तितरम, कैथल। हरियाणा के किसानों के लिए, विशेषकर जाट किसानों के लिए खेत बेंचना मान-सम्मान बेचने जैसा होता था। खेती-किसानी उनके लिए रोजी-रोटी का साधन तो है ही, लेकिन उनका मान-सम्मान भी उससे जुड़ा होता था। लेकिन अब यह स्थिति तेजी से बदल रही है, किसानों के बेटे खेत बेंचकर और हर तरह का रिस्क उठाकर अमेरिका या पश्चिमी यूरोप के किसी देश में जाने के लिए आतुर हैं। इस प्रक्रिया में हरियाणा के गांव के गांव खाली हो रहे हैं। कई सारे ऐसे गांव हैं, जहां से सैकड़ों परिवारों से कोई न कोई बच्चा अमेरिका या यूरोप पलायन कर गया है।
हरियाणा के कैथल जिले के एक ऐसे गांव तितरम में जनचौक की टीम 26 सितंबर को चुनाव कवर करने के दौरान पहुंची। एक बड़ा गांव था। करीब-करीब सभी घर हिंदी पट्टी के मध्यमवर्गीय घरों जैसे, कुछ बेहतर ही थे। इस गांव के कम से 25 नौजवान विदेश गए हैं। हम सबसे पहले ललित (जाट) के घर पहुंचे। जो 2019 में खेत बेंचकर अपनी जीवन-संगिनी (पत्नी) के साथ अमेरिका जा चुके हैं। घर खाते-पीते एक समृद्ध परिवार का लगा। एक बड़ा गेट, उसके बाद अंदर छोटा अहाता, बंधी हुई भैंस और खेती के सामान दिखे। पहले तो परिवार के लोग अजनबी लोगों को देखकर थोड़ा सहमे-सकुचाए। क्यों आए हैं, यह सवाल सीधे तो नहीं पूछे लेकिन सवाल यही था। संयोग था कि हमारे साथ जो ड्राइवर थे, वे जाट थे और वहां की बोली-बानी में उनसे बात की। धीरे-धीरे परिवार के लोग हम लोगों के साथ सहज हो गए। बात-चीत चल पड़ी।
परिवार में तीन सदस्य मौजूद थे। ललित की मां (राजबाला), ललित के बड़े भाई सुनील (उम्र 35 वर्ष) और सुनील की पत्नी (ऊषा)। सुनील की पढ़ाई 12वीं तक है, उनकी पत्नी बीएड कर चुकी हैं। आईटीआई का कोर्स कर रही हैं। ललित की करीब 55 वर्षीय मां निरक्षर हैं। पता चला कि ललित के पिता के हिस्से दो किला (करीब दो एकड़) जमीन थी। ललित ने अपनी मां से एक किला (एक एकड़ बेंचकर) बेंचने के लिए अपनी मां से कहा, ताकि वह विदेश जा सके। ललित के पिता की 2022 में कैंसर से करीब 55 वर्ष की उम्र में मौत हो गई थी। एक एकड़ खेत बेंचने से करीब 28 लाख मिला था।
उस पैसे से ललित और उसकी पत्नी पहले दक्षिण कोरिया गए, फिर वहां से लौटने के बाद अमेरिका गए। ललित 12वीं पास किया था। उसके बाद विदेश जाने के लिए अंग्रेजी का कोर्स किया था। यह कोर्स विदेश जाने के लिए अनिवार्य है। ललित अमेरिका में एक स्टोर में काम करता है, फिर कोई अन्य काम मिल जाता है, तो करता है। ललित की मां बता रही थीं कि दोनों 12 से 14 घंटे तक काम करते हैं। यह पूछने पर कि इतना ज्यादा घंटे काम क्यों करते हैं, ललित की मां ने कहा, ‘काम करने और पैसा कमाने ही तो गए हैं।’

