भारत के लोगों के लिए क्या महत्वपूर्ण है!  सहयोग और सहमेल या समर्पण और शरणागति!

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आम चुनाव 2024 लगभग शांतिपूर्ण माहौल में संपन्न हुआ। चुनाव संपन्न होते ही चुनाव और मतदान की राजनीति थम गई। बिना किसी विलंब के ‘एग्जिट पोल’ को सामने रखते हुए मुख्य-धारा की मीडिया में मतगणना की राजनीति पर ‘गंभीर चर्चा’ शुरू हो गई। यह स्वाभाविक है कि 04 जून, 2024 को असली मतगणना की प्रक्रिया शुरू होने तक इस ‘गंभीर चर्चा’ पर विराम की कोई गुंजाइश नहीं दिखती है। सच कहा जाए तो ‘गंभीर चर्चा’ पर विराम लगनी भी नहीं चाहिए। वर्तमान का परिणाम भविष्य में निकलता है। मनुष्य के लिए वर्तमान में ही सारा सरंजाम होता है। सुख का भी, दुख का भी। 

मनुष्य हमेशा वर्तमान से बेहतर की तलाश में रहता आया है, यही उसे अन्य प्राणियों से न सिर्फ भिन्न बनाता है, बल्कि निरंतर विकसित भी करता रहा है। स्वाभाविक है कि वह हमेशा भविष्य के गर्भ में छिपे वर्तमान में संपन्न कार्य का परिणाम जानने को उत्सुक रहता है। यहां तक कि जाने हुए को भी बार-बार जानना चाहता है। इसमें न सिर्फ राहत बल्कि मनोरंजन का भी तत्व होता है। जानने की इच्छा अर्थात जिज्ञासा मनुष्य की मौलिक वृत्ति है। 

इस समय ऐसी कौन-सी मौलिक वृत्ति है, जिसके साथ छल नहीं हो रहा है? ‘एग्जिट पोल’ में जो परिणाम अनुमानित हैं, उस पर किन्हें विश्वास है! ‘एग्जिट पोल’ में अनुमानित परिणाम पर उन्हें ही विश्वास है जिन्हें नरेंद्र मोदी के अवतारी होने पर कोई ‘शक’ नहीं है। मुख्य-धारा की मीडिया का पिछले दिनों कैसा रुख और रुझान रहा है यह किसी से छिपा नहीं है। मतदान में भारी धांधली की आशंकाओं के बारे में लोग भी ‘गंभीर चर्चा’ करते रहे हैं। ‘एग्जिट पोल’ के अनुमानित परिणाम पर विश्वास की तो बात ही क्या! इस तरह के परिणाम वास्तविक गिनती के बाद भी सामने आते हैं तो लोग उस पर भी विश्वास नहीं करेंगे। 

चुनाव परिणाम पर विश्वास नहीं करने के बाद आम मतदाता क्या करेंगे, यह अलग सवाल है। जन-अविश्वास के बाद सार्वजनिक व्यवस्था (Public Order) पर क्या और कैसा असर पड़ता है, यह दुनिया के इतिहास में दर्ज है। ‘एग्जिट पोल’ का मकसद यदि मतदान या मतगणना की धांधलियों के बावजूद परिणाम को जन-स्वीकार्य बनाना है तो यह गलत मकसद है। इसकी प्रतिक्रिया में जन-अस्वीकार्य का भी माहौल पहले से ही तैयार होने लग सकता है। यहां इतना कहना जरूरी है कि भारत इस समय बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा है।

किसी भी व्यक्ति या पत्रकार के मन में इधर-या-उधर के राजनीतिक रुझान के होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। यह न तो अ-स्वाभाविक है और न अ-शुभ है। अ-स्वाभाविक और अ-शुभ है अपने राजनीतिक रुझान के दबाव में किसी पत्रकार का किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता में बदल जाना। भारत की मुख्य-धारा की मीडिया के अधिकतर पत्रकारों की इस अ-स्वाभाविक स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है। प्रसंगवश, भारत ने वह दिन भी देखा है, जब मीडिया में लंबे समय तक रात-दिन हर मुद्रा में ‘ईमानदार’ अण्णा हजारे की छवि तैरती रही थी।

