तहज़ीब की रूह कभी-कभी चीख़ती नहीं, सिसकती है। वो शोर नहीं मचाती, बस ख़ामोश होकर हमारी पेशानी से अपना नूर वापस ले लेती है।
और आज हिंदुस्तान की वही तहज़ीब, जिसने सूफ़ी संतों और संत कबीर की बातों से लेकर बहादुर शाह ज़फ़र की शायरी तक, एक गुलदस्ता बनाया था-आज उसी गुलदस्ते को नफ़रत के शोले से जलाया जा रहा है।
ये घटना म्यांमार की नहीं थी, ये शर्मनाक हरकत बर्मा की सरज़मीं पर नहीं, हमारे अपने मुल्क में हुई—ग़ाज़ियाबाद रेलवे स्टेशन पर।
जहां दीवारों पर हिंदुस्तान के शहीदों की तस्वीरों से सजी एक पेंटिंग लगी थी।
उसी में एक चेहरा उन्हें “मुसलमान” लग गया—और वही काफी था, उसे ग़द्दार क़रार देने और उस पर कालिख पोत देने के लिए।
वो चेहरा किसी आम आदमी का नहीं, बल्कि 1857 की जंगे-आज़ादी का सबसे पहला और सबसे बड़ा प्रतीक—
बहादुर शाह ज़फ़र का चेहरा था।
“हिंदू रक्षा” के नाम पर निकले कुछ तथाकथित ‘वीर बांकुड़े’
इतिहास से बेख़बर, तहज़ीब से बेअसर, और ज़मीर से खाली लोग
उसे ग़द्दार मानकर दीवार पर चढ़ गए, और अपने तुच्छ अहंकार के रंग में बहादुर शाह ज़फ़र की तस्वीर पर कालिख पोत दी।
कहते हैं, उन्होंने अपने “इतिहास” की रक्षा की है।
ज़रा सोचिए, किस इतिहास की?
क्या वो इतिहास जिसमें 1857 की बग़ावत को पहली बार देश की आज़ादी की लड़ाई कहा गया था?
वो इतिहास जिसमें हिंदू-मुस्लिम, सिख-ईसाई सबने मिलकर फिरंगी हुकूमत की जड़ों को हिला दिया था?
या वो झूठा, स्याह, जहालत से भरा हुआ “इतिहास” जिसमें मुसलमान होना गुनाह है,
और मज़हब देखकर शहीदों की तहरीर बदल दी जाती है?
बहादुर शाह ज़फ़र—एक शायर, एक बूढ़ा बादशाह नहीं, बल्कि उस तहज़ीब का आख़िरी क़िला थे
जिसने मुग़लिया तामीरात से लेकर उर्दू शायरी तक, हिंदुस्तान को एक ग़ैरमामूली हुस्न अता किया।
वो जब बर्मा के जेलखाने में तन्हा मरे, तो अंग्रेज़ों ने एक चट्टान पर लिखा—”यहां हिंदुस्तान का आख़िरी बादशाह दफ़्न है।”
और आज उसके अपने वतन में ही उसकी तस्वीर पर कालिख पोत दी जाती है, क्योंकि वो मुसलमान था?
ये हरकत बहादुर शाह ज़फ़र के ख़िलाफ़ नहीं थी—ये भारत के उस साझा अतीत के ख़िलाफ़ थी जो फ़क़त हिंदू या मुसलमान नहीं,
बल्कि एक मोहब्बत से सना हुआ ताजमहल है, एक भक्ति और सूफ़ी संगम है, एक गंगा-जमनी तहज़ीब है।
और इसी तर्ज़ पर कुछ रोज़ पहले औरंगज़ेब की क़ब्र को भी निशाना बनाया गया था।
उस पर कालिख पोतने वाले शायद ये भूल गए कि औरंगज़ेब ने ताजमहल जैसी इमारतें नहीं बनवायीं,
लेकिन अपनी ज़ात से सादगी और खुद्दारी का वो सबक़ दिया जो आज के हुक्मरानों के लिए आईना बन सकता है।
उसने अपने हाथों से कुरआन की नक़लें लिखकर गुज़ारा किया,
वो न गद्दी से चिपका रहा, न ऐश के महल बनवाए।
मगर आज उसी के नाम को ज़हर बना दिया गया- क्योंकि उसे मुसलमान कहा गया?
कितना आसान है आज इस मुल्क में किसी नाम को मिटा देना,
किसी चेहरे को ग़द्दार बना देना, किसी तस्वीर पर कालिख पोत देना-
बिना जाने, बिना पढ़े, बिना समझे।
मगर एक बात याद रखिए-तारीख़ पर कालिख नहीं ठहरती।
वो धोयी जाती है, मिटाई जाती है, और फिर वही चेहरा, और भी ज़्यादा रौशन होकर सामने आता है।
जो आज बहादुर शाह ज़फ़र की तस्वीर से डरते हैं,
वो दरअसल अपने झूठे इतिहास के आईने में उस शख़्स के सच को नहीं देख पाते।
जिसने कहा था—
“कितना है बदनसीब ज़फ़र, दफ़्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।”
आज उसी ज़फ़र को, जिसे अंग्रेज़ों ने मरा हुआ समझा,
हमारे अपने देश के कुछ ‘जिंदा लाशें’ फिर से मार रही हैं— लेकिन वो नहीं जानते कि शायर मरते नहीं।
शहीद मिटते नहीं।
और नफ़रत, मोहब्बत की तारीख़ को कभी पूरी तरह स्याह नहीं कर सकती।
अब ज़रूरत इस बात की है कि हम चुप न रहें।
हम हर कालिख के सामने एक नया चिराग़ जलाएँ।
हर झूठे ‘वीर’ के मुंह पर उस तहज़ीब की सच्ची कहानी सुनाएं,
जिसमें बहादुर शाह ज़फ़र भी हैं, टीपू सुल्तान भी, और अशफ़ाक़ उल्ला खां भी।
वरना, वो दिन दूर नहीं जब हर मज़ार, हर तस्वीर, हर किताब, और हर तराना
एक ही सवाल करेगा—
“क्या ये वही हिंदुस्तान है, जिसकी आज़ादी की लड़ाई मैंने लड़ी थी?”
(जौवाद हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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