन और रूस अमेरिका और नाटो के विध्वंसक अभियान का प्रतिवाद क्यों नहीं कर रहे हैं। क्या वे नाटो के विश्व विजय अभियान के सहभागी बन चुके हैं। अमेरिकी ब्लॉक के विध्वंसक अभियान का शिकार हुए जन गण यह सवाल उठा रहे थे कि नाटो और अमेरिका जिस तरह से बल पूर्वक दुनिया पर कॉर्पोरेट नियंत्रित मॉडल थोपने में जुटे हैं। तो उस समय चीन जैसे समाजवादी देश क्या कर रहे हैं। क्या उन्होंने राष्ट्रों की सार्वभौमिकता, स्वतंत्रता, लोकतांत्रिकता और जनता के अपने भविष्य का निर्माण करने के प्राकृतिक अधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता को तिलांजलि दे दी है।
1991 के बाद रूस-चीन की स्थिति
पुतिन कालीन रुस से किसी लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता और मनुष्यता के किसी नए उच्चतम मूल्य के पक्ष में खड़े होने की किसी संभावना के बारे में सोचना ही बेमानी है। पुतिन ने एक नए तरह की तानाशाही रूस में विकसित कर ली है। आज रुस आर्थिक शक्ति भी नहीं रहा। हां वह एक परमाणु संपन्न बड़ी सामरिक शक्ति अवश्य है।
इस बात को लेकर चीन का दुनिया में लानत मलानत होती रही है कि वह अमेरिकी वर्चस्व और विध्वंस का मौन समर्थक है। लेकिन चीनी सरकार ने इन सभी तरह के व्यवहारिक चुनौतियों को मौन रहते हुए स्वीकार किया। आज भारत-पाकिस्तान और इजराइल ईरान के बीच चले युद्ध के दौरान उसने वैश्विक राजनीति में हल्की सी दस्तक दे दी है। जिससे पश्चिमी ब्लॉक में बौखलाहट दिखाई दे रही है।
हाल ही में हेग में संपन्न हुई नाटो की बैठक में लिए गए फैसलों में इसे देखा जा सकता है। अभी तक नाटो के देश जीडीपी का 2% प्रतिशत रक्षा बजट और रक्षा अनुसंधान पर खर्च करते थे। अब उन्होंने इसे बढ़ाकर 5% करने का फैसला लिया है। इससे ऐसा लगता है कि नाटो अब तीसरे विश्व युद्ध की तैयारी में उतर चुका है।
पश्चिम बनाम ग्लोबल साउथ
अभी 10 दिन पहले G7 की बैठक कनाडा में हुई है। जहां उन्होंने भारत ब्राजील यूक्रेन सहित कुछ देशों को पर्यवेक्षक के बतौर निमंत्रित किया था। यह बैठक उस समय हुई जब ईरान और इजराइल का युद्ध जारी था। G7 ने एक मत होकर इजराइल के समर्थन की घोषणा की। जिस निर्णय की चीन सहित कई अरब देशों ने निंदा की थी। इसके अलावा ग्लोबल साउथ के कई देशों ने इजराइली हमले का विरोध किया।
वार अगेंस्ट टेररिज्म के समय अफगानिस्तान और इराक पर अमेरिका के नेतृत्व में नाटो के हमले के समय दुनिया के किसी भी देश ने विरोध नहीं किया था। ट्यूनीशिया से शुरू हुए अरब बसंत के समय सम्पन्न हुई गुलाबी क्रांति के दौर में अमेरिका ने मिस्र लीबिया जैसे देशों में बलपूर्वक सत्ता परिवर्तन करा डाला। कर्नल गद्दाफी की हत्या कर दी गई। अमेरिका के संरक्षण में आईएएसआईएस को खडाकर सीरिया सहित कई देशों में सत्ता परिवर्तन की कोशिश हुई। लेकिन दुनिया में किसी भी देश की सरकार ने नाटो और अमेरिका के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं की थी।
लगभग 3 साल से गजा में इजराइल द्वारा फिलिस्तीनियों के जनसंहार ने इस्लामी जगत के अवाम के साथ वैश्विक जन गण की चेतना में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है। अमेरिका नाटो के समर्थन से इजराइल बच्चों, महिलाओं, बुजुर्गों, डॉक्टरों, पत्रकारों, लेखकों संयुक्त राष्ट्र के राहत कर्मियों सहित 65 हजार लोगों की मौत के घाट उतार दिया है।
जिससे पश्चिम के खिलाफ जनाक्रोश उबाल पर है। जिसके परिणाम स्वरूप ईरान-इजराइल और अमेरिका पर हमला करने का साहस कर सका। चीन-रूस सहित कई देशों का ईरान के साथ खड़ा होना इस बात का संकेत है कि वैश्विक शक्ति संतुलन बदल चुका है। पश्चिम ने इस बदलाव को गंभीरता से नोट किया है। इसकी अनुगूज G7 की बैठक से लेकर नाटो के सम्मेलन तक में सुनी जा सकती है।
पश्चिम का आर्थिक ठहराव और ग्लोबल साउथ की तेज विकास दर
