विशेष रिपोर्ट-2: गुलामी से नहीं मिली निजात, बदतर हालात में जीने को मजबूर बंधुआ मजदूर

(ओडिशा से आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के ईंट भट्टों तक प्रवासी श्रमिकों की तस्करी करने वाले सरदारों या श्रमिक ठेकेदारों को COVID-19 महामारी के बाद तस्करी के खिलाफ पुलिस द्वारा चलाए अभियान से कड़ी चुनौती मिली। इसके जवाब में उन्होंने कानून के तहत कुछ लोगों को फटाफट रजिस्टर कराया, ट्रेनों में यात्रा के दौरान जांच-पड़ताल से बचने के लिए श्रमिकों के पांचवें हिस्से को बस मार्गों से भेजने का फैसला किया, और कालाहांडी-बोलंगीर-कोरापुट क्षेत्र में तस्करी के प्रमुख शहरों में भट्ठा मालिकों की मेजबानी से परहेज किया। तस्करी के खिलाफ पुलिस द्वारा चलाए गए अभियान से बचने और जांच अधिकारियों को चकमा देने के लिए तस्करों द्वारा अपनाई गई रणनीतियों के बारे में विस्तार से जानने के लिए पढ़िए चार भाग वाली इस शृंखला का दूसरा भाग..)

बोलांगीर जिला, पश्चिमी ओडिशा। रात के 11 बज रहे हैं और कांटाबांजी रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर एक पर कोरबा विशाखापत्तनम लिंक एक्सप्रेस के आने में अभी 15 मिनट बाकी हैं।

ऐनलाभाटा गांव के गौरव भोई और उनके भाई-बहन, जिनको उनके श्रमिक ठेकेदार या सरदार एस* द्वारा इस ट्रेन में चढ़ने का निर्देश दिया गया है, प्लेटफॉर्म पर कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं। दरअसल, 12 दिसंबर 2022 को उस दिन ट्रेन में चढ़ने वाले कुछ सौ प्रवासी परिवारों में से कोई भी जनरल डिब्बों के पास नहीं दिख रहा था। हालांकि, उन सभी को ट्रेन पकड़ने और विशाखापत्तनम और दक्षिण भारत के अन्य शहरों में ईंट भट्ठों पर जाने के आदेश दिए गए थे।

अविकसित कालाहांडी-बोलनगीर-कोरापुट या केबीके क्षेत्र में स्थित, कांटाबांजी रेलवे स्टेशन (जिसे ददान स्टेशन भी कहा जाता है) ओडिशा में प्रवासी मजदूरों के लिए यात्रा करने का सबसे बड़ा केंद्र है। हालांकि, उस वक्त प्लेटफ़ॉर्म पर आरक्षित डिब्बे रुकने वाली जगह के करीब केवल कुछ माध्यम वर्गीय यात्री बैठे थे।

प्लेटफॉर्म के मुख्य प्रवेश द्वार के बगल में पुलिस चौकी पर ‘प्रवासी श्रमिकों की सुरक्षा’ के लिए ‘मिशन उद्धार’ का प्रचार करने वाला बैनर लगा हुआ था। स्टेशन के बाहर बनी ऐसी ही चौकी पर ऊबा हुआ अकेला बैठा एक पुलिसकर्मी अपने मोबाइल फोन में खोया हुआ था।

प्लेटफॉर्म के एक छोर पर लगभग 15-20 युवक तीन-चार समूहों में बंटे हुए खड़े थे। उनकी निगाहें वहां मौजूद लोगों पर टिकीं थीं। वे ट्रेन के आसन्न आगमन के बारे में घोषणाएं सुनते हुए खामोशी से अपनी बातचीत में लगे रहे। इस दौरान, वहां मौजूद मध्यम वर्गीय परिवारों ने ओवरहेड बोर्ड पर दिखाए जा रहे कोच नंबर के अनुसार अपनी जगह लेनी शुरू कर दी।

वहां अभी भी भोई और प्रवास करने वाले अन्य परिवारों का कोई नाम-ओ-निशान नहीं था।

COVID-19 महामारी से पहले यहां कोई पुलिस चौकी नहीं थी और प्रवासी परिवार कई बैग और बर्तनों के साथ प्लेटफॉर्म के दोनों छोर पर घंटों तक डेरा डाले रहते थे। केबीके क्षेत्र के आठ जिलों में ओडिशा पुलिस द्वारा 2021 में सुरक्षित प्रवास पर एक अभियान शुरू किए जाने के कारण कांटाबांजी, तुरीकेला, हरिशंकर रोड और अन्य रेलवे स्टेशनों पर श्रम तस्करी पर कार्रवाई की गई।

