संविधान के प्रिएंबल में ‘सेक्युलर’ शब्द पर ये ‘तूफान’ क्यों? 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के उप-प्रमुख या सर-कार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले संघ-भाजपा परिवार के पहले नेता नहीं हैं, जिन्होंने भारतीय संविधान के प्रिएंबल से ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्द हटाने की मांग की। दक्षिणपंथी खेमे के बहुतेरे लोग इस तरह की मांग पहले से करते आ रहे हैं। जून, 2025 में होसबाले साहब ने उस पुरानी मांग को फिर से दोहराया भर है। उन्होंने कहा कि संविधान में ये शब्द इमरजेंसी के दौरान जोड़े गये थे। इसलिए विचार करना चाहिए कि अब ये शब्द रहें या नहीं! उन्होंने इस बारे में दूसरी दलील दी कि बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की तरफ से जो संविधान तैयार हुआ, दोनों शब्द उसके हिस्सा नहीं थे। अपनी इन दोनों दलीलों के जरिये उन्होंने संविधान के प्रिएंबल में संशोधन के प्रस्ताव को चर्चा में लाने की कोशिश की।

चूंकि इस वक्त देश के मुख्यधारा मीडिया का बड़ा हिस्सा, खासकर टेलीविजन चैनल पूरी तरह सत्ता-पक्ष के प्रचारक बनकर उभरे हैं, इसलिए आरएसएस के उप-प्रमुख की उक्त टिप्पणी फौरन चर्चा में आ गई। देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ सहित अनेक नेताओं ने इस मुद्दे पर बोलना शुरू कर दिया। धनखड़ साहब ने कहा कि इमरजेंसी के दौरान प्रिएंबल में जोड़े गये सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द नासूर बन गये हैं। ये दोनों शब्द ‘सनातन की भावना’ का अपमान हैं। उपराष्ट्रपति ने भी इस संदर्भ में बाबा साहेब का नामोल्लेख किया। इन दोनों शब्दों के प्रिएंबल में शामिल करने को उन्होंने बाबा साहेब के विचारों के प्रतिकूल बताने की कोशिश की। 

दत्तात्रेय साहब और उपराष्ट्रपति धनखड़ के बाद आरएसएस-भाजपा खेमे के नेताओं की तरफ से इस विषय पर बयानों की बारिश होने लगी। ज्यादातर ने कहा कि ये शब्द बाबा साहेब डॉ. बीआर अम्बेडकर के विचारों के उलट हैं। कुछ ने तो ये भी कहा कि बाबा साहेब के ऐसे विचार होते तो प्रिएंबल में उन्होंने स्वयं ही ‘सेकुलर’ जैसे शब्द को जोड़ा होता! कुल मिलाकर सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द को बाबा साहेब के विचारों के विरूद्ध खड़ा करने की कोशिश की गई और अब भी की जा रही है। विपक्षी दलों ने आरएसएस-भाजपा नेताओं के इस आशय के बयानों के प्रतिवाद तो किया लेकिन उनमें ज्यादातर ने अपने प्रतिवाद में सिर्फ बयानबाजी भर की।

उसमें संघ-भाजपा के आख्यान के समानांतर कोई ठोस तथ्य नहीं पेश किया। आरएसएस-भाजपा नेताओं ने जिस तरह इस बहस में बाबा साहेब डॉ. बीआर अम्बेडकर का नाम शामिल किया है, उसका क्या मतलब है? क्या बाबा साहेब सेक्युलर या सोशलिस्ट शब्द से चिढ़ थी? क्या वह सेक्युलरिज्म की धारणा या विचारधारा के विरूद्ध थे या उससे असहमत थे? क्या सेक्युलरिज्म से अपनी कथित असहमति के कारण ही उन्होंने संविधान के प्रिएंबल में सेक्युलर शब्द को शामिल नहीं किया? सच्चाई क्या है? 

आरएसएस-भाजपा के नेता और अन्य जो लोग भी बाबा साहेब का नाम लेकर इस आशय का आख्यान पेश कर रहे हैं, उसका कोई सिर-पैर नहीं है। उनकी बातें पूरी तरह तथ्यहीन हैं। इस बारे में विश्लेषण से पहले कुछ ठोस तथ्यों को पेश करना यहां जरूरी है। यह बात सही है कि बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की अगुवाई में भारत का जो संविधान बना था, उसके प्रिएंबल में सेक्युलर और सोशलिस्ट जैसे शब्द नहीं थे। ये दोनों शब्द 1976 में 42वें संविधान-संशोधन के जरिये जोड़े गये। यह बात भी सही है कि उस दौरान देश में इमरजेंसी घोषित थी। पर इस तथ्य को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि ये संशोधन भी संसद में भारी बहुमत के जरिये ही हुए थे। हां, ज़रूर कहा जा सकता है कि उस वक्त विपक्ष के अनेक नेता जेल में थे।

उनकी अनुपस्थिति में संविधान संशोधन हुआ था। पर मौजूदा सत्तापक्ष क्या इसे मुद्दा बनाने का नैतिक बल रखता है? उसने स्वयं ही कई कानून और संविधान संशोधन विपक्ष की अनुपस्थिति या उसके घोर विरोध के बीच पारित कराये हैं। दूसरी बात, क्या सेक्युलर और सोशलिस्ट जैसे शब्दों के संविधान में शामिल करने का सिर्फ इसलिए विरोध करना वाजिब होगा कि ये इमरजेंसी में क्यों किये गये? भाजपा-आरएसएस नेताओं के ताजा बयानों से लगता है कि ‘इमरजेंसी के वक्त’ की दलील से भी ज्यादा वे इन दोनों शब्दों को आपत्तिजनक मान रहे हैं। इसके लिए यह तक दलील दे रहे हैं कि बाबा साहेब भी ऐसे शब्दों के विरूद्ध थे। अगर नहीं होते तो उन्होंने स्वयं ही इन्हें प्रिएंबल में शामिल किया होता! 