विश्व में हो रहे शक्ति संतुलन में परिवर्तन को समझने के लिए हमें पश्चिम के आर्थिक ठहराव और ग्लोबल साउथ के आर्थिक विकास की गति में देखना चाहिए।
16वीं से 20वीं सदी के मध्य तक ब्रिटेन और फ्रांस के नेतृत्व में यूरोप का दुनिया पर एकछत्र दबदबा था। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह नेतृत्व अमेरिका के हाथ में चला गया। तब से आज तक अमेरिका विश्व पूंजीवाद का नेता बना हुआ है। अभी भी अमेरिका की इकोनामी दुनिया की सबसे बड़ी इकोनॉमी है ( 30 ट्रिलियनडालर के आस पास)। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में चीन ने तेज गति से विकास किया है और उसकी अर्थव्यवस्था अमेरिका का पीछा करते हुए लगभग 20 ट्रिलियन डॉलर के आसपास पहुंच गई है। कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां चीन ने अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है। इस समय पश्चिम यानी G7 और ग्लोबल साउथ के बीच में आर्थिक विकास के क्षेत्र में तीखी प्रतिद्वंद्विता चल रही है। G7 के देश यानी पश्चिम की विकास दर तेजी से गिर रही है। वहीं चीन सहित ग्लोबल साउथ की विकास दर लगातार बढ़ रही है। जिसे निम्न तालिका से आसानी से समझा जा सकता हैं।
अमेरिका और और G7,,,,। व्रिक्स देश के ताजा आंकड़े
अमेरिका इस तिमाही।l पिछली तिमाही भारत 7%+
माइनस, 3% 2.4 %. चीन 4.1%
जापान, 2%. 2,2% इंडोनसिया4.8%
जर्मनी ,4%. ,2 %। ब्राजील 1.4%
यूके ,7% – ,6 %। रुस1.4%
फ्रांस ,1% -7%। दक्षिण अफ्रीका 1.4%
कनाडा. 2.2%. 2,1% . . ईरान 3.2%
इटली .3%, यूएई 4.7%
..कतर 1%
सऊदी अरब 3.4%
उपरोक्त आंकड़े यह दर्शाते हैं कि पश्चिमी जगत यानी अमेरिका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी देशों की विकास दर तेजी से घट रही है। या ठहराव की शिकार है।जहां अमेरिकी विकास दर माइंस में है। वहीं अधिकतर देश दशमलव में ही विकास दर दर्ज करा रहे हैं।
लेकिन वहीं ग्लोबल साउथ की विकास दर औसत 3 से 5% के बीच में है। जो पश्चिमी ब्लॉक की तुलना में कहीं ज्यादा है। विकास दर का यह अंतर दिखा रहा है कि आने वाली सदी एशिया-अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की सदी होगी। ये देश तेजी से विकास कर रहे हैं। वहीं यूरोप सहित अमेरिका ठहराव में हैं। यही कारण है कि पश्चिमी साम्राज्यवादी मुल्कों को ग्लोबल साउथ से कड़ी चुनौती मिल रही है।
आज दुनिया की सकल मैन्युफैक्चरिंग का 35 से 36% अकेले चीन के हाथ में है।वहीं अमेरिका सहित यूरोप मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र से बाहर हो गए हैं। इसके अलावा रेयर अर्थ, बैटरी, ग्रीन एनर्जी एआई और इलेक्ट्रिक व्हीकल के क्षेत्र में चीन ने भारी छलांग लगाई है। एक ऐसा समय था जब पश्चिमी ब्लॉक के हाथ में दुनिया की जीडीपी का 45% हुआ करता था। जो घटकर 27% के आस-पास आ गया है। वहीं ब्रिक्स या ग्लोबल साउथ देश के विश्व के सकल उत्पादन में हिस्सेदारी 45% के आसपास पहुंचने वाली है। जिसमें अकेले चीन की हिस्सेदारी 31% के आसपास है। यह साउथ ग्लोबल का एसर्शन है। जिसने पश्चिम को पीछे धकेल दिया है।
सामरिक शक्ति के बतौर चीन की विश्व बाजार में एंट्री
भारत के साथ पाकिस्तान की लड़ाई के दौरान पहली बार चीन के दखलअंदाजी ने शक्ति संतुलन को बदल दिया था। अंतरराष्ट्रीय मीडिया के अनुसार वह चीनी जेट विमान युद्ध सामग्री और रक्षा प्रणाली ही थी जिसके सहयोग से पाकिस्तान भारत का मुकाबला करने की स्थिति में आ गया। इसी तरह ईरान और इजराइल के युद्ध में ईरान का मजबूत क्षेत्रीय ताकत के रूप में उभरना इस बात का संकेत है कि अरब की धरती पर अमेरिकी वर्चस्व को कड़ी चुनौती मिलने लगी है। इजराइल जो अमेरिका के लिए साउथ एशिया में उस लठैत की तरह है जो अमेरिकी हितों को सभी परिस्थितियों में सुरक्षित रख सके। आज की बदली स्थिति में इजराइल के अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौती खड़ी हो गई है। जिसे लेकर नाटो देशों की हेग बैठक में गंभीर चिंता व्यक्त की गई है।