पुलिस ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 की धारा 370 (किसी भी व्यक्ति को गुलाम के रूप में खरीदने या बेचने) के तहत कई सरदारों को गिरफ्तार किया और इन मामलों में पलायन करने वाले परिवारों को गवाह बनाया।

गौरव भोई और उनके भाई-बहन कांटाबांजी में ट्रेन में चढ़ने का इंतजार कर रहे अधिकांश अन्य प्रवासी परिवारों की तरह अंतरराज्यिक प्रवासी कर्मकार (नियोजन का विनियमन और सेवा-शर्त) अधिनियम (आईएसएमडब्ल्यूए), 1979 के तहत रजिस्टर्ड नहीं हैं। उनके पास अपने सरदारों के साथ अपने नियोक्ता, स्थान और काम की अवधि को निर्दिष्ट करने वाला कोई लिखित समझौता या अनुबंध भी नहीं था। इसका मतलब यह था कि उनकी इन यात्राओं को मानव तस्करी के मामलों के रूप में देखा जा सकता है।

घड़ी की सुइयां जैसे रात के 11.15 बजे के आगे बढ़ीं, ऐसा लगा कि भोई लोग विशाखापत्तनम के लिए ट्रेन में नहीं चढ़ पाएंगे और न ही आगे हैदराबाद की अपनी यात्रा कर पाएंगे, जहां उन्हें 1976 में गैरकानूनी घोषित कर दी गई ऋण बंधन प्रणाली के तहत ईंट भट्ठे पर काम करना था।

जब ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म से कुछ सौ मीटर दूर थी तो अचानक ही भोई और कई अन्य प्रवासी परिवार सामान्य डिब्बों के पास स्थित अस्थायी प्रवेश द्वार से प्लेटफ़ॉर्म पर आ पहुंचे। उस दौरान वहां टहल रहे 15-20 नवयुवक चीजों को नियंत्रण में लेने के लिए दौड़े आए। उन्होंने मजदूरों को समूहों में विभाजित किया और उन्हें पहले से ही खचाखच भरे जनरल डिब्बों में चढ़ने में मदद की।

उनमें से कुछ युवक स्टेशन से रवाना होती ट्रेन में चढ़ गए और बाकी परिसर से बाहर चले गए।

पूरा कार्यक्रम 10 मिनट के अंदर खत्म हो गया। जब आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और दक्षिण भारत के अन्य राज्यों की ओर जाने वाली ट्रेनें वहां रुकीं तब इसी तरह के कार्यक्रम टुरिकेला, हरिशंकर रोड और केबीके क्षेत्र के अन्य रेलवे स्टेशनों पर भी देखने को मिले। कभी-कभी भीड़ को सवार होने में वक्त देने के लिए ट्रेनें वहां निर्धारित समय से अधिक वक्त के लिए भी रुकीं।

हरिशंकर रोड रेल्वे स्टेशन पर ईंट भट्टों पर काम करने के लिए आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जाते मजदूर

भारत में आधुनिक गुलामी और मानव तस्करी की निरंतरता पर चार-भाग की सीरीज में विस्तारित इस रिपोर्ट के दूसरे भाग में उन संगठित नेटवर्क का वर्णन किया गया है, जो तस्करों की सहायता करते हैं और उन्हें समृद्ध करते हैं। रिपोर्ट के पहले भाग में पश्चिमी ओडिशा के ग्रामीण इलाकों में व्याप्त उस संकट की भयावहता का उल्लेख किया गया है, जिसने भारत में बंधुआ मजदूरी को खत्म करने वाले 47 साल पुराने कानून के बावजूद गरीबों की बढ़ती संख्या को ऐसे काम की तलाश करने के लिए मजबूर बनाया है।

वहीं रिपोर्ट के तीसरे और चौथे भाग में बंधुआ मजदूरों के लिए काम की स्थितियों, उनके लिए अनिवार्य कानूनी सुरक्षा से इनकार और उनके स्वास्थ्य और सेहत पर हुए दीर्घकालिक परिणामों पर विचार किया जाएगा।

तस्कर कैसे पुलिस और उसकी निगरानी की प्रणाली को मात देते हैं?