जब हम लोगों ने यह पूछा कि आखिर आप ने खेत क्यों बेंच दिया, ललित की मां का जवाब था कि, ‘ये दो भाई हैं। दोनों का एक-एक किला हिस्सा था। उसने अपने हिस्से का एक किला बेंचने के लिए कहा, हमने बेंच दिया। यह उसका हिस्सा था।’ मतलब साफ है कि ललित ने अपने हिस्से की सारी जमीन बेंच दी। अब उसके नाम एक धुर भी जमीन नहीं बची है। वह अपना सब कुछ दांव पर लगाकर विदेश गया। इस उम्मीद में की, वहीं बस जाएगा, वहीं का पूरी तरह होकर रह जाएगा। वह टूरिस्ट वीजा पर गया, जहां वर्क परमिट हासिल किया है। ललित सिर्फ 12वीं पास है। वह कोई स्किल्ड लेबर नहीं है। वह वहां स्टोर में काम करता है, क्या करता होगा, अंदाजा भी लगाया जा सकता है, ऐसे लोग वहां जाकर क्या कर रहे हैं, इसकी रिपोर्टें भी आती रहती हैं।
सफाई काम, हेल्पर काम, शारीरिक श्रम के काम, राज मिस्त्री, प्लंबर आदि के काम। ललित की पत्नी भी इसी तरह का कोई काम करती होंगी। जैसे घरों में नाश्ता-खाना बनाना या बच्चों को संभालने में मदद करना, बर्तन धोना आदि। वे काम अमेरिका-पश्चिमी यूरोप में कोई करना नहीं चाहता है या इसके लिए बहुत अधिक मजदूरी देनी पड़ेगी। लेकिन एशिया-अफ्रीका के लोग बहुत कम मजदूरी या तनख्वाह में यह सब काम करने के लिए तैयार रहते हैं। उनको वहां की बहुत कम मजदूरी या तनख्वाह भी बहुत अधिक लगती है, सचमुच में भारत की तुलना में बहुत अधिक होती भी है।
यह पूछने पर कि आखिर ललित क्यों खेत बेंचकर विदेश गया। अपनी खेती क्यों नहीं किया। इसका जवाब देते हुए ललित की मां कहती हैं कि, ‘एक किले जमीन में किसी तरह मुश्किल से गुजारा तो हो सकता है, लेकिन कोई आगे का विकास नहीं हो सकता। कोई प्रापर्टी नहीं बनाई जा सकती, कोई भविष्य नहीं बन सकता। इसके लिए कम से कम 10 किला जमीन चाहिए।’
यह सवाल पूछने पर कि ललित ने यहां कोई काम क्यों नहीं किया। ललित के बड़े भाई की पत्नी ऊषा जवाब देती हैं कि ‘यहां 12 वीं या बीए करने के बाद प्राइवेट में ज्यादा से ज्यादा 5-7 हजार की नौकरी मिलेगी। इससे ज्यादा नहीं। उससे क्या होगा।’ वह आगे बताती हैं कि बहुत होगा, तो 10 हजार मिल जाएगा। यह सवाल करने पर कि यहां के कम जमीन वाले जाटव और वाल्मीकि कैसे रोजी-रोटी कमाते हैं, ललित की मां जवाब देती हैं, ‘ जाट यहां दिहाड़ी काम नहीं कर सकते हैं, न। यह छोटे लोग ही यहां कर सकते हैं।’ ललित की मां की बात में अपनी बात जोड़ते हुए ललित की भाभी ऊषा कहती हैं कि, ‘जाट लोग दिहाड़ी के काम को छोटा काम समझते हैं, उन्हें यह काम करने में शर्म आती है।’

वह अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं कि, ‘जाट लोग बाहर जाकर तो छोटा-मोटा काम कर सकते हैं, लेकिन यहां रहकर वे छोटा काम (दिहाड़ी) नहीं कर सकते हैं।’ साफ है कि खेत बेंचकर बाहर जाने का बड़ा कारण तो अच्छी जिंदगी का सपना है, लेकिन जाट श्रेष्ठता का अभिमान और उसके चलते छोटा-मोटा काम, जाटव-वाल्मीकि जो काम करते हैं, वह काम, करने में सामाजिक प्रतिष्ठा खोने का भय भी एक कारण है।
