सियासत की शतरंज और सट्टे की चाल में फंसी युवा पीढ़ी 

कभी-कभी मुल्क का आइना यूं चकनाचूर हो जाता है कि हर शीशे में बस अफ़सोस और आंसुओं की परछाइयां दिखाई देती हैं। आज का भारत भी कुछ ऐसा ही मंज़र पेश कर रहा है-जहां विकास के दावों की जगह बर्बादी की दस्तक है, और जहां उम्मीदों की जगह एप्स का नशा है। यह वही भारत है जो कभी युवाओं की ताक़त और उनके सपनों के लिए जाना जाता था, लेकिन आज वही युवा मोबाइल स्क्रीन पर अपनी तालीम, अपनी सोच, और अपनी ज़िंदगी हार रहा है-सट्टे की एक फर्ज़ी दुनिया में।

भारत, जो कभी दुनिया को अध्यात्म और अख़लाक़ का रास्ता दिखाने का दावा करता था, आज एक ऐसे मुक़ाम पर खड़ा है जहां नफ़ा ही नैतिकता बन गया है और नुक़सान अब सिर्फ आंकड़ों में गिना जाता है। कोई ज़माना था जब नौजवान भगत सिंह और कलाम की मिसालों से अपने वजूद को परिभाषित करता था; आज वही नौजवान ‘बेटिंग ओड्स’ और ‘लाइव स्पिन’ के लुभावने रंगों में डूबता चला जा रहा है।

यह कोई तकनीकी क्रांति नहीं है-यह तिजारत-ए-तबाही है। एक सिलसिला है जहां आत्मा बिकती है, और आत्महत्या सामान्य ख़बर बन जाती है। सट्टा अब शौक़ नहीं रहा, यह एक संगठित नफ़सियाती जंग है, जो मुल्क की नसों में ज़हर की तरह फैल रही है।

डिजिटल इंडिया या दांव पर इंडिया?

सरकारें आज जिस ‘डिजिटल इंडिया’ की शान में तालियाँ बजवा रही हैं, वहीं उसी तकनीक ने आज करोड़ों युवाओं के हाथ में मोबाइल तो दे दिया है, पर सोचने की ताक़त छीन ली है। 15 से 35 वर्ष की उम्र का वह वर्ग, जो देश की रीढ़ माना जाता है, आज ऑनलाइन सट्टेबाज़ी के दलदल में घुटनों तक धंसा हुआ है।

‘Dream11’, ‘Betway’, ‘FairPlay’, ‘1xBet’ जैसे नाम अब सिर्फ वेबसाइट्स नहीं हैं, ये आज के भारत के आत्मघाती आकर्षण बन चुके हैं। IPL से लेकर फुटबॉल वर्ल्ड कप तक, हर खेल अब खेल नहीं रहा, एक तिजारती तमाशा बन गया है, और युवा उसमें सिर्फ दर्शक नहीं, शिकार हैं।

कुछ समय पहले तक जिसे ‘जुए’ का नाम देकर समाज धिक्कारता था, अब वही सट्टा ‘fantasy sports’ और ‘gaming platforms’ के नाम पर वैधानिक जामा पहन चुका है। और अफ़सोस, सरकारें या तो ख़ामोश हैं या हिस्सेदार।

सत्ता की दलाली और मुनाफ़े की माफ़ियागिरी

यह महज़ एक सामाजिक गिरावट नहीं, बल्कि राजनीतिक सहमति से पनपा नासूर है। करोड़ों का धंधा, अरबों की अर्थव्यवस्था, और पीछे छूटती लाशें-यह त्रासदी सत्ता के दरवाज़े पर दस्तक दे रही है, लेकिन वहाँ से सिर्फ चुप्पी लौट रही है।

क्या यह अंधापन नहीं कि जब पेट्रोल 2 रुपये महंगा होता है, तो डिबेट्स जल उठते हैं, लेकिन जब 1000 से ज़्यादा नौजवान सट्टे के चलते अपनी जान दे देते हैं, तब कोई प्राइम टाइम पर चीख़ता नहीं?

क्या यह संयोग है या साज़िश, कि ऑनलाइन बेटिंग कंपनियां यहां चुनावी चंदों की सूची में दर्ज होती हैं? क्या यह महज़ बाज़ार की गलती है या लोकतंत्र की गिरवी रखी गई आत्मा?