केबीके क्षेत्र में 2021 से मानव तस्करी पर पुलिस की कार्रवाई से सरदारों को काफी नुकसान उठाना पड़ा। सिर्फ सितंबर से नवंबर 2022 की अवधि में ओडिशा पुलिस ने अवैध तस्करी के आरोप में 65 से अधिक सरदारों को गिरफ्तार किया।

2021 के अंत और 2023 की शुरुआत के बीच दो वार्षिक प्रवास चक्रों में, व्यापक प्रवासन दर वाले क्षेत्रों में से एक खापराखोल पुलिस स्टेशन में 35 प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज की गईं। ये एफआईआर आईपीसी की धारा 370, 371 (दासों का आदतन सौदा) और 374 (गैरकानूनी अनिवार्य श्रम) के तहत दर्ज की गईं।

2021 से पहले खापराखोल पुलिस स्टेशन में कानून की इन धाराओं के तहत सालाना मुश्किल से चार से पांच मामले दर्ज किए जाते थे।

 2021 में ओडिशा पुलिस ने केबीके क्षेत्र में आने वाले आठ जिलों में सुरक्षित प्रवास का अभियान शुरू किया था।

हालांकि, केबीके क्षेत्र एवं आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के ईंट भट्टों में नौ महीनों तक की गई इस जांच-पड़ताल में आर्टिकल 14 ने पता लगाया कि प्रवासी श्रमिकों की आवाजाही के लिए संचालित की जा रही परिवहन व्यवस्था फल-फूल रही है। इन प्रवासी श्रमिकों में अधिकांश अपंजीकृत और गैर-दस्तावेजी हैं और उनकी तस्करी सावधानीपूर्वक और समन्वित तरीके से सरकार, रेलवे और पुलिस अधिकारियों के साथ मिलीभगत में हो रही है।

भयानक गरीबी और मानव विकास के निम्न स्तर का सामना करने वाले क्षेत्र में (केबीके क्षेत्र के आठ जिलों में से चार में 33% से 45% के बीच आबादी को बहुआयामी गरीब के रूप में वर्गीकृत किया गया है) कठिन परिस्थितियों में काम करने के लिए पलायन करने वाले श्रमिकों की संख्या अधिक रही है।

इस बीच सरदारों की पुलिस कार्रवाई पर त्वरित प्रतिक्रिया देखने को मिली। जो भट्ठा मालिक हर साल सितंबर के मध्य में नुआखाई (खरीफ फसल) त्योहार के बाद कांटाबांजी और प्रवासन एवं तस्करी के अन्य केंद्रों का दौरा करते हैं, सरदारों ने उनकी मेजबानी पुलिस की अत्यधिक निगरानी में पड़े कांटाबांजी के होटलों के बजाय दूरदराज के गांवों में की।

सरदारों ने श्रमिकों के एक हिस्से को आईएसएमडब्ल्यूए के तहत रजिस्टर कराया और ऐसा करने के लिए उन्होंने कई बार स्थानीय गैर-लाभकारी संस्थाओं की सेवाओं का भी इस्तेमाल किया।

उन्होंने श्रमिकों के एक हिस्से को सड़क मार्ग से यातायात का साधन उपलब्ध कराया और बाकी के लिए स्टेशनों पर निगरानी से बचने के लिए ऑनलाइन रेलवे टिकटिंग का सहारा लिया।

सरदार आमतौर पर मजदूरों के समूहों की आपूर्ति के लिए भट्ठा मालिकों के साथ सौदा करते हैं और मजदूरों को दिए जाने वाले अग्रिम भुगतान को स्वीकार करते हैं, जबकि दूसरे और तीसरे स्तर के सरदार गांवों में श्रमिकों की तलाश करते हैं और पलायन करने वाले परिवारों के लिए यातायात का प्रबंध करने जैसा जोखिम भरा काम करते हैं।

यदि इन परिवारों को पुलिस द्वारा रोका जाता है, या वे तस्करी के मामलों में फंस जाते हैं तो सरदारों को भट्टा मालिकों को होने वाले नुकसान की भरपाई करनी पड़ती है। अक्सर, पकड़े गए श्रमिकों को ‘बचाने’ की बजाय पुलिस द्वारा हिरासत में ले लिया जाता है और सरदारों को उन लोगों को रिहा कराने के लिए नकद रिश्वत देनी पड़ती है।

सरदार अंतर-राज्यीय आवाजाही के लिए विशेष मध्यस्थों के साथ समन्वय में काम करते हैं। इन मध्यस्थों को भी सरदार ही कहा जाता है। मध्यस्थों के दोनों समूहों ने दावा किया कि भर्ती किए गए श्रमिकों के लिए सुरक्षित मार्ग उपलब्ध कराने के लिए वे पुलिस और श्रम विभाग के अधिकारियों को नियमित रूप से रिश्वत देते हैं।

पश्चिमी ओडिशा के हरिशंकर रोड रेलवे स्टेशन के बाहर प्रवासी मजदूरों का परिवार।

कार्रवाई के बाद उन्होंने श्रमिकों की बेटोक आवाजाही सुनिश्चित करने के लिए ग्राम समितियों, पुलिस अधिकारियों, रेलवे और श्रम विभाग के अधिकारियों और पत्रकारों को रिश्वत देना जारी रखा, हालांकि अधिक रेटों पर।