इस प्रकरण पर आरएसएस-भाजपा नेताओं की सारी दलील यहीं आकर बेदम हो जाती है। अगर किसी आख्यान में प्रमुख तथ्य या तर्क ही निराधार हैं तो उस आख्यान में क्या बचेगा? संघ-भाजपा नेताओं की तर्कों की बात छोड़िये, इस बारे में उनके मूल तथ्य ही गलत हैं। पहला तथ्य जो गलत है, वह ये कि बाबा साहेब ने संविधान के प्रिएंबल में सेक्युलर शब्द नहीं जोड़ा क्योंकि वह संविधान का चरित्र सेक्युलर रखने के विरूद्ध थे। सच ये है कि बाबा साहेब ने प्रिएंबल में सेक्युलर शब्द इसलिए नहीं जोड़ा क्योंकि उनका मानना था कि भारत का पूरा संविधान ही सेक्युलर मूल्यों पर आधारित है। जब पूरा संविधान ही सेक्युलर है तो इस एक शब्द को अलग से प्रिएंबुल में रखने का क्या औचित्य है! यह बात मैं अपनी तरफ से नहीं कह रहा हूं।

स्वयं बाबा साहेब ने संविधान के बारे में इस आशय की टिप्पणी की थी। दरअसल, संविधान सभा में प्रो के टी शाह सहित कुछ बहुत प्रखर सदस्यों ने प्रिएंबुल में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द जोड़ने की मांग की थी। श्री शाह ने बाकायदा प्रस्ताव पेश किया, जिसे सदन ने नामंजूर किया था। वजह ये कि बाबा साहेब सहित अनेक सदस्यों का मानना था कि जो संविधान बन रहा है या बना है, वह पूरी तरह सेक्युलर विचारों और मूल्यों पर आधारित है। बाबा साहेब का कहना था कि हमारे मौलिक अधिकार(Fundamental Rights) से लेकर नीति निर्देशक सिद्धांत(Directive Principles of State Policy) के सभी प्रावधानों में यह परिलक्षित है। 

दूसरी बात कि हमारे संविधान के मौलिक अधिकार के अनुच्छेद-25 के 2-A में बाकायदा वह ‘सेक्युलर’ शब्द मौजूद है, जिससे आरएसएस-भाजपा के नेता हमेशा अपनी नापसंदगी जाहिर करते रहे हैं। इसलिए उनकी यह दलील कि संविधान संशोधन के जरिये संविधान के प्रिएंबल में यह सेक्युलर शब्द घुसा; पूरी तरह आधारहीन है। ऐसी बातें वही कह सकते हैं, जिन्होंने या तो संविधान पढ़ा ही नहीं या 1976 के 42वें संशोधन के बाद उसका सिर्फ प्रिएंबल पढ़ा। 

जहां तक बाबा साहेब डॉ. बीआर अम्बेडकर का सवाल है, वह न सिर्फ सेक्युलर मूल्यों में यकीन करते थे अपितु वह किसी राष्ट्र-राज्य को धर्म से बिल्कुल अलग रहने के पक्षधर थे। मार्च, 1947 में उन्होंने अपनी तरफ से और अपने संगठन की तरफ से संयुक्त राज्य भारत (United States of India) के वैकल्पिक संविधान का जो संक्षिप्त प्रारूप तैयार किया था, उसके अनुच्छेद-2 के अनुभाग1 के 17 वें पैरे में साफ शब्दों में दर्ज किया है : ‘राज्य(राष्ट्र) किसी भी धर्म को राजधर्म के रूप में मान्यता नहीं देगा।’ यही नहीं, बाबा साहेब ने तो यह भी लिखा हैः’ अगर वास्तव में हिंदू राज बन जाता है तो निस्संदेह इस देश के लिए एक भारी खतरा उत्पन्न हो जायेगा।

हिन्दू कुछ भी कहें पर हिन्दुत्व स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए एक खतरा है। इस आधार पर प्रजातंत्र के लिए यह अनुपयुक्त है। हिन्दू-राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।’ (संपूर्ण वांग्मय-खंड15, पृष्ठ-365). इससे ज्यादा साफ और ठोस प्रमाण और क्या चाहिए कि बाबा साहेब सेक्युलर संविधान, सेक्युलर विचार, सेक्युलर स्टेट और सेक्युलर समाज-व्यवस्था के पक्षधर थे!

जहां तक सोशलिस्ट शब्द का सवाल है, उस पर बाबा साहेब की आपत्ति के अन्य कारण थे। संविधान सभा में इसकी भी खूब चर्चा है। पर संघ-भाजपा के नेता यह कैसे भूल रहे हैं या जान बूझ कर नजरंदाज कर रहे हैं कि बाबा साहेब द्वारा रचित प्रिएंबल में ‘सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक न्याय’ के अलावा ‘प्रतिष्ठा और अवसर की समानता’ जैसे संकल्प मौजूद हैं। क्या ये संकल्प या प्रावधान किसी पूंजीवादी या संघवादी संरचना या वैचारिकी में संभव है? ऐसे में संविधान के प्रिएंबल में सेक्युलर या सोशलिस्ट शब्दों के जोड़े जाने को बाबा साहेब डॉ. बीआर अम्बेडकर की वैचारिकी का निषेध या उसके उलट बताना आधारहीन और बेमतलब है। 

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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