15 फ़रवरी की रात नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भारी भीड़ जमा हो गयी और बदइंतज़ामी ने उस भीड़ को भगदड़ में बदल दिया। दर्जन से ऊपर लोग अपनी जान गंवा बैठे, कई लोग घायल हो गये। मुआवज़े की घोषणा की रस्म पूरी हुई, लेकिन रेलमंत्री की संवेदनशीलता में किसी तरह की कोई थरथराहट नहीं दिखी। सवाल उठता है कि आख़िर वह पैमाना क्या हो, जिससे कोई रेलमंत्री की संवेदनशीलता मापी जाए। आइये, इस सवाल का जवाब इतिहास की कसौटी पर कसते हुए तलाश करते हैं।
स्वतंत्रता से पहले भारत में रेल दुर्घटनाओं के प्रति रेल मंत्रियों का रवैया
1947 में भारत की स्वतंत्रता से पहले रेल दुर्घटनाओं की ज़िम्मेदारी मुख्य रूप से ब्रिटिश प्रशासन के अधिकारियों के हाथों में थी, क्योंकि रेलवे ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में था। इन दुर्घटनाओं के प्रति रेलवे अधिकारियों का रवैया अधिकतर प्रशासनिक और तकनीकी था। वे रेलवे की कार्यक्षमता बनाये रखने पर अधिक, जवाबदेही तय करने या जनता के हितों की रक्षा करने पर उनका ध्यान नहीं के बराबर था, क्योंकि सरकार जनता की अपनी नहीं, परायी थी।
मंत्री पद पर जवाबदेही की कमी
ब्रिटिश शासन के दौरान इस्तीफ़े का कोई सवाल ही नहीं था। ब्रिटिश प्रशासन किसी भी उच्च अधिकारी को ज़िम्मेदार ठहराने के बजाय, केवल तकनीकी कारणों की जांच पर ज़ोर देता था। जांच प्रक्रियाएं तो अपनायी जाती थीं, लेकिन उनका उद्देश्य संचालन में हुई ग़लतियों का पता लगाना था, न कि बड़े अधिकारियों से जवाब-तलब करना था।
महत्वपूर्ण दुर्घटनाएं और ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया
बिहटा रेल दुर्घटना (1937)
यह स्वतंत्रता से पहले की सबसे भीषण रेल दुर्घटनाओं में से एक थी, जिसमें बड़ी संख्या में यात्रियों की मौत हुई थी। ब्रिटिश प्रशासन ने इस पर केवल तकनीकी जांच करायी थी, लेकिन किसी को मुआवज़ा देने या ज़िम्मेदारी तय करने का प्रयास बिल्कुल ही नहीं किया था।
अमृतसर रेल अग्निकांड (1915)
इस घटना में एक यात्री ट्रेन में आग लग गयी थी, जिससे कई यात्रियों की जानें चली गयी थीं। ब्रिटिश सरकार ने इस दुर्घटना की जांच तो कराई, लेकिन रेलवे सुरक्षा नियमों में कोई बड़ा सुधार नहीं किया। किसी की ज़िम्मेदारी तय करने या इस्तीफ़े का तो कोई सवाल ही नहीं था।
सुरक्षा से अधिक रेलवे विस्तार पर ध्यान
ब्रिटिश सरकार के लिए रेलवे का मुख्य उद्देश्य आर्थिक और प्रशासनिक लाभ था, न कि यात्रियों की सुरक्षा। दुर्घटनाओं के बाद केवल जांच समितियां बनायी जाती थीं, लेकिन सुरक्षा सुधारों या उच्च अधिकारियों की ज़िम्मेदारी तय करने पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था।
जहां स्वतंत्रता से पहले ब्रिटिश अधिकारियों का रवैया रेल दुर्घटनाओं के प्रति बहुत हद तक उदासीन था। वे केवल तकनीकी सुधारों पर ध्यान देते थे, लेकिन रेलवे की सुरक्षा व्यवस्था में कोई व्यापक बदलाव नहीं करते थे। इसके विपरीत, स्वतंत्रता के बाद भारतीयों की अपनी सरकार आयी, अपने नागरिकों के बीच से रेल मंत्री बने, लिहाज़ा भारतीय रेल मंत्रियों ने नैतिक ज़िम्मेदारी की परंपरा स्थापित की।