इस बीच गौरव भोई और उनके भाई-बहनों जैसे लाखों श्रमिकों को अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए अमानवीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, जैसा कि वे पुलिस की कार्रवाई से पहले भी करते थे। उन्होंने तंग और भीड़ भरे रेलवे डिब्बों में लंबी यात्राएं तय कीं, जिनके दौरान उन्हें कई बार ट्रेन बदलनी पड़ती, वे हमेशा अपने ट्रांसपोर्ट सरदार के लड़कों की निगरानी में रहते और उन्हें आईएसडब्ल्यूएमए के तहत अनिवार्य विस्थापन और यात्रा भत्ता भी न दिया जाता।

अनिवार्य विस्थापन और यात्रा भत्ते का भुगतान नहीं किया जाता

आईएसएमडब्ल्यूए के अध्याय 3 में अधिदिष्ट किया गया है कि पांच या अधिक अंतर-राज्यीय प्रवासी श्रमिकों की भर्ती करने वाले सभी सरदारों को कार्यस्थल के स्थान, काम की प्रकृति और घंटे, पारिश्रमिक और अन्य प्रासंगिक विवरणों का उल्लेख करते हुए गृह राज्य से लाइसेंस प्राप्त करना चाहिए। उन्हें लिए भर्ती/कार्य में शामिल होने के 15 दिनों के भीतर घर के साथ-साथ गंतव्य राज्यों में कार्य-स्थल की जानकारी के बारे में भी सभी श्रमिकों का विवरण प्रस्तुत करने का भी आदेश दिया गया है।

अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिकों के लिए अपने गृह राज्य से लाइसेन्स प्राप्त करना अनिवार्य है।

केबीके क्षेत्र में सरदारों ने बड़े पैमाने पर इस प्रावधान का पालन किया, खासकर हाल के वर्षों में। लेकिन उन्होंने भर्तियों की संख्या को काफी कम बताया। उदाहरण के लिए, दो सरदारों ने आर्टिकल 14 को 50 श्रमिकों के लाइसेंस दिखाए, जबकि बताया कि वास्तव में उन्होंने 200 से अधिक श्रमिक भेजे थे।

इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं थी कि उनके सरदार एस ने गौरव भोई और उसके भाई-बहनों को नुन्हाड़ गांव में उसके आवास पर उससे मिलते वक्त सावधान रहने के लिए कहा था। उनके लिए उसके निर्देश संक्षिप्त और स्पष्ट थे।

उन्हें नुन्हाड़ से कांटाबांजी रेलवे स्टेशन तक बस से यात्रा करनी थी और अपने हैंडलर से मिलना था, जो उन्हें विशाखापत्तनम की ट्रेन में बिठाएगा। वहां से उन्हें हैदराबाद के लिए दूसरी ट्रेन पकड़नी थी। उसके बाद एक निजी टैक्सी से रजनी सेठ के ईंट भट्ठे तक जाना था।

रास्ते में अगर कोई पुलिसकर्मी या अधिकारी उनसे पूछताछ करता तो उनको खुद को पर्यटक बताना था। किसी भी परिस्थिति में उन्हें यह नहीं बताना था कि वे ईंट भट्ठा मजदूर थे, या एस उनका सरदार था।

एस ने भोई भाई-बहनों को यात्रा के लिए 1,000 रुपये दिए। इनमें से लगभग 400 रुपये हैदराबाद के चार अनारक्षित टिकटों के लिए थे और बाकी रास्ते में भोजन और अन्य खर्चों के लिए। दूसरी ओर ईएसएमडब्ल्यूए की धारा 14 के तहत मासिक वेतन के 50% या 75 रुपये, जो भी अधिक हो, के बराबर विस्थापन भत्ता अनिवार्य किया गया है।

भोई परिवार के सदस्य प्रति व्यक्ति प्रति माह लगभग 13,333 रुपये कमाते हैं, जिससे कानून द्वारा अनिवार्य भत्ता 6,500 रुपये प्रति व्यक्ति होता है।

कांटाबांजी की बस यात्रा पर कुछ खास नहीं हुआ। रेलवे स्टेशन के बाहर जो हैंडलर उनसे मिला था, वह उन्हें प्लेटफॉर्म से कुछ ही दूरी पर रेलवे पटरियों के बगल में एक अंधेरे एकांत स्थान पर ले गया। वे वहां अन्य प्रवासी परिवारों के साथ इंतजार करते हुए हैंडलर की निगरानी में रहे।