आज अण्णा हजारे कहां है! किसी को खबर है या यह कोई खबर हो सकती है? इस समय जब नरेंद्र मोदी की मौन-मुखर, क्रुद्ध-प्रसन्न छवि मुख्य-धारा की मीडिया में जगह घेरे रहती है, कल क्या होगा? कहना मुश्किल है, समझना आसान है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि अब मुख्य-धारा की मीडिया की चाहे जितनी भी शक्ति हो, चाहे जितना भी साधन हो वह सोशल मीडिया के असर का मुकाबला करने में नाकाम है। यह ठीक है कि सोशल मीडिया जितना शक्तिशाली या साधन संपन्न नहीं हो सकता है। लेकिन यह सोशल मीडिया के असर का ही कमाल है कि मुख्य-धारा की मीडिया भी सोशल मीडिया के रूप में प्रकट होती है।

तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बीच विपक्ष की राजनीति की सावधानियों और जनता के अधिकतम धैर्य के वातावरण में आम चुनाव 2024 लगभग शांतिपूर्ण माहौल में संपन्न हुआ। यह चुनाव व्यापक स्तर पर देखा जाये तो संविधान, लोकतंत्र, न्याय, रोजगार, महंगाई के मुद्दों पर केंद्रित रहा। राम मंदिर में भगवान राम की प्राण-प्रतिष्ठा, हिंदू-मुसलमान, भारत की संस्कृति, प्रधानमंत्री की वैश्विक छवि जैसे मुद्दा सत्ताधारी दल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उठाने की बार-बार कोशिश की।

तत्काल देखने में तो यही आया कि मुख्य-धारा की मीडिया के झुकाव के बावजूद सत्ताधारी दल के मुद्दों को वह उठान नहीं मिल सकी, जिस उठान की उम्मीद वे कर रहे थे। बीच-बीच में चमत्कारी और अवतारी संदर्भों से हांका लगाने की कोशिश होती रही, अपने-अपने तरीके से वोटरों को बटोरने के लिए शक्ति प्रदर्शन होता रहा। 

बहुविध प्रयास के बावजूद आम जनता के जीवनयापन के वास्तविक मुद्दों को भावनात्मक मुद्दों की मरीचिकाओं में भटकाना बहुत संभव नहीं हुआ। विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के नेता गण ध्यान भटकाने की आशंकाओं को लेकर अतिरिक्त सावधान बने रहे। बड़ी बात यह है कि राहुल गांधी ने आम जनता के सामने बहुत कारगर तरीके से ध्यान बंटाने, भटकाने के लिए जेबकतरों की तरकीब का जैसा प्रदर्शन किया वह लोगों के दिल और दिमाग में सफलतापूर्वक सक्रिय बना रहा।

जीवनयापन के वास्तविक मुद्दों को भावनात्मक मुद्दों से भटकाने की सारी कोशिशें बे-असर साबित हुईं। हालांकि ‘जन-भूमि’ से लेकर ‘तपो-भूमि’ तक ये कोशिशें अंतिम क्षण तक जारी रहीं। चुनाव परिणाम जो भी हो, लेकिन यह बात तय है कि जेबकतरा रूपक का प्रदर्शन 2024 के चुनाव का कारगर औजार साबित हुआ है। 

चुनाव परिणाम जो भी हो भारतीय जनता पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी कि कैसे विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) की भूमिका की विफलता का ठीकरा राहुल गांधी और कांग्रेस के सिर फोड़ा जाये और सफलता का श्रेय घटक दल और घटक दल के नेताओं को दिया जाये। घटक दल के नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को उभारने और भड़काने की सभी कोशिशें जारी रखने की अपनी राजनीतिक परियोजना पर भारतीय जनता पार्टी काम करना जारी रखेगी।

हालांकि विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) न बनने देने की भारतीय जनता पार्टी की सारी कोशिशें आम चुनाव में बे-असर ही साबित हुई हैं। फिर भी कहना न होगा कि यही वह राजनीतिक बिंदु है जहां भारतीय जनता पार्टी को विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) की एकता में फाट दिख रही होगी। 