यह सवाल करने पर कि खेत यहां आखिर खरीदता कौन है, तो ललित की मां जवाब देती हैं कि जो धनी किसान हैं, जिनके पास 10-20 किला जमीन है। उस गांव में ऐसे किसान भी हैं, जिनके पास 30 किला तक जमीन है। 10-12 किला जमीन वाले तो कई सारे किसान हैं।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ एक-दो या चार-पांच किला वाले किसानों के बेटे ही विदेश जा रहे हैं या खेत बेंचकर ही जा रहे हैं। ऐसे किसानों के भी बेटे जा रहे हैं, जो 10 किला या इससे अधिक जमीन के मालिक हैं। उसी गांव में ऐसे एक किसान परिवार के यहां जनचौक की टीम गई। एक महिला ने दरवाजा खोला, थोड़ी हिचक-संकोच के बाद अपने पति को बुलाया। उन्होंने बैठने के लिए कुर्सी मंगाई। घर बड़ा और खूबसूरत था, ललित के घर से ज्यादा समृद्ध लग रहा था।
किसान की उम्र करीब 50 साल थी। वे 10वीं फेल हैं। उनके पास करीब 10 किला जमीन है। उनके दो बेटे हैं। सुमित और मीत। बड़ा बेटा सुमित एयरफोर्स में है, उसकी उम्र 25 वर्ष है। दूसरे बेटे का नाम मीत है, जो विदेश गया है। उसकी उम्र 23 वर्ष है। वह 12 वीं पास किया था। वह अमेरिका गया है, वर्क परमिट पर। उसके जाने में करीब 20 लाख खर्च हुआ। उसके लिए कोई खेत नहीं बेंचना पड़ा। कुछ पैसा मीत के एयरफोर्स वाले बड़े भाई सुमित ने जुटाया और कुछ पैसा खेती-किसानी से मीत के पिता जी ने जुटाया।
यह पूछने पर कि आखिर वर विदेश क्यों गया है, आपके यहां तो अच्छी खेती है, सरकारी नौकरी भी है, फिर वह क्यों विदेश गया। इसका जवाब उन्होंने इन शब्दों में दिया, ‘ वह शौक में गया, शुरू से वह विदेश जाना चाहता था। वह विदेश जाने का ही सपना देखता था।’ मीत विदेश बेहतर जिंदगी चाह में गया है। हालांकि वहां भी उसका जीवन फिलहाल कोई आसान नहीं है, क्योंकि वह भी सिर्फ 12वीं तक सामान्य पढ़ाई किया है। वह कोई स्किल्ड व्यक्ति नहीं है।
उसके पिता ने बताया कि 18 घंटे तक काम करता है। उसका काम भी लो स्किल या शारीरिक काम ही होगा। साफ-सफाई या हेल्पर या कोई इसी तरह का अन्य काम। लेकिन उसे उम्मीद है कि वह एक दिन सेटल हो जाएगा। अपना भविष्य बेहतर बना लेगा। उन्होंने चाय पिला कर हम लोगों को विदा किया। सुमित और मीत में किसी की भी अभी शादी नहीं हुई है। उनके पिता बताते हैं कि दोनों का कहना है कि थोड़ा सेटल होने और कुछ अन्य काम कर लेने के बाद ही शादी करेंगे।