गौरव भोई ने कहा, “उन्होंने हमें रात के खाने में बिरयानी दी और पीने वालों को शराब दी। उन्होंने अन्य परिवारों को टिकट भी दिए, लेकिन चूंकि हमने कोई अग्रिम राशि नहीं ली थी, इसलिए हमने अपने टिकट खुद ही खरीदे।”

ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क की सह-संस्थापक और सीनियर एडवोकेट गायत्री सिंह ने कहा कि आईएसएमडब्ल्यूए को इसलिए लागू नहीं किया गया है क्योंकि इससे नियोक्ताओं को लाभ मिलता है। उन्होंने आर्टिकल 14 को बताया, “सरकार दृढ़ नहीं है और कानून लागू करने के लिए कोई मशीनरी या व्यक्ति नहीं हैं।”

उन्होंने कहा कि श्रमिक उल्लंघनों के बारे में शिकायत दर्ज करने से बचते हैं, क्योंकि उन्हें श्रमिक ठेकेदारों और मालिकों का डर होता है, जो शिकायत के बारे में पता चलने पर उन्हें बाहर निकाल देंगे। उन्होंने कहा, “केवल यूनियन और नागरिक समाज संगठन ही ऐसी संस्थाएं हैं जो उनकी ओर से हस्तक्षेप कर सकती हैं। लेकिन वे भी श्रमिकों पर ज्यादा प्रभाव छोड़ने में कामयाब नहीं हो पाती हैं।”

‘हम बेरोजगारी की समस्या का समाधान कर रहे हैं’

कांटाबांजी और केबीके क्षेत्र के अन्य प्रमुख यातायात बिंदुओं के आसपास के गांवों में सरदारों के घरों को आसानी से पहचाना जा सकता था।

अधिकांश गांव के घरों में ईंट की दीवारें और टाइल या फूस की छतें थीं, जबकि कुछ के पास एक मंजिला या दो मंजिला घर थे। दूसरी ओर, सरदार बहुमंजिला घरों या विशाल बंगलों में रहते हैं, जिनमें बड़े परिसर, ऊंची चारदीवारी और गेट पर सुरक्षा गार्ड तैनात होते हैं। कुछ के बारे में कहा जाता है कि वे ऋण वसूलते समय प्रवासी श्रमिकों के परिवारों के प्रति बहुत निर्दयी होते है। कुछ के बारे में अफवाह थी कि वे बंदूकें और हथियार साथ ले कर चलते हैं। कई गांव वालों ने बताया कि कुछ हर दूसरे साल एक नई कार खरीदते हैं।

बोलांगीर जिले के बेलपाड़ा और खापराखोल ब्लॉक में कुछ सरदारों ने बातचीत के दौरान आर्टिकल 14 को बताया कि वे कैसे काम करते हैं, कहां पैसा कमाते हैं और प्रति सीज़न कितना कमाते हैं।

सरदारों ने बताया कि वे तीन प्रमुख तरीकों से पैसा कमाते हैं।

वे भट्ठा मालिकों द्वारा अग्रिम भुगतान की तुलना में पलायन करने वाले परिवारों को नियमित रूप से कम पैसे देते हैं। दी गई वास्तविक राशि प्रवासी परिवारों की परिस्थितियों और सौदेबाजी की शक्ति और सरदार के साथ उनके संबंधों पर निर्भर करती है।

वे प्रवासियों को ट्रेन द्वारा अनारक्षित डिब्बों से भेजते हैं, जिससे भट्ठा मालिकों द्वारा दिए गए यात्रा शुल्क में से 70–80% की बचत करने में मदद मिलती है।

सीज़न के अंत में उन्हें मालिकों से कमीशन भी मिलता है। राशि पीस-रेट के आधार पर करी जाती है, और भर्ती किए गए हर श्रमिक के वेतन में से लगभग 10–20% हिस्सा उनका होता है।

प्रत्येक सरदार के पास 10-30 गुर्गे होते हैं, जिन्हें दूसरे या तीसरे स्तर के सरदार कहा जाता है। इनका प्राथमिक काम ऑफ सीजन के दौरान परिवारों के संपर्क में रहना और ऋण देने के अवसरों का पता लगाना होता है।

खपराखोल के धामनीमल गांव के दूसरे स्तर के एक सरदार जे ने कहा, “मान लीजिए कि किसी परिवार को मेडिकल खर्च के लिए 2,000 रुपये या कृषि इनपुट खरीदने के लिए 5,000 रुपये की आवश्यकता है तो वे मुझसे पूछते हैं, और मैं जाकर सरदार को बताता हूं।” यह जानकारी मिलते ही सरदार पैसे का प्रबंध करता है, गुर्गे को उसकी बाइक के लिए पेट्रोल का खर्च देता है, देशी शराब के कुछ पाउच सौंपता है और अन्य खर्चों के लिए 100–200 रुपये ऊपर से देता है।