स्वतंत्रता के बाद रेलवे हादसों पर रेल मंत्रियों की प्रतिक्रिया
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से भारत में कई रेल दुर्घटनाएं हुई हैं, जिन पर हर रेल मंत्री की अलग-अलग प्रतिक्रिया रही है। दरअसल ये घटनाएं रेलवे मंत्रालय के नेतृत्व और जवाबदेही की परीक्षा बन गयीं।
लाल बहादुर शास्त्री: जवाबदेही की मिसाल
1950 के दशक में रेल मंत्री के रूप में लाल बहादुर शास्त्री का कार्यकाल एक महत्वपूर्ण उदाहरण माना जाता है। 1956 में दो भयानक रेल हादसे हुए। पहला, सितंबर में महबूबनगर रेल दुर्घटना, जिसमें 125 से अधिक लोग मारे गये, और दूसरा, नवंबर में तमिलनाडु के अरियालूर में हुई रेल दुर्घटना, जिसमें 150 से अधिक लोगों की जानें गयी थीं।
इन घटनाओं की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए शास्त्री जी ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने शुरुआत में उनका इस्तीफा अस्वीकार कर दिया था, लेकिन अरियालूर हादसे के बाद इसे स्वीकार कर लिया। उनके इस क़दम ने सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों के लिए एक उच्च नैतिक मानदंड स्थापित किया।
नीतीश कुमार: त्रासदी के बाद इस्तीफ़ा
1999 में असम के गैसाल में एक बड़ी ट्रेन दुर्घटना हुई, जिसमें 290 से अधिक लोग मारे गए। उस समय नीतीश कुमार रेल मंत्री थे, जिन्होंने इस घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए तत्काल इस्तीफ़ा दे दिया। उनके इस क़दम को रेलवे दुर्घटनाओं के प्रति जवाबदेही की एक और मिसाल माना गया।
ममता बनर्जी: इस्तीफ़े की पेशकश, लेकिन नामंज़ूर
ममता बनर्जी दो बार भारत की रेल मंत्री रहीं और उनके कार्यकाल में भी गंभीर रेल दुर्घटनाएं हुईं। 2000 में जब दो बड़ी रेल दुर्घटनाएं हुईं, तो उन्होंने नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया। हालांकि, तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उनका इस्तीफ़ा स्वीकार नहीं किया और उन्हें पद पर बने रहने के लिए कहा।
इससे यह स्पष्ट होता है कि रेल दुर्घटनाओं के बाद जवाबदेही का मुद्दा केवल व्यक्तिगत नैतिकता तक सीमित नहीं रहता, बल्कि राजनीतिक निर्णयों से भी प्रभावित होता है।
सुरेश प्रभु: सक्रिय जवाबदेही
2017 में सुरेश प्रभु के रेल मंत्री रहते हुए चार दिनों के भीतर दो ट्रेनें-कैफ़ियत एक्सप्रेस और पुरी-उत्कल एक्सप्रेस-पटरी से उतर गयी। इन घटनाओं के बाद उन्होंने यह स्वीकार करते हुए कि सुरक्षा में गंभीर चूक हुई थी, इस्तीफ़ा देने की पेशकश की।
हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें तत्काल पद छोड़ने से रोका, और अगले महीने वे रेल मंत्रालय से हट गए। इस घटना ने यह दिखाया कि आधुनिक समय में रेल मंत्रियों की जवाबदेही को संतुलित दृष्टिकोण से देखा जाता है, जिसमें इस्तीफे की पेशकश तो की जाती है, लेकिन इसे राजनीतिक और प्रशासनिक कारणों से स्वीकार नहीं किया जाता।
अश्विनी वैष्णव: वर्तमान चुनौतियां और आलोचना
मौजूदा रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के कार्यकाल में भी कई दुर्घटनाएं हुई हैं, जिनमें 2023 का बालासोर रेल हादसा सबसे भयानक था, जिसमें लगभग 300 लोग मारे गये।