याद किया जा सकता है कि कैसे 1977 के चुनाव में जन-समर्थन से सत्तासीन हुई जनता पार्टी महत्वाकांक्षाओं के भार और उभार से किस तरह टूट गई थी। याद किया जाना चाहिए कि जनता पार्टी को तोड़ने का यह तरीका कांग्रेस और उसके तत्कालीन नेता संजय गांधी ने अपनाया था। उम्मीद है कि विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के घटक दल इस बार अधिक सावधान रहेंगी। भारतीय जनता पार्टी विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के घटक दलों की महत्वाकांक्षा को भड़काने में कामयाब नहीं हो पायेगी। ध्यान रहे, यह एक न्यायपत्र थामे नई कांग्रेस है! लेकिन अभी और इस समय इस पर इससे अधिक बात करना प्रासंगिक नहीं है। यह समय तो चौकन्ना बने रहने का है।

भारत के लोकतंत्र के लिए सब से दुखद है, भारतीय जनता पार्टी की आक्रामक राजनीति के कारण राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का राजनीतिक दुश्मनी में बदलते चला जाना। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी बात-चीत के दौरान राजनीतिक नेताओं और दलों के बीच में ‘दुश्मनी’ के न होने की बात भी कही। यह ‘युद्धंदेहि’ की माहौलबंदी के लिए की जानेवाली बयानबाजी को देखते हुए यह संतोषजनक बात लगी थी। संतोष के सहलाने पर भरोसा अभी आंख खोल ही रही थी कि नरेंद्र मोदी की तरफ से ‘सात पीढ़ियों के पाप’ का हिसाब सामने रख देने जैसा अति-क्रुद्ध बयान आ गया। किसकी ‘सात पीढ़ियों के पाप’? कैसा पाप? क्या मतलब! इस बयान में विपक्ष के नेता के प्रति क्रोध भरी धमकी के अलावा भी कुछ है? शायद नहीं। किसी भी लोकतांत्रिक देश के शासन प्रमुख की ऐसी क्रोध-विखंडित मानसिकता के संकेत भयानक हैं। 

चुनाव परिणाम के बाहर आते ही कैसी राजनीतिक हलचल शुरू हो सकती है, इसका अनुमान आशंकाओं से भरा हुआ है। आशंकाएं इसलिए भी गहरी हैं कि पिछले दिनों सिर्फ पत्रकार ही नहीं, नौकरशाह भी अपने राजनीतिक रुझान या तैय साधना (तैनाती-तबादला-तरक्की) के तहत राजनीतिक कार्यकर्ता में बदलने से अपने को रोक नहीं पाये हैं। कोई भी पूर्वग्रह मुक्त मन-मस्तिष्क और खुले दिल से विचार करे तो इस स्थिति से इनकार नहीं किया सकता है।    

ध्यान देने की बात है कि यह समय नकारात्मकता के संगठित होने और सकारात्मकता के बिखराव में रहने का समय है। राजनीतिक नेताओं की इस मामले में बड़ी भूमिका रही है। सकारात्मक राजनीति के लिए यह मुश्किल दौर है। सकारात्मक राजनीति को पटरी पर लाने में राजनीति से जुड़े लोगों और नागरिक जमात को बहुत ही धीरज के साथ कड़ी मेहनत करनी होगी।

नागरिक जमात यदि मतगणना प्रक्रिया के न्यायपूर्ण होने तक ही सीमित रह जाती है तो  हर तरह के ‘अन्याय के खिलाफ न्याय युद्ध’ का यह चरण अनिर्णित ही रह जायेगा। साफ-साफ बात यह है कि देश और देश की आम जनता को सत्ता की राजनीति के हवाले अकेले नहीं छोड़ा जाना जा सकता है। यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि एक सही अर्थ में भारत की आम जनता साधारणतः स्वहित-अचेतनता से ग्रस्त रहती है। न्याय का व्यय-साध्य और समय-साध्य होना भी अन्याय का एक बड़ा कारण है। 