एक दूसरे स्तर का सरदार अपनी मोटरसाइकिल पर।

सरदार आम तौर पर ये छोटे ऋण बिना किसी ब्याज के देते हैं और इन ऋणों को प्रवास से पहले परिवारों को दी गई एकमुश्त अग्रिम राशि से काट लेते हैं।

एक प्रमुख सरदार ने कहा, “हम इस क्षेत्र में बेरोजगारी की समस्या का समाधान कर रहे हैं। अगर हम काम बंद कर देते हैं तो डकैती और छोटी-मोटी चोरी के मामलों में तेजी से बढ़ोती होगी, क्योंकि लोग बेहद गरीब हैं और स्थानीय स्तर पर कोई रोजगार उपलब्ध नहीं है। फिर भी हमारे साथ अपराधियों जैसा व्यवहार किया जाता है।”

प्रमुख सरदारों की समृद्धि ग्रामीणों के लिए दंतकथाओं का विषय है।

सितंबर 2022 में जब आर्टिकल 14 गौरव भोई के गांव ऐनलाभाटा में था, एक शानदार सफेद सेडान अपनी पीछे धूल का गुबार और एक सामूहिक ‘आह’ छोड़ते हुए तेजी से आगे बढ़ी।

“वह हर दूसरे मौसम में अपनी कार बदलता है,” गौरव भोई के ममेरे भाई और दोस्त नीराकार ने कहा। वह आठ साल की उम्र से ईंट भट्टों में काम कर रहा था। इससे एस की पुरानी और नई गाड़ियों के बारे में फुसफुसाहट शुरू हो गई।

लांजीगढ़ में बड़े ठेकेदारों को निर्माण श्रमिकों की आपूर्ति करने वाले भोई भाई-बहन के चाचा ओंकार खरसिल के अनुसार, सरदारों ने पैसा सोने और ज़मीन में निवेश किया है। यह निवेश उनकी पत्नियों, बच्चों, रिश्तेदारों, घरेलू नौकरों और अन्य ग्रामीणों के नाम पर भी किया गया है। खरसिल ने कहा, “वे जो कपड़े पहनते हैं, जो चादर ओढ़ते हैं…इतना मुलायम…यहां तक कि (मुख्यमंत्री नवीन) पटनायक के पास भी ऐसा सामान नहीं है।”

तस्करों के लिए भुगतान और जोखिम

हालांकि सरदार एक भव्य जीवन जीते हैं, लेकिन उनके व्यापार में कई स्तरों पर भुगतान करना शामिल होता है।

जिन गांवों से वे श्रमिकों की भर्ती करते हैं, उन गांवों में सरदार ग्रामीण समितियों को वार्षिक दान देते हैं। यह पैसा अधिकतर मंदिरों के निर्माण के लिए इस्तेमाल होता है। इसके अलावा, वे इन समितियों को दूसरे राज्य में स्थानांतरित होने वाले प्रति परिवार के लिए एक निर्धारित राशि (1,000 से 1,500 रुपये) का भुगतान भी करते हैं।

इसके बाद छापे और कानूनी मामलों से बचने के लिए पुलिस और श्रम विभाग के अधिकारियों को रिश्वत दी जाती है।

प्रवासी श्रमिकों की भीड़ को आराम से सवार होने देने के लिए ट्रेनों को निर्धारित समय से कुछ मिनट अधिक समय तक रोकने के लिए सरदार रेलवे अधिकारियों और पुलिस वालों को भी रिश्वत देते हैं।

रिश्वत के बावजूद, सरदारों को भारी जोखिमों का सामना करना पड़ा है।

पहला और सबसे व्यापक जोखिम पुलिस, पत्रकार और गांव-स्तरीय प्राधिकारी जैसे कि गांवतिया (औपनिवेशिक काल का एक स्थानीय शीर्षक, जो भूमि कर संग्रह के लिए सबसे अधिक पट्टे की राशि की बोली लगाने वाले को दिया जाता था), पुजारियों और पंचायत के सदस्यों से है, जो मजदूरों को निकलते वक्त देख लेते हैं और उन्हें जाने देने के लिए फिरौती की मांग करते हैं।

पकड़े गए श्रमिकों की संख्या के आधार पर फिरौती की मांग कुछ हज़ार से लेकर कुछ लाख रुपये तक होती है। भुगतान करने से इनकार करने पर श्रमिकों के प्रस्थान में देरी हो सकती है और/या तस्करी के मामले दर्ज किए जा सकते हैं, इसलिए सरदार आमतौर पर ऐसी मांगों को स्वीकार कर लेते हैं।

