अब क्यों नहीं संभल रहा कश्मीर?

नरेन्द्र मोदी सरकार पिछले साल से ही, जब कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों की टारगेट किलिंग का नृशंस सिलसिला शुरू हुआ, बारम्बार दावा करती आ रही है कि वहां संक्रिय आतंकवादी सुरक्षाबलों द्वारा चलाये जा रहे सफाया अभियानों से बौखला गये हैं। लेकिन आतंकवादी हैं कि वे खुद पर कोई अंकुश मानते दिखाई नहीं देते। अंकुश मानते तो उस कुलगाम में ही, जहां उन्होंने गत मंगलवार को एक सरकारी स्कूल में घुसकर रजनीबाला नाम की दलित शिक्षिका को गोलियों से भून डाला था, अगले ही दिन एक बैंक में घुसकर उसके मैनेजर विजय कुमार की जान भी न ले लेते। ज्ञातव्य है कि इससे पहले 12 मई को उन्होंने बड़गाम में सरकारी कर्मचारी राहुल भट के दफ्तर में घुसकर उसे गोली मार दी थी, जबकि टीवी ऐक्ट्रेस अमरीन भट्ट की हत्या इन सबके अतिरिक्त थी।

इस खूंरेजी से स्वाभाविक ही कश्मीरी पंडितों में असुरक्षा बहुत बढ़ गई है और वे विरोध-प्रदर्शनों में अपना गुस्सा फोड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, वे कश्मीर घाटी से बड़े पैमाने पर नये पलायन की चेतावनी दे रहे हैं और सुरक्षा गारंटी के बिना वहां रहने को तैयार नहीं हैं। यह सब इस अर्थ में बहुत दुःखद है कि ऐसे समय में हो रहा है जब केन्द्र सरकार आतंकवाद के लिहाज से देश के इस सबसे संवेदनशील सीमावर्ती राज्य के अमन चैन की ओर बढ़ने और दशकों पहले घाटी के अपने घर-बार छोड़ गये पंडितों की घर-वापसी की उम्मीद जता रही थी। ‘द कश्मीर फाइल्स’ नामक बहुचर्चित फिल्म को लेकर बहसों में तो उसकी ओर से ऐसा जताया जा रहा था जैसे जम्मू-कश्मीर को लेकर जो भी गलतियां हुईं, अतीत में ही हुईं र्और अब वहां सब कुछ चाकचैबन्द है।

लेकिन यह दावा कितना गलत था, इसे इस बात से समझ सकते हैं कि गत अक्टूबर में कश्मीर घाटी में पंडितों की टारगेट किंलिंग को लेकर केन्द्र सरकार की नींद टूटी तो भी गृहमंत्री अमित शाह को इसके अलावा कुछ नहीं सूझा कि हालात की उच्चस्तरीय समीक्षा के बाद केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल व नेशनल इन्वेस्टिगेटिंग एजेंसी के चीफों को घाटी भेजें और आतंकवादियों के खिलाफ अभियान और तेज करायें। लेकिन उसका भी अब तक कोई हासिल देखने में नहीं आ रहा और आतंकी इस सरकारी दर्पोक्ति के बावजूद बेखौफ दिख रहे हैं कि सुरक्षाबलों को हत्यारे आतंकियों को मार गिराने की खुली छूट हासिल है और वे उनका पीछा कर उन्हें मारकर गिरा भी रहे हैं।

जरा और पीछे जाकर देखें तो 2019 में जम्मू-कश्मीर सम्बन्धी संविधान का अनुच्छेद 370 हटाया गया तो देशवासियों को विश्वास दिलाया गया था कि अब वहां न सिर्फ अमन-चैन लौट सकेगा, बल्कि भारी निवेश से विकास कार्य तेज होंगे, जिनसे खुशहाली आयेगी, बेरोजगारी का खात्मा होगा, विस्थापित कश्मीरी पंडित अपने घरों को लौट सकेंगे और देश का कोई भी नागरिक वहां भूमि खरीद सकेगा। कई बददिमागों द्वारा तो यह कहने में भी संकोच नहीं किया गया था कि ‘वहां की खूबसरत युवतियों को ब्याह कर ला सकेगा।’

लेकिन आज हम देख रहे हैं कि वहां शांति बहाल होने के बजाय पंडितों को चुन-चुनकर मारा जाने लगा है, जिससे उनके 1990 के विस्थापन के दौर की वापसी होती दिखाई पड़ने लगी है और जिन लोगों ने उस दौर में भी घाटी में बने रहने का हौसला दिखाया था, वे भी पलायन की सोच रहे हैं। कुछ महीने पहले तक आतंकी बिहार व उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों से वहां गये प्रवासी मजदूरों को निशाना बना रहे थे और अब वहां के सरकारी कर्मचारियों व शिक्षकों और शिक्षिकाओं को निशाने पर ले रहे हैं।

इस सवाल का सामना करें कि ऐसा क्यों है तो जवाब कश्मीर सम्बन्धी सरकारी नीति की बदनीयती व अपंगता की ओर ही ले जाता है। फिलहाल, यह बात किसी से छिपी नहीं कि 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद से ही कश्मीर की समस्या को साम्प्रदायिक नजरिये से देखकर और भारतीय जनता पार्टी का अधूरा एजेंडा पूरा करने के लिए नीतियां बनाई व अमल में लाई जा रही हैं। इसके पीछे का यह दृष्टिकोण भी किसी से छिपा नहीं है कि इन नीतियों से कश्मीर समस्या का समाधान हो या नहीं, शेष देश में साम्प्रदायिकता की जो बयार बहेगी, उससे भाजपा की झोली वोटों से भर जाया करेगी।

