इस देश में आज से 70 साल पहले लागू किए गए संविधान, जिसको 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया था और भारतीय राष्ट्रराज्य उसी दिन एक गणतंत्र बन गया था, में प्रथम पृष्ठ पर यह स्पष्टता से लिखा गया है कि ‘हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों कोः सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ईसवी को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’
अब यक्ष प्रश्न है कि क्या हम भारत के रहने वाले सभी जाति, धर्मों के लोग आपस में उक्त लिखित संविधान प्रदत्त अधिकार के तहत बराबरी के मर्यादा का पालन करते हैं? पिछले 70 सालों में क्या संविधान प्रदत्त इस वचन को यहाँ की जितनी भी सरकारें जो इस देश में सत्तारूढ़ रहीं हैं, वे इस देश में जाति, धर्म विहीन बराबरी के समाज की स्थापना कर पाई हैं? इसका उत्तर है बिल्कुल नहीं। अभी पिछले दिनों एक सरकारी सर्वेक्षण किया गया उसमें यहाँ के हिन्दूवादी समाज के कथित उच्च जातियों के लोगों से जब पूछा गया कि ‘क्या वे अभी भी इस देश के कथित नीची जातियों से भेदभाव व छुआछूत रखते हैं? ‘उनमें से 70 प्रतिशत लोगों ने कहा ‘नहीं, दलित जातियों में से कोई भी मेरी टेबल पर बैठकर खाना खाए, हमें कोई आपत्ति नहीं है। ‘ लेकिन जब उनसे आगे यह पूछा गया कि ‘क्या आप किसी नीची जाति के घर का बना हुआ भोजन खा लेंगे? या आप अपने रसोईघर में किसी नीची जाति के व्यक्ति को भोजन पकाने की अनुमति देंगे?’ इस प्रश्न के उत्तर में अधिकांशतः कथित उच्च जातियों के लोगों ने स्पष्टता से कहा कि ‘नहीं, ये तो नहीं हो सकता।’ मतलब भारत की कथित उच्च जातियों के लोग बहुसंख्यक नीची कही जाने वाली जातियों से एक निश्चित दूरी बनाए रखना चाहते हैं !
इस देश को गणतंत्र घोषित होने के बाद 70 साल का एक-एक दिन इसका जीता-जागता गवाह है कि यहाँ के जातिगत आधार पर बँटे समाज में जातिगत वैमनस्यता, अशपृष्यता, छुआछूत, असमानता, नारकीय भेदभाव आदि यहाँ के कथित धर्म और जाति के स्वयंभू ठेकेदारों ने तो और भी सुदृढ़ किया ही है, सबसे दुःख और अफसोस की बात यह है कि यहाँ की लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों के कर्णधार, जिन पर संविधान की गरिमा की रक्षा करने की सबसे ज्यादे महती जिम्मेदारी व प्रतिबद्धता है, वे ही संवैधानिक व्यवस्था की बखिया उधेड़े जा रहे हैं और उसकी धज्जियाँ उड़ाए जा रहे हैं। यहाँ पूरी निर्लज्जता और बेशर्मी से इसी देश में किसी क्षेत्र विशेष में जातियों की बाहुल्यता के आधार पर अपनी राजनैतिक पार्टी के जातिवादी उम्मीदवार तय किए जाते हैं, घोषित किए जाते हैं !
जहाँ तक यहाँ के समाज की बात है,यहाँ का समाज दुनिया भर के सशक्त व उन्नतिशील राष्ट्रों के समाजों से जातिगत् वैनस्यता के मामले में सबसे क्रूर, अमानवीय, असहिष्णु व गिरा हुआ समाज है, उदाहरणार्थ यहाँ हजारों उदाहरण हैं,जिसमें कथित नीची जातियों के साथ अमानवीयता व क्रूरता की पराकाष्ठा तक यहां की ऊँची कही जाने वाली जातियाँ दुर्व्यवहार करतीं हैं,कहीं केवल नीची कही जानेवाली जाति के युवक द्वारा मूँछ रखने, कुर्सी-मेज पर खाना खा लेने, अपनी शादी में घोड़े पर बैठने, मरी गाय की खाल न छीलने, खेत में मजदूरी न करने आदि कारणों पर अमानवीय बेइज्जती के साथ-साथ उनको मौत के घाट उतार दिए जाने की अत्यंत दुःखद घटनाओं के समाचार प्रायः समाचार पत्रों में प्रकाशित होते ही रहते हैं। इसके लिए अक्सर कथित दोषियों पर मुकदमे आदि होते रहते हैं,लेकिन भारतीय न्यायिक व्यवस्था के लचर व भेदभावपूर्ण व्यवहार से बहुत कम दोषियों को ही सजा हो पाती है।