इस दुर्घटना के बाद कई लोगों ने मंत्री की जवाबदेही पर सवाल उठाए। “पीपल्स कमीशन ऑन पब्लिक सेक्टर एंड पब्लिक सर्विसेज” जैसे संगठनों ने उन्हें कमज़ोर नेतृत्व के लिए ज़िम्मेदार ठहराया और आरोप लगाया कि उन्होंने रेलवे प्रशासन की व्यापक ख़ामियों को स्वीकार करने के बजाय निचले स्तर के कर्मचारियों पर दोष मढ़ दिया।
हालांकि, अश्विनी वैष्णव ने रेलवे सुरक्षा बढ़ाने के लिए कुछ प्रयास ज़रूर किए हैं, जैसे कि “कवच” नामक टकराव-रोधी तकनीक को लागू करना। उनके अनुसार, 2014-15 में जहां 135 रेल हादसे हुए थे, वहीं 2023-24 में यह संख्या घटकर 40 रह गई।
इससे पता चलता है कि रेलवे सुरक्षा में सुधार तो हुआ है, लेकिन जनता की धारणा तो हाई-प्रोफ़ाइल दुर्घटनाओं और सरकार की प्रतिक्रिया पर निर्भर करती है।
रेलवे मंत्रियों की जवाबदेही का बदलता स्वरूप
समय के साथ रेल मंत्रियों की जवाबदेही के तरीक़े बदल गये हैं। पहले के दशकों में लाल बहादुर शास्त्री जैसे मंत्री अपने पद से इस्तीफ़ा देकर नैतिक ज़िम्मेदारी लेते थे। लेकिन, अब यह ज़िम्मेदारी इस्तीफ़े से अधिक, सुरक्षा उपायों और प्रणालीगत सुधारों पर केंद्रित हो गयी है। सवाल है कि ऐसा क्यों है ?
रेलवे संचालन की जटिलता
भारतीय रेलवे का दायरा बहुत बढ़ चुका है। पहले की तुलना में अब सुरक्षा सुनिश्चित करने की चुनौतियां भी बढ़ गयी हैं, जिससे महज़ नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देना ही पर्याप्त नहीं समझा जाता।
राजनीतिक कारण
किसी मंत्री के इस्तीफ़े को स्वीकार करने या अस्वीकार करने का निर्णय केवल घटना की गंभीरता पर निर्भर नहीं करता, बल्कि सरकार की स्थिरता और अन्य राजनीतिक कारकों से भी प्रभावित होता है।
जनता की अपेक्षाएं
आज की डिजिटल दुनिया में लोग केवल इस्तीफ़े से संतुष्ट नहीं होते, बल्कि वे ठोस सुधार और सुरक्षा उपायों की मांग भी करते हैं। इस कारण की ओट में कई मंत्री इस्तीफ़े की जगह सुधारात्मक क़दम उठाने को प्राथमिकता देने लगे हैं।
अंतत:
रेल दुर्घटनाओं के प्रति भारतीय रेल मंत्रियों का दृष्टिकोण समय के साथ बदलता रहा है। स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं ने व्यक्तिगत जवाबदेही की मिसाल पेश की। वहीं बाद के वर्षों में कुछ मंत्रियों ने इस्तीफ़े दिए, जबकि अन्य ने अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए प्रशासनिक सुधारों पर ज़ोर दिया।
आज के दौर में यह समझा जाता है कि यात्री सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए केवल नैतिक ज़िम्मेदारी लेना पर्याप्त नहीं है, बल्कि रेलवे सिस्टम में व्यापक तकनीकी और प्रशासनिक सुधार भी ज़रूरी हैं। इस दृष्टिकोण से रेल मंत्रियों की भूमिका अब सिर्फ़ जवाबदेही निभाने तक सीमित नहीं रही, बल्कि रेलवे को अधिक सुरक्षित और आधुनिक बनाने की दिशा में कार्य करने पर केंद्रित हो गई है। लेकिन, आख़िरकार सवाल वहीं आकर खड़ा हो जाता है कि क्या हमारी नवीन राजनीतिक चेतना या संवेदनशीलता रेलवे सिस्टम में व्यापक तकनीकी और प्रशासनिक सुधार की पेंच में अटककर नए सिरे से औपनिवेशिक मानसिकता तो नहीं गढ़ रही है?
(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
+ There are no comments
Add yours