विदेश जाने के कारणों को थोड़ा और जानने-समझने के लिए हम एक तीसरे परिवार में गए। बड़े से गेट के अंदर घुसे। घुसते ही एक करीब 55 वर्षीय व्यक्ति मिले। निहायत सज्जन से दिख रहे थे। वे डेयरी का काम करते हैं, बड़े-बड़े फ्रिज रखे हैं। दूध और घी की सप्लाई करते हैं। उनका यह कारोबार ठीक-ठाक चल रहा है। हमने उनसे सवाल किया कि आपके घर से भी कोई विदेश गया है, उन्होंने जवाब दिया कि हां हमारा भतीजा गया है, जिसका नाम जगरूप (22 साल) है। जगरूप भी 12वीं तक पढ़ाई किया था। करीब 7 महीने पहले गया है। अमेरिका के शिकागो सिटी में काम करता है। लगा कि उनका परिवार संयुक्त है। जमीन तो उनके पास कुल मिलाकर 4-5 किला ही है। कितना पैसा लगा, कैसे गया। यह पूछने पर जगरूप के चाचा ने कहा कि ठीक-ठीक यह बात मेरे भतीजे भूप सिंह को पता है। भूप सिंह जगरूप के बड़े भाई हैं। खेती-किसानी के अलावा वह कैब चलाते हैं।

वह एक कर्मठ व्यक्ति लगे। कई तरह के काम करते हैं। जिससे उनकी आमदनी अच्छी हो जाती है। जगरूप को विदेश भेजने के लिए उनके भाई को न खेत बेंचना पड़ा, न ही कोई कर्ज लेना पड़ा। भाई और चाचा ने इंतजाम कर दिया। जगरूप किसी मजबूरी बस तो नहीं गया है, लेकिन भूप सिंह के काम को देखकर लग रहा है कि मध्यम किसानों के पास आगे कोई खेती में भविष्य नहीं दिख रहा है। जिस स्थिति में हैं, वह स्थिति तो खेती और कुछ अन्य काम करके बनाए रख सकते हैं, लेकिन उससे आगे बढ़ने के बारे में नहीं सोच सकते हैं। मतलब खेती-किसानी ठहर गई है।
हरियाणा में यह कहानी सिर्फ तीन परिवारों के तीन बच्चों की नहीं है। पंजाब की तरह हरियाणा के नौजवानों का इस समय सबसे बड़ा सपना विदेश जाना ही। उनके लिए विदेश का मतलब यूपी-बिहार और अन्य गरीब प्रदेशों के मेहनतकश मजदूरों और निम्न मध्यवर्ग के लोगों की तरह मध्य एशिया ( कुबैत, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात आदि) के इस्लामिक देशों में जाना नहीं है। जहां किसी को नागरिकता नहीं मिलती, जहां स्थायी तौर पर बसने के बारे में सोच भी नहीं सकते। सिर्फ कड़ी मेहनत कर खराब हालात में रहकर कुछ पैसे अपने घरों तक भेज सकते हैं।
हरियाणा के जो नौजवान विदेश जा रहे हैं, वे उनमें अधिकांश खाते-पीते सापेक्षिक तौर (यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश आदि की तुलना में) सम्पन्न घरों के हैं, क्योंकि जाने के लिए ही कम से कम 18 से 20 लाख चाहिए। यह धनराशि 40 से 50 लाख रुपये तक हो सकती है। जाने वाले नौजवान यह उम्मीद करके जा रहे हैं कि आज नहीं तो कल वहां की नागरिकता मिल जाएगी। वहां जाकर आज जो काम कर रहे हैं, उससे बेहतर काम मिल जाएगा। ज्यादा पैसा कमा लेंगे। हरियाणा के उनके गांव-घर में उनकी जो जिंदगी होती, उससे कई गुना बेहतर जिंदगी उनकी होगी। गुणात्मक तौर बहुत ही बेहतर जिंदगी की उम्मीद में।
हरियाणा राज्य विकास ( जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय) के मामले में दक्षिण भारत के राज्यों के करीब-करीब बराबर पहुंच चुका है। दिल्ली को यदि छोड़ दिया जाए तो वह हिंदी पट्टी के अन्य राज्यों की तुलना में वह बहुत आगे निकल चुका है। यह समृद्धि हरियाणा में दिखती है। हरियाणा की इस मामले में एक और खूबी यह है कि भले ही बड़े औद्योगिक केंद्र दिल्ली के आसपास (गुरुग्राम, फरीदाबाद) में केंद्रित हैं, लेकिन औद्योगीकरण अन्य शहरों-कस्बों तक में भी हुआ है।