विभिन्न शक्ति-स्रोतों और आधिकारिकता (Entitlement) प्रदायी व्यवस्था पर ‘घरानों’ का न सिर्फ कब्जा है, बल्कि आपसी मारा-मारी भी है, उनके बीच में ऐसी कोई प्रतियोगिता नहीं है जिसका कोई लाभ आम जनता को हो। ऐसे घरानों में ‘घरानों’ प्रतियोगिता के नाम पर मिलीभगत बनी रहती है। सब कुछ को बाजार के अदृश्य हाथ में सौंपकर सरकार के हाथ झाड़ लेने के इस दौर में अकेले राजनीतिक नेताओं के भरोसे आम जनता के हित-रक्षण के सवाल को नहीं छोड़ा जा सकता है। समान अवसर (Level Playing Field) का महत्व चुनाव तक सीमित नहीं है, यह भारत के संविधान की मूल प्रतिज्ञा है। समान अवसर का महत्व जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में होता है। प्रसंगवश, भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (Competition Commission of India) की भूमिका पर भी नागरिक जमात को बात करनी चाहिए।  

गजब है, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष समेत सभी नेता दुहराते रहते हैं कि उनका सिद्धांत है; ‘न्याय सबका हक, तुष्टीकरण किसी का नहीं’ अगली ही सांस में कहते हैं कि कांग्रेस ने मुसलमानों के लिए कुछ नहीं किया। कुछ नहीं किया तो फिर ‘तुष्टीकरण’ के आरोप का क्या मतलब? लेकिन सवाल के जवाब पर सवाल करने की मीडिया को न तो इजाजत है, न फुर्सत है! 

कौटिल्य का अर्थशास्त्र तथा कामन्दकीय नीतिसार दोनों ही भारत की सांस्कृतिक परंपरा में महत्वपूर्ण हैं। कौटिल्य और चाणक्य एक ही व्यक्ति हैं। चाणक्य या कौटिल्य के अर्थशास्त्र साथ-साथ कामंदकीय नीतिसार को भी याद किया जाना चाहिए। लेकिन भारतीय जनता पार्टी को चाणक्य नीति पसंद है। जीवन को युद्ध में बनाये रखना भारतीय जनता पार्टी की ‘चाणक्य-नीति’ का राजनीतिक अभ्यास है। चाणक्य नीति के अनुसार युद्धों के लिये सक्षम रहने के लिए शिकार करने का अभ्यास निरंतर करना होता है।

लेकिन कामंदकीय नीतिसार के अनुसार शिकार अनावश्यक होता है। नीतिसार के मुताबिक जीवन रक्षा सबका अधिकार है और सह-अस्तित्व की भावना मनुष्य की मूल भावना है। नीतिसार में युद्ध को नहीं, कूटनीति, मंत्रणा और इसी तरह के अहिंसक तरीकों को अपनाने को प्राथमिकता प्राप्त है। 

गौर से देखने पर यह स्पष्ट होते देर नहीं लगेगी कि राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस कमोबेश जाने-अनजाने कामंदकीय नीतिसार का अनुसरण करती है। कामंदकीय नीतिसार में सहयोग और सहमेल की बात है। चाणक्य नीति में युद्ध और संघर्ष की बात है। साधारण आदमी हमेशा रण में नहीं जी सकता है। उसके पास एक ही उपाय होता है, ‘संधि और समर्पण’। ‘संधि और समर्पण’ की मांग सरकार समेत सभी आधिकारिकता (Entitlement) प्रदायी व्यवस्था, भगवान यही कहते हैं कि सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।

आज के भारत में राजनीति के सांस्कृतिक प्रसंग को देखें तो यह चाणक्य नीति और कामंदकीय नीतिसार के द्वंद्व और दुविधा के बीच का राजनीतिक संघर्ष है। लोकतंत्र में नागरिक अपने वोट के समर्पण के लिए तैयार न हो और राजनीति नागरिक को शरणागत बनाने पर आमादा हो तो नागरिक जीवन का वातावरण ‘युद्धमय’ हो जाता है।

देखना दिलचस्प होगा कि भारत के नागरिक समर्पण करने और शरणागत बनने के लिए तैयार होते हैं या स्वतंत्र नागरिक के रूप में अपने संविधान की रक्षा में सफल होते हैं। फैसला होना है, भारत के लोगों के लिए क्या महत्वपूर्ण है, सहयोग और सहमेल या समर्पण और शरणागति! इंतजार भारत को भी है, दुनिया को भी है। यकीनन, 04 जून 2024 भारत के लिए अति-महत्वपूर्ण है। 

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं।)

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