कुछ सरदार तब भी रिश्वत देते हैं जब श्रमिक आईएसएमडब्ल्यूए के तहत रजिस्टर्ड हों।

तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भट्ठा मालिकों को लगभग 500 श्रमिकों की आपूर्ति करने वाले खपराखोल ब्लॉक के एक सरदार एसडी ने बताया, “पिछले साल जब पुलिस ने मेरे श्रमिकों को स्टेशन ले जा रही पिकअप वैन को रोका तो उन्होंने प्रति (अपंजीकृत) श्रमिक के 1,000 रुपये लिए। लेकिन पंजीकृत श्रमिकों के लिए भी उन्होंने प्रति व्यक्ति 500 रुपये लिए। फिर श्रमिकों के रजिस्ट्रेशन का क्या मतलब है?”

एसडी ने लगभग 75 श्रमिकों के लिए आईएसएमडब्ल्यूए के प्रावधानों का अनुपालन करने के लिए बेलपाड़ा ब्लॉक में एक गैर-लाभकारी संस्था की सेवाएं लीं थीं।

सरदारों या उनके गुर्गों के ख़िलाफ़ पुलिस केस उनके व्यापार में दूसरा बड़ा जोखिम है। उन्हें छापामारी या श्रमिकों की आवाजाही के बारे में गुप्त सूचना के बाद दर्ज किया जाता है। और इन श्रमिकों को ‘बचा लिया जाता’ है और वापस उनके गांवों में भेज दिया जाता है। अक्सर, पुलिस द्वारा श्रमिकों को गवाह के रूप में भी शामिल किया जाता है।

तस्करी के हर मामले में एक सरदार की संपत्ति में से कम से कम कुछ लाख रुपये खर्च हो जाते हैं।

आंध्र और तेलंगाना में भट्ठा मालिकों को 5,000 से अधिक श्रमिकों की आपूर्ति करने वाले बेलपाड़ा ब्लॉक के एक प्रमुख सरदार जीटी ने बताया कि ऐसा क्यों और कैसे होता है।

“अगर पुलिस 20 श्रमिकों को पकड़ती है और मेरे लोगों के खिलाफ मामला दर्ज करती है तो हमें 10 लाख रुपये से अधिक का नुकसान होगा। इसमें श्रमिकों के टिकट और यात्रा पर खर्च किए गए 1 लाख रुपये, अग्रिम भुगतान के रूप में 8 लाख रुपये, अदालत में आरोपों का मुकाबला करने के लिए कानूनी खर्च, और पुलिस एवं नेताओं के लिए रिश्वत के रूप में 1 लाख रुपये या इससे अधिक देना शामिल हैं।”

अगर ऐसे मामलों में उन्हें खुद ही आरोपी बनाकर जेल में डाल दिया जाता है तो नुकसान ज्यादा होता है।

उसने आगे कहा, “मैंने अलग-अलग गांवों में परिवारों को अग्रिम राशि के रूप में 30 से 40 लाख रुपये दिए होंगे। अगर मैं लंबे समय के लिए जेल चला गया तो यह सारा पैसा डूब जाएगा।”

सरदारों को लिए तीसरा प्रमुख जोखिम है सीज़न के बीच में ईंट भट्टों से श्रमिकों का भागना या उन्हें बचा लिया जाना। कार्यस्थलों पर अत्यधिक शोषणीय स्थितियों (इन स्थितियों का आगामी भाग 3 और 4 में विस्तृत रूप से वर्णन किया है) ने ऐसे मामलों में बढ़ोतरी की है। इसके लिए सरदारों को मालिकों को शेष अवधि के लिए फरार श्रमिकों को दी गई अग्रिम मजदूरी का भुगतान करना पड़ता है।

इस प्रकार, व्यापार की अनियमित्ताओं से जले हुए सरदारों की संख्या उन सरदारों से अधिक है, जो व्यापार में लगे रहे और जम गए।

‘उसने धमकी दी कि वह मुझे ढूंढ लेगा और मार डालेगा’

गौरव भोई के चाचा ओंकार खरसिल एक ऐसे सरदार का अच्छा उदाहरण हैं, जो कुछ बड़ा नहीं कर पाए।

2012 में सरदार बनने से पहले खरसिल ने आठ साल की उम्र से 16 साल के लिए तेलंगाना में विभिन्न जगहों पर ईंट बनाने का काम किया।

उसने कहा, “मैं पढ़ना, लिखना और गिनती करना जानता हूं। इसलिए जब मैं भट्ठे पर काम करता था तो 20-30 साथी श्रमिकों का हिसाब-किताब रखता था।”

भोई भाई-बहनों के चाचा ओंकार खरसिल सरदार बनने से पहले 16 साल तक ईंट ढालने वाले के रूप में काम करते थे।