इससे भी बड़ी बात यह है कि खेती की उत्पादकता अधिक होने और नकदी खेती होने के चलते हरियाणा के गांवों में भी समृद्धि और खुशहाली दिखाई देती है। लेकिन खेती से समृद्ध समुदायों और परिवारों की समृद्धि में अगली छलांग खेती-किसानी से नहीं हो सकती है। खेती-किसानी एक जगह ठहर सी गई है। पिछले10 सालों में हरियाणा के अंदर न सरकारी और न ही प्राइवेट क्षेत्र में ऐसे रोजगार पैदा हुए हैं, जिससे कोई मध्यम-सीमान्त किसान का कोई बेटा 30 हजार या उसे अधिक की नौकरी पा सके।
भाजपा सरकार के पिछले 10 सालों की सरकार में उच्च पदों और पैसे वाली सरकारी नौकरियों में शायद ही कोई पद निकला हो। ग्रुप-A और ग्रुप-B के पदों पर कोई विज्ञापन नहीं निकला, निकला तो परीक्षा नहीं हुई। ग्रुप-C और ग्रुप-D के पद ही निकले हैं और इन्हीं पदों पर कुछ भर्तियां हुई हैं। उसमें भी अधिकांश काट्रैक्ट के आधार पर। हरियाणा के सापेक्षिक तौर पर समृद्ध ग्रामीण समाज और शहरी मध्यवर्ग के एक हिस्से के पास रोजगार का बेहतर अवसर नहीं है, जिससे गुणात्मक तौर पर बेहतर जिंदगी जिया जा सके।
लो स्किल या शारीरिक काम तो बढ़ें हैं, जिसमें 450 रूपए से 800 तक मिल सकता है, लेकिन औसत 500 से अधिक का नहीं। महीने में 25 दिन भी कोई हाड़तोड़ मेहनत करे तो ज्यादा से ज्यादा 12 से 13 हजार काम सकता है, बहुत ज्यादा तो 15 हजार। लेकिन इसमें कोई बचत तभी हो सकती है, जब किसी तरह जिंदगी काटी जाए यानी रहने, खाने और कपड़े पर कम से कम खर्च किया जाए। साफ शब्दों में कहें तो बहुत निम्न स्तर की जिंदगी जी जाए।
हरियाणा के समृद्ध समुदायों और परिवारों के नौजवान इतनी कम मजदूरी या तनख्वाह पर जीने के बारे में सोच नहीं सकते हैं। इससे बेहतर जिंदगी तो अपनी खेती-किसानी से पहले ही जी रहे हैं। यही कारण है कि ऐसे काम ज्यादातर हरियाणा के जाटव-वाल्मिकी और अन्य पिछड़े वर्गों के लोग करते हैं या यूपी-बिहार, नेपाल, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल से आकर लोग करते हैं। अब तो दिल्ली-यूपी से सटे हरियाणा के इलाकों में ऐसे लोग आकर बस गए हैं, कुछ गांवों में बहुसंख्या हो गए हैं। इन्हें पूरबिया कहा जाता है। कुछ गांवों के प्रधान तक जनसंख्या के आधार पर पूरबिया हो गए हैं।
