Friday, March 29, 2024

आखिर न्यायपालिका का कितना समर्पण चाहिए उप राष्ट्रपति जी!

पूरे देश में आम हो या खास सभी में यह भावना बलवती होती जा रही है कि मोदी सरकार के प्रति न्यायपालिका का रुख काफी लचीला है और वर्ष 2014 के बाद विशेषकर उच्चतम न्यायालय राष्ट्रवादी मोड में फैसला सुना रहा है। संविधान और कानून के शासन की अनदेखी हो रही है। इसके बावजूद उप राष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू को लग रहा है कि कार्यपालिका के काम में जूडिशयरी का दखल बढ़ रहा है। विधिक क्षत्रों में सवाल उठ रहा है कि सरकार क्या अभी भी न्यायपालिका से संतुष्ट नहीं है? सरकार आखिर किस तरह का पूर्ण समर्पण चाहती है?

राम मंदिर, राफेल, कश्मीर, पीएम केयर, कोरोना, प्रवासी मजदूर, अर्णब गोस्वामी जैसे महत्वपूर्ण मामलों पर उच्चतम न्यायालय ने जिस तरह का रवैया अपनाया और उससे यही ध्वनि निकली कि न्यायपालिका मोदी सरकार के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है। इस नए नैरेटिव से पूरे देश को प्रतीत हो रहा है कि न्यायपालिका की  मौजूदा सत्ता के प्रति सकारात्मक रुख है।

माननीय उप राष्ट्रपति जी हम नहीं कह रहे हैं बल्कि उच्चतम न्यायालय के रिटायर्ड जज जस्टिस मदन बी लोकुर ने कहा है कि कोरोना संकट के दौरान जिस तरह से उच्चतम न्यायालय काम कर रहा है वो बिल्कुल ‘निराश’ करने वाला है। उच्चतम न्यायालय अपने संवैधानिक कर्तव्यों को सही तरह से नहीं निभा रहा है। इसी तरह उच्चतम न्यायालय द्वारा हाल के दिनों में लिए गए कई विवादित फ़ैसलों पर विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस एपी शाह ने सवाल उठाए हैं। उन्होंने आरोप लगाया है कि उच्चतम न्यायालय सरकार की विचारधारा से अलग होने का साहस नहीं दिखा सकता। जस्टिस शाह ने ये भी कहा कि अदालत के फ़ैसलों में ये साफ़ झलकता है कि इसमें बहुसंख्यक जनमानस के आवेगों का असर था।

राम मंदिर, 370, राफेल, तीन तलाक, पीएम केयर फंड और सीएए पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय से न्यायिक आजादी का सवाल शिद्दत से उठा है। एक धारणा बनी है कि अज्ञात कारणों से या तो न्यायाधीश भयभीत हैं अथवा उनकी अतीत में एक नैरेटिव विशेष के प्रति झुकाव रहा है। अब इसे क्या कहा जाएगा की जब कोरोना काल में मुंबई-दिल्ली जैसे सुदूर स्थानों से पैदल भूखे प्यासे मरते-खपते लौट रहे थे और उच्चतम न्यायालय में सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कह दिया कि आज की तारीख में एक भी प्रवासी सड़क पर नहीं है और आंख मूंदकर उच्चतम न्यायालय ने उसे मान लिया। यानी सरकार के प्रतिनिधि तुषार मेहता अदालत में जो कह दें वही सही है चाहे सफ़ेद झूठ ही क्यों न हो। अब इससे बड़ा समर्पण और क्या होगा।

क्या पर्सनल लिबर्टी केवल सरकार के ब्लू आइड लोगों (नीली आँखों वाले लोगों) अर्थात चहेतों के लिए ही है? पूरा देश देख रहा है की गोदी मीडिया और संघ समर्थक पत्रकारों, समीर चौधरी, अमीश देवगन, अंजना ओम कश्यप, रजत शर्मा, दीपक चौरसिया, रूबिका लियाकत जैसों के लिए सरकार के साथ न्यायपालिका भी उदार दिखती है। अब गिरफ़्तारी के सात दिन के भीतर जहां लोअर कोर्ट से लेकर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के बाद अर्णब गोस्वामी जेल से रिहा हो गए, वहीं केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन पांच अक्तूबर से जेल में हैं, लेकिन उनको अब तक कोई राहत नहीं मिली है। 

पत्रकार, सरकार की बदले की कार्रवाई, उच्चतम न्यायालय और स्वतंत्रता के संवैधानिक मूल अधिकार पूरे देश में चर्चा का विषय बने हुए हैं। हाल ही में आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में रिपब्लिक न्यूज़ चैनल के मालिक और पत्रकार अर्णब गोस्वामी को उच्चतम न्यायालय से गिरफ़्तारी के एक सप्ताह के भीतर ज़मानत मिली है, लेकिन केरल के एक पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन का मामला भी उच्चतम न्यायालय में अभी भी चल रहा है और प्रक्रियात्मक सवाल जवाब जारी है और कई बार सिद्दीक़ कप्पन के वकील कपिल सिब्बल से कहा जा चुका है कि वे इलाहाबाद हाई कोर्ट क्यों नहीं जाते? ये क्या है? क्या इसे चीन्ह-चीन्ह के न्याय की संज्ञा से नवाजना गलत है?