परिवार की तबाही, समाज की शर्मिंदगी

हर सट्टे की लत सिर्फ एक इंसान को नहीं, एक पूरे परिवार को निगलती है। बिहार, महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब-हर राज्य में ऐसे किस्से मिलते हैं जहां नौजवान बेटों ने लाखों के क़र्ज़ में डूबकर आत्महत्या की, माँ-बाप ने घर गिरवी रख दिया, और बहन की शादी रुक गई।

ये आंकड़े नहीं, इंसानी त्रासदी हैं। एक ऐसा दहशतगर्दी का चक्रव्यूह जिसमें कोई गोली नहीं चलती, कोई बम नहीं फटता, पर इंसान रोज़-रोज़ मरता है। वह पहले अपनी सोच में हारता है, फिर रिश्तों में, फिर आत्म-सम्मान में, और अंततः जीवन में।

मीडिया: पर्दा डालने का उद्योग

जिस मीडिया को इन चीख़ों की गूंज बनना था, वह अब उन्हीं सट्टा कंपनियों के विज्ञापनों से अपने चैनल चलाता है। 10 मिनट की न्यूज़ बुलेटिन में 4 मिनट ‘Dream11’ का एड आता है और 2 मिनट में ‘क्रिकेट के एक्सपर्ट’ युवाओं को सट्टे के नाम पर ‘स्किल’ सिखा रहे होते हैं।

पत्रकारिता अब सवाल पूछने की नहीं, हिस्सेदारी निभाने की ज़रूरत में बदल चुकी है। अफ़सोस, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने भी अपने ज़मीर को गूगल एड्स और प्रमोशन लिंक के हाथों बेच दिया है।

कानून की ख़ामोशी या मिलीभगत?

भारत का क़ानून आज भी ऑनलाइन सट्टेबाज़ी को पूरी तरह अवैध घोषित नहीं करता। राज्यों की अपनी नीति है-कहीं यह ‘रेगुलेटेड’ है, तो कहीं ‘gray area’ में छोड़ दिया गया है। लेकिन यह अस्पष्टता ही माफ़िया के लिए सबसे बड़ा वरदान है। जब नीयत साफ़ न हो, तो नीति साज़िश बन जाती है।

क्या यह मुमकिन है कि सरकारों को इस ज़हर की रफ्तार नहीं दिख रही? या यह वही नशा है जो सत्ता के नसों में दौड़ता है और उन्हें बेहरकत कर देता है?

युवा: नशे का नहीं, नूर का हक़दार

भारत का युवा इस सट्टेबाज़ी का शिकार है, लेकिन वह सिर्फ शिकार नहीं, बदलाव का वाहक भी बन सकता है। जिस तरह एक साज़िश ने उसे गिराया है, उसी तरह एक सच्चा इंक़लाब उसे उठा भी सकता है। लेकिन यह तब होगा जब हम उसे समझाएंगे कि जीत सिर्फ स्क्रीन की चमक में नहीं, ज़िंदगी के उजाले में है।

हमें स्कूलों, कॉलेजों, और समाज के हर मंच पर यह पैग़ाम देना होगा कि ये ऐप्स आज की अफ़ीम हैं-डिजिटल स्लेवरी का नया रूप। और इससे आज़ादी सिर्फ भाषणों से नहीं, योजनाबद्ध सामाजिक जागरूकता से आएगी।

मुल्क की रगों में फिर से रोशनी भरनी होगी

आज ज़रूरत है कि हम इस सट्टा-संस्कृति के ख़िलाफ़ एक इंक़लाब खड़ा करें-अदबी, सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी हर मोर्चे पर। वरना यह ज़हर हमारी नस्लों को अंदर से खोखला कर देगा।

हमें उन मां-बाप की चीखें सुननी होंगी जिनके बेटों ने “एक आख़िरी दांव” खेलते हुए अपनी जान गंवा दी। हमें उन बहनों की सिसकियां सुननी होंगी जिनकी राखी अब सिर्फ तस्वीरों पर सजेगी। और हमें उन युवाओं की आंखों में फिर से वह रोशनी लौटानी होगी जो किसी ज़माने में देश के भविष्य की लौ हुआ करती थी।

आख़िर में: मुल्क बचाना है, तो नशा नहीं, नसीहत ज़िंदा रखनी होगी

भारत को ‘सुपरपावर’ नहीं, ‘सुपरसोच’ बनाना होगा। और वह तब तक मुमकिन नहीं जब तक सट्टे का यह ज़हर हमारी शिक्षा, हमारी संस्कृति और हमारे सामाजिक ढांचे को खाएगा।

अगर आज हम खामोश रहे, तो कल सन्नाटे भी हमारा नाम नहीं लेंगे। ये वक़्त है आंखें खोलने का, सवाल करने का, और एक ऐसी आवाज़ बनने का जो सत्ता की दलाली और मुनाफ़े की माफ़ियागिरी के बीच से होकर भी ज़मीर को ज़िंदा रखे।

(जौवाद हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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