हरियाणा के सबसे समृद्ध ग्रामीण-कस्बाई और कुछ हद तक शहरी समुदाय बेहतर किस्म के रोजगार के संकट का एक अन्य कारण यह दिखता है कि इन समुदायों का बड़ा हिस्सा खेती-किसानी में ही लंबे समय तक लगा रहा है। हरित क्रांति और उससे पैदा हुई मंडी व्यवस्था और सरकारी खरीदारी ने उन्हें सत्तर के दशक के बाद समृद्ध बनाया। यह समृद्धि धीरे-धीरे ही सही बढ़ती रही। लेकिन पिछले दशकों में यह समृद्धि ठहर सी गई है। इस समृद्धि के चलते खुशहाल होता यह समुदाय एक मामले में पीछे छूट गया, उच्च तकनीकी ज्ञान-विज्ञान की दुनिया में वह कम प्रवेश कर पाए। जिसे हाई स्किल्ड कहते हैं। इसमें हरियाणा के पंजाबी शहरी विस्थापित हिंदू, बनिया बाजी मार ले गए। विदेशों में हाई स्किल्ड जॉब में जाने वाले ऐसे ही हरियाणवी हैं, बहुत थोड़ी संख्या में सबसे समृद्ध किसान समुदाय के जाट गए।
इस मामले में समृद्ध जाट किसानों की तुलना में पूरबिया समाज के द्विज-सवर्ण भी उनसे आगे निकल गए। जो खेती जाटों और अन्य खेतिहर समुदायों की समृद्धि का कारण बनी थी, वही अर्थव्यवस्था के नए बने स्वरूप में उनके पीछे छूटने का भी कारण बन गई। हालांकि हरियाणा के औद्योगीकरण में बड़ी पूंजी ( हरियाणा के बाहर के पूंजीपतियों और विदेश बहुराष्ट्रीय कंपनियों) की बड़ी भूमिका है, लेकिन 1990 के बाद हरियाणा में जो नया औद्योगिक विकास हुआ और उसके चलते जो कारोबार-व्यवसाय में वृद्धि हुई, उसका भी बड़ा हिस्सा शहरी बनिया, और विस्थापित होकर हरियाणा आए पंजाबी हिंदुओं के खाते में चला गया। कृषक समुदाय इसमें भी पीछे छूट गया।
अब यह खेती-किसानी वाला सापेक्षिक तौर पर समृद्ध-खुशहाल समुदाय एक ठहराव का शिकार हो गया है, खास कर नई पीढ़ी। यह समृद्धि और खुशहाली के नए अवसरों की तलाश कर रही है। शिक्षा-दीक्षा उस स्तर की है नहीं कि दुनिया के बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बड़ी नौकरियां पाकर विदेश जा सकें, वहां बस सकें। फिर उन्हें एक ही रास्ता दिख रहा है किसी तरह अमेरिका-यूरोप में प्रवेश कर लें। कोई भी काम, किसी तरह का काम मिल जाए। जाने के लिए चाहे खेत बेंचना बड़े या कोई अन्य रिस्क ही क्यों ने उठाना पड़े। पंजाब के नौजवान यह रास्ता पहले ही अपना चुका है।
बगल में होने के चलते और संकट के भी कमोबेश एक तरह के होने के चलते हरियाणा के नौजवानों का भी एक हिस्सा भारत और हरियाणा से बाहर अमेरिका-यूरोप की ओर ही देख रहा है कि इसके बावजूद कि वहां जाने वाले में कुछ लोग जेल गए, कुछ घायल हुए, कुछ मारे भी गए। इसके बावजूद कि वहां 12 से 18 घंटे काम करना पड़ता, जीवन स्थितियां शुरुआत में बहुत ही बदतर होती हैं, लेकिन उन्हें कोई अन्य रास्ता नहीं सूझ रहा है। सारे रास्ते बंद दिखाई दे रहे हैं। हरियाणा में रहकर उसके बाद उनके सामने एक ही रास्ता बचता है, वर्तमान स्थिति और भविष्य के दु:स्वप्न से बचने के लिए नशा का रास्ता। पंजाब के बाद नशा धीरे-धीरे हरियाणा को भी अपनी गिरफ्त में ले रहा है।
हरियाणा के कैथल जिले के तितरम गांव के ललित, ललित की पत्नी, मीत और जगरूप तो बस कुछ उदाहरण हैं।
(हरियाणा के दौरे से लौटकर डॉ. सिद्धार्थ की रिपोर्ट।)
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