केवडिया (गुजरात) में उप राष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने बुधवार को कहा कि कुछ अदालती फैसलों से ऐसा जाहिर होता है जैसे कार्यपालिका के काम में जूडिशयरी का दखल बढ़ रहा है। उन्होंने दीवाली पर पटाखों पर बैन और जजों की नियुक्ति में केंद्र को भूमिका देने से इनकार करने जैसे फैसलों का उदाहरण दिया। उप राष्ट्रपति ने कहा कि कुछ फैसलों से लगता है कि न्यायपालिका का हस्तक्षेप बढ़ा है। उन्होंने कहा कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका संविधान के तहत परिभाषित अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत काम करने के लिए बाध्य हैं।

वह ‘विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सौहार्दपूर्ण समन्वय-जीवंत लोकतंत्र की कुंजी’ विषय पर अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारियों के 80वें सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे। नायडू ने कहा कि तीनों अंग एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप किए बगैर काम करते हैं और सौहार्द बना रहता है।

उप राष्ट्रपति जी मार्च 2018 में उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन वरिष्ठ जज जस्टिस जे चेलमेश्वर ने चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा को एक ख़त लिख कर सरकार के न्यायपालिका में हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ कदम उठाने को कहा था। जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा था कि हम पर, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर, अपनी स्वतंत्रता के साथ समझौता करने और हमारी संस्थागत अखंडता के अतिक्रमण का आरोप लगाए जा रहे हैं। कार्यपालिका हमेशा अधीर होती है और कर सकने में सक्षम होने पर भी न्यायपालिका की अवज्ञा नहीं करती है, लेकिन इस तरह की कोशिशें की जा रही हैं कि चीफ़ जस्टिस के साथ वैसा ही व्यवहार हो जैसा सचिवालय के विभाग प्रमुख के साथ किया जाता है।

मार्च 2016 में तत्कालीन चीफ जस्टिस  टीएस ठाकुर ने इलाहाबाद में कहा था कि एक संस्था के तौर पर न्यायपालिका विश्वसनीयता के संकट का सामना कर रही है जो उसके खुद के अंदर से एक चुनौती है। उन्होंने न्यायाधीशों से अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत रहने को कहा। उन्होंने कहा था कि भविष्य में हमारे समक्ष बड़ी चुनौतियां हैं और हमें उन चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार होने की जरूरत है। न्यायपालिका एक संस्था है, जैसा कि हम बखूबी जानते हैं, यह हमेशा ही लोक निगरानी में रही है और चुनौतियां न सिर्फ अंदर से हैं बल्कि बाहर से भी हैं।

उप राष्ट्रपति जी गांधीवादी एलसी जैन की स्मृति में आयोजित एक व्याख्यानमाला में जस्टिस शाह ने कहा था कि उच्चतम न्यायालय ने मामलों की सुनवाई की प्राथमिकता तय करने में भी कई गड़बड़ियां की हैं। जस्टिस शाह ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने इन मामलों में न्याय के अनुरूप काम नहीं किया। उन्होंने इलेक्टोरल बॉन्ड पर भी उच्चतम न्यायालय के रवैये की आलोचना की। जस्टिस शाह ने कहा कि अदालत ने इस पर रोक लगाने के बदले सील बंद लिफ़ाफ़े में रिपोर्ट मांगने को प्राथमिकता दी। उन्होंने कहा कि इस मामले में अदालत ने मज़बूती नहीं दिखाई।

जस्टिस शाह ने चीफ जस्टिस की उस टिप्पणी पर हैरानी जताई जिसमें सीजेआई बोबडे ने कहा था कि सीएए की सुनवाई तभी होगी, जब हिंसा रुक जाएगी। एनआरसी पर उच्चतम न्यायालय के रूख पर जस्टिस शाह ने असंतोष जताते हुए कहा कि कोर्ट ने उन्हीं लोगों को नागरिकता साबित करने को कह दिया जो एनआरसी  से प्रभावित थे और पीड़ित होकर याचिकाकर्ता बने थे। बतौर जस्टिस शाह, ऐसा कर कोर्ट ने एक तरह से सरकार की उस दलील को ही साबित करने की कोशिश की कि जिनके पास कागजात नहीं हैं, वो विदेशी हैं।

अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का आदेश देने के फैसले पर भी जस्टिस शाह ने कड़ी आपत्ति ज़ाहिर की। उन्होंने कहा कि ये पूरा जजमेंट ही संदिग्ध है। उन्होंने कहा कि अभी भी ऐसा लगता है जैसे हिंदुओं द्वारा की गई अवैधता (पहली बार 1949 में मस्जिद में राम लला की मूर्तियों को रखना और दूसरा 1992 में बाबरी विध्वंस) को स्वीकार करने के बावजूद कोर्ट ने अपने फैसले से ग़लत करने वाले को पुरस्कृत किया है।

आखिर न्यायपालिका का कितना समर्पण चाहिए उप राष्ट्रपति जी!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

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