यक्ष प्रश्न है कि इस तरह के कदाचार के मामले में किसी व्यक्ति को सजा देने के लिए यहाँ की न्यायिक व्यवस्था अपनी आधी-अधूरी कोशिश तो करती है,परन्तु भारतीय समाज में जातिवाद को खूब खाद-पानी देने वाले और उसे परिपोषित कर जातिगत् व धार्मिक वैमनस्यता को बढ़ावा देने वाले राजनैतिक पार्टियों के कर्णधारों के किए गंभीर अपराध पर यहाँ की न्यायपालिका के कथित न्यायमूर्ति भी अपनी आँखें बन्द कर लेते हैं,उदाहरणार्थ अभी पिछले दिनों हाथरस में एक कथित नीची जाति की लड़की से उसके गाँव के ही कथित कुछ उच्च जाति के नरपिशाच युवकों ने पहले बलात्कार किया,उसकी जीभ काटी,उसकी गर्दन और रीढ़ तोड़कर उसको बुरी तरह शारीरिक रूप से चोट पहुँचाई, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार का मुखिया कथित एक उच्च जाति का मंदिर का पुजारी है, उसने स्पष्टरूप से उस दलित लड़की की घोर उपेक्षा किया और प्रत्यक्षतः बलात्कारियों की मदद किया, मसलन, हफ्तों बलात्कार होने को ही नकारता रहा,उचित ईलाज न कराके इधर-उधर घुमाता रहा,अंततः उस अबला लड़की की दुःखद मौत हो जाने के बाद उसके शव को उसके परिजनों की इच्छा के विरूद्ध जाकर रात के अंधेरे में अपनी उत्तर प्रदेश पुलिस फोर्स की मदद से जबरन जलाकर सबूत मिटा देने के अक्षम्य अपराध करके,बलात्कारियों के मनोबल को और बढ़ाने का कुकृत्य किया,जबकि सम्बन्धित राज्य का मुख्यमंत्री होने के नाते उसका यह अभीष्ट, न्यायोचित्त व संवैधानिक कर्तव्य था कि वह निरपेक्ष, निर्लिप्त और निष्पक्ष भाव से बलात्कारियों को बगैर जातिगत् दुराग्रह के संवैधानिक अधिकार के तहत कठोरतम् दंड दिलवाने की प्रक्रिया अपनाता, लेकिन वह जातिगत् दुर्भावनाओं को बहुत ही फूहड़, अमर्यादित व असंवैधानिक ढंग से बढ़ावा दिया !
आश्चर्य और हतप्रभ करने वाली स्थिति है कि इस देश के एक मुख्यमंत्री द्वारा इतने बड़े अपराध करने के बावजूद यहाँ की न्यायपालिकाएं उस मुख्यमंत्री पर अपने स्वतः संज्ञान के अधिकार का अब तक प्रयोग नहीं कीं ! उलटे यह बेशर्म और खुद अपराधिक पृष्ठभूमि का, आकंठ कई मुकदमों में स्वयं आरोपित मुख्यमंत्री उन न्यायप्रिय लोगों पर अनेकों मुकदमे किए हैं, जो उसके द्वारा उक्त कुकृत्य का विरोध कर रहे थे ! आज भी उनमें से कई जेलों में बंद हैं ! जातिवाद संरक्षण की इस तरह की घटनाएं इस देश में अक्सर होती ही रहतीं हैं। इस तरह इस देश में जातिवाद कभी समाप्त ही नहीं होगी। न यहाँ के समाज के सभी जातियों को संविधान प्रदत्त सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक न्याय व समानता का कभी अधिकार मिल पाएगा !
सबसे बड़े दुःख और अफसोस की बात यह है कि इस देश और भारतीय समाज को जातिवाद रूपी कोढ़ ने पतन,गुलामी और दुनियाभर में सबसे पिछड़ा होने को भी अभिशापित किया है,परन्तु जातिवाद को यथावत रखनेवाली शक्तियां अभी भी अपना पूरा जोर और शक्ति इस बात के लिए लगाई हुईं हैं कि यहाँ भारतीय समाज को विखंडित करने वाला नरपिशाच मनु द्वारा अविष्कृत जातिवादी व्यवस्था कायम रहनी चाहिए, इसमें कोई शक नहीं कि इस अमानुषिक और राक्षसी सोच के मुख्य अभियुक्त इस देश पर शासन करने वाली भारतीय जनता पार्टी की पितृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही है। इस देश के 85 प्रतिशत बहुसंख्यक आबादी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस विकृत और अमानवीय सोच को लागू करने से पूर्व ही सशक्त, संगठित व सामूहिक रूप से प्रबलतम् विरोध करनी ही चाहिए, यह समयोचित्त, न्यायोचित्त व हर तरह से सभी के लिए,इस देश और यहाँ के समाज के लिए भी कल्याणकारी भी है।
इस जातिवादी जहर की ही वजह से ही यहाँ कोई भी मजदूर आंदोलन,किसान आंदोलन,छात्र आंदोलन और कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा काल्पनिक वर्ग संघर्ष कभी भी सफल नहीं होता ! वास्तविकता यह है कि इस देश में बगैर जातियों को समाप्त किए वर्ग संघर्ष की कल्पना करना ही बेमानी है,क्योंकि यहाँ के मजदूर,किसान और छात्र ही जब हजारों जातियों-उपजातियों में बँटे हैं,तो उस स्थिति में वर्ग संघर्ष की बात करना ही निरा मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है ! सच्चाई और कटु यथार्थ यह है कि इस देश से जब तक जातिवादी रूपी कैंसर का समूल नाश नहीं होगा, तब तक कम्युनिस्ट पार्टियों का वर्गसंघर्ष एक दिवास्वप्न ही रहेगा, इसलिए सर्वप्रथम इस देश से जातिवाद रूपी कैंसर को जड़मूल से मट्ठा डालकर नष्ट करना ही होगा,तभी इस देश में कोई भी आंदोलन सफलीभूत होगा और तभी इस देश में सभी के लिए खुशहाली भी आयेगी।
(निर्मल कुमार शर्मा, गौरैया एवम पर्यावरण संरक्षण के साथ ही पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन करते हैं।)
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