क्या आश्चर्य कि 2016 में सत्तालोभ बेकाबू हो गया तो उसने वहां महबूबा मुफ्ती की उस पीडीपी से मिलकर सरकार बना ली, जो वहां के विधानसभा चुनाव में अपनी जीत के लिए आतंकवादियों की कृतज्ञ थी। फिर अपनी जमीन थोड़ी मजबूत कर उस सरकार को गिरा भी दिया। हां, आतंकवादियों ने कश्मीर घाटी में टारगेट किलिंग शुरू की तो भी उनकी आड़ में देश भर में साम्प्रदायिक माहौल बनाना सबसे पहले इस सरकार के समर्थकों ने ही शुरू किया।

ऐसे में साफ कहें तो आगे कश्मीर में आतंकवाद का खात्मा और अमन चैन की बहाली बहुत हद तक इस पर निर्भर करेगी कि केन्द्र सरकार उस सम्बन्धी अपने साम्प्रदायिक एजेंडे से कितना परहेज कर पाती है? अभी तो न वह अपने साम्प्रदायिक एजेंडे से परहेज कर पा रही है और न काहिली से। निस्संदेह यह उसकी काहिली की ही मिसाल है कि उसने अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियां बढ़ने को लेकर बार-बार जताये जा रहे अंदेशों को गम्भीरता से नहीं लिया और गफलत में रही कि नागरिकों और उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों को विश्वास में लिये बिना राज्य के निवासियों को लगातार संगीनों के साये में रखकर आतंकवादियों से निपट लेगी।

उसकी यह गफलत ऐसी थी कि लश्कर-ए-तैयबा की शाखा दि रेसिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) ने गत वर्ष टारगेट किलिंग शुरू करने से एक महीना पहले ही घाटी में रह रहे बाहरी लोगों को टारगेट एवं बहिष्कृत करने की रणनीति का एलान किया था-बाकायदा मैसेजिंग ऐप टेलीग्राम और वीपीएन-संरक्षित ब्लॉग ‘कश्मीर फाइट’ के माध्यम से दस्तावेज जारी करके। लेकिन सरकार को या तो इसकी जानकारी नहीं थी या वह जानबूझकर नादान बनी रही थी, जब तक कि टीआरएफ ने अपनी रणनीति पर अमल नहीं शुरू कर दिया।

तब टीआरएफ ने न केवल उन नागरिकों को टारगेट करने की धमकी दी थी जो गैरस्थानीय लोगों को उनके व्यापार में मदद करते हैं, या उन्हें रहने के लिए जगह देते हैं, बल्कि उन प्रशासनिक अधिकारियों को निशाना बनाने को भी धमकाया था, जो गैरस्थानीय लोगों को अधिवास प्रमाण पत्र दिलाने में मदद करते हैं।

सरकार इसका समय रहते पता लगाकर या उसे संज्ञान में लेकर अपनी मशीनरी को सक्षम व सचेत बना देती तो असमय जानें गवाने को मजबूर हुए कई निर्दोषों की प्राणरक्षा भी हो जाती। लेकिन वह संविधान का अनुच्छेद-370 हटाने और जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा छीनकर उसे दो केन्द्रशासित प्रदेशों में विभाजित कर देने के साथ जैसे पूरी तरह आश्वस्त हो गई थी कि इससे वहां फैला आतंकवाद उड़न छू हो जायेगा। हालांकि नोटबंदी के बाद उसके द्वारा किया गया ऐसा ही दावा गलत सिद्ध हुआ था और दूध के जले के छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने की स्थिति थी, जो अभी भी बनी हुई है।

बेहतर होगा कि वह अपनी अब तक की कश्मीर नीति की ईमानदारी से समीक्षा करे और वहां की जनता को विश्वास में लेकर ऐसे कदम उठाये, जिनसे क्या स्थानीय और क्या बाहरी सभी लोगों में सुरक्षा की भावना पैदा हो। अगर वहां के पूर्व उपराज्यपाल सत्यपाल मलिक का यह दावा सही है कि उनके कार्यकाल में राजधानी श्रीनगर की 50-100 किमी की सीमा में कोई आतंकी प्रवेश नहीं कर पाता था और अब सारी गड़बड़ बदले हुए इंतजामों के कारण हुई है, तो उनके वक्त के इंतजामों की पुनरावृत्ति पर विचार क्यों नहीं किया जा सकता? खासकर जब वहां भाजपा के नेता और कार्यकर्ता भी मारे जा रहे हैं।

बहरहाल, जैसे भी हो, जम्मू-कश्मीर में शांति और विश्वास की बहाली बहुत जरूरी है। यह जरूरत पूरी करने के लिए प्रधानमंत्री का सर्वदलीय बैठक बुलाकर विचार-विमर्श करना भी उपयोगी हो सकता है। लेकिन यह कहने से कतई काम नहीं चलने वाला कि आतंकवादी हताशा में खूंरेजी पर आमादा हैं। सुनिश्चित करना होगा कि निर्दोष नागरिकों को उनकी हताशा का मूल्य अपनी जानों से न चुकाना पड़े।  

(कृष्ण प्रताप सिंह दैनिक अखबार जनमोर्चा के संपादक हैं। और आजकल फैजाबाद में रहते हैं।)

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