चीन एक उभरती सामरिक शक्ति
नाटो की छतरी के तले 32 देश संगठित हैं और उनके प्रभाव क्षेत्र को मिला कर 50 से ज्यादा देश नाटो के दायरे में आ जाते हैं। वहीं ब्रिक्स के 13 देशों के साथ शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (SCO) के नौ देशों के जुड़ जाने से एक नए तरह का समीकरण दुनिया में बनने लगता है। जिसकी केंद्रीय धुरी चीन उसी तरह है जैसे नाटो की केंद्रीय नियंत्रक शक्ति अमेरिका के हाथ में है। टैरिफ वार के दौरान ट्रंप ने इस स्थिति को समझ लिया था। इसीलिए वह व्यापार युद्ध में चीन के मुकाबले पीछे हट गए और अब बार-बार चीन के साथ नये समझौते की अपील कर रहे हैं।
ग्लोबल साउथ अभी तक अमेरिका के मुकाबले किसी प्रत्यक्ष या परोक्ष युद्ध से बचता रहा है। इसलिए बहुत शांति के साथ चीन ने रक्षा उत्पादन और सामरिक क्षेत्र में निर्णायक प्रगति की है। उसने पश्चिम एक छत्र नियंत्रण वाले हथियार उद्योग को चुनौती देना शुरू कर दिया है। इसके संकेत फ्रांसीसी राफेल और अमेरिकी एफ- 35 के गिराए जाने में मिलता है। यह पहली बार है जब चीन ने सामरिक तैयारी का संकेत पश्चिम को करा दिया। अभी तक चीन इस मामले में पश्चिमी दुनिया के मुकाबले कहीं भी नहीं ठहरता था।
पश्चिमी मीडिया और चीन
दुनिया में सूचनाओं का प्रवाह पश्चिम स्रोतों से ही होता आ रहा है। चीन की आर्थिक सामरिक और औद्योगिक ताकत के बारे में पश्चिमी मीडिया विभिन्न तरह की नकारात्मक खबरें प्रसारित करता रहता है। आप इकोनॉमिक टाइम्स से लेकर द टेलीग्राम वाशिंगटन पोस्ट न्यूज़ वीक सहित सभी पश्चिमी अखबारों में आए दिन यह खबरें पढ़ते होंगे कि चीन भारी आर्थिक संकट में है। उसका औद्योगिक ढांचा चरमरा गया है। विदेशी कंपनियां चीन छोड़कर दूसरे देशों की तरफ भाग रही हैं। चीन आर्थिक रूप से दिवालिया होने के कगार पर है। इस तरह की खबरें पश्चिमी मीडिया में अटी पड़ी हैं। आज की खबर के अनुसार चीन में बड़ा सत्ता परिवर्तन होने वाला है। एक अखबार में तो यह लगा दिया है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का तख्ता पलट हो गया है।
इसलिए पश्चिमी जगत से लेकर एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका तक में चीन को लेकर अनेक तरह की गलत धारणाएं काम करती हैं।
और आम जन में एक खास तरह का नरेटिव बना हुआ है। इस नकारात्मक प्रचार युद्ध के बाद भी चीन ने आर्थिक शक्ति के रूप में अपने विकास का लोहा दुनिया को मनवा दिया है। चीन की सिल्क एंड रोड बेल्ट जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं ने दुनिया को सोचने और चीन के बारे में धारणा बदलने में मदद पहुंचाई है। भारत-पाकिस्तान और ईरान इजराइल युद्ध के दौरान घटित घटनाओं से पश्चिमी मीडिया में भी चीन को लेकर नई बहस शुरू हो चुकी है। भारत में प्रवीण साहनी जैसे रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार चीन एक बड़ी सामरिक शक्ति में बदल चुका है। जिसको नजर अंदाज करना पश्चिमी जगत के लिए अब संभव नहीं है।
यह पहली बार है जब चीन ने नाटो को गंभीर चुनौती दे दी है। यूरोप अमेरिका एशिया अफ्रीका लैटिन अमेरिका के बाजार तो पहले से ही चीनी उपभोक्ता सामानों से भरे पड़े हैं। अब यह देखना है कि सामरिक क्षेत्र में चीन और ग्लोबल साउथ अमेरिकी वर्चस्व को कैसे चुनौती दे पाता है।
इजराइल का कहना है की शक्ति से ही शांति कायम होती है। यही कारण था कि अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन ने दुनिया में बहुत विस्तृत और विविधता वाला सामरिक जाल बिछा रखा है। इस जाल को भेद कर ही ग्लोबल साउथ अपने विकास की अग्रगति को सुनिश्चित कर सकता है।
(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और वामपंथी कार्यकर्ता हैं।)