वह ऑफ-सीजन महीनों के दौरान ईंटों की लोडिंग और डिलीवरी और अन्य काम करने के लिए दो साल तक वहीं रुका था। उसने बताया, “मालिक ने मुझ पर भरोसा किया और मुझे 1 लाख रुपये दिए।”

उसका व्यापार छह साल तक फलता-फूलता रहा। इस दौरान उसने तेलंगाना के पैदापल्ली जिले के एक भट्ठा मालिक को ऐनलाभाटा से 20-30 ईंट मोल्डर्स की आपूर्ति की। गांव में उसने विशाल एक मंजिला घर बनाया, एक कार, कुछ ज़मीन और सोना खरीदा और शादी कर ली।

2017 में सीज़न की शुरुआत से कुछ समय पहले मालिक ने श्रमिकों की अपनी आवश्यकता को दोगुना कर दिया। इससे श्रमिकों की कुल संख्या 60 हो गई। खरसिल ने अन्य गांवों से 30 श्रमिकों को बुलाया, लेकिन पैदापल्ली में कुछ दिनों तक काम करने के बाद ही ये श्रमिक फरार हो गए।

क्रोधित सेठ ने खारसिल से इन 30 श्रमिकों को अग्रिम राशि के तौर पर दिए गए 9 लाख रुपये वापस करने को कहा।

खरसिल ने इस घटना के बारे में बताते हुए कहा, “मुझे नहीं पता था कि क्या करना है। मैंने उससे विनती की। मैंने श्रमिकों को वापस भेजने की कोशिश की। मैंने उनके गांवों में उनकी तलाश की। लेकिन मैं उन्हें कहीं नहीं ढूंढ सका।”

उसने मालिक को कुछ लाख रुपये चुकाने के लिए अपनी कार, अधिकांश ज़मीन और इक्ट्ठा किया सोना बेच दिया। फिर अपना मोबाइल नंबर बदल लिया और व्यापार छोड़ दिया।

कुछ साल बाद उसने निर्माण क्षेत्र में श्रमिकों की आपूर्ति शुरू कर दी, जहां कोई अग्रिम राशि नहीं दी जाती और आय ठीक-ठाक होती है, लेकिन उतनी अच्छी नहीं जितनी पहले होती थी।

खरसिल ने इस संबंध में बताया, “अब भी जब पड़ोसी गांवों से कोई पैदापल्ली के उस मालिक की फैक्ट्री में काम करने जाता है तो वह धमकियां भेजता है कि अगर मैंने उसके पैसे नहीं लौटाए तो मैं उसे जहां भी मिलूंगा, वह मुझे मार डालेगा।”

हालांकि, खरसिल अभी भी नई कार खरीदने की कोशिश कर रहा है।

कांटाबांजी: श्रम तस्करी का केंद्र

जब 1980 के दशक में केबीके क्षेत्र के गरीब ग्रामीणों ने बड़ी संख्या में ईंट भट्टों की ओर पलायन करना शुरू किया था तब कांटाबांजी एकमात्र रेलवे स्टेशन था जो ट्रेन द्वारा दक्षिण भारत से जुड़ा था। इसने इस छोटे से टाउन को श्रमिक प्रवासन और तस्करी के केंद्र में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

स्थानीय रूप से प्रसिद्ध मकरू और दशरथ सहित रेलवे स्टेशन के बाहर स्टॉल चलाने वाले दुकानदारों और विक्रेताओं में सरदारों की पहली पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा शामिल है। स्थानीय अभिजात वर्ग के सदस्य, जिनमें मुस्लिम/पठान और राजनीतिक संपर्क वाले लोग शामिल है, अन्य बड़ा हिस्सा है।

उदाहरण के लिए एक प्रमुख सरदार को एक राजनेता के साथ मिलकर काम करने के लिए जाना जाता है। यह राजनेता 1980 के दशक में रुपया उधार देने का कारोबार करता था और बाद में राज्य विधानमंडल के लिए चुना गया।

अधिकांश शुरुआती सरदार कांटाबांजी और उसके आसपास रहते और भट्ठा मालिकों के साथ अपना पहला सौदा करने के लिए हैदराबाद, विशाखापत्तनम और आंध्र प्रदेश की अन्य जगहों की यात्रा करते थे।

कांटाबांजी का पहला होटल ‘श्री अन्नपूर्णा लॉज’ 1982 में छह कमरों के साथ शुरू हुआ था। अब यह एक चार मंजिला इमारत है, जिसमें संकीर्ण गलियारों और बालकनियों के साथ कई सारे कमरे बने हैं। इसके प्रमुख ग्राहक भट्ठा मालिक हैं, जो सरदारों से मिलने के लिए हर मानसून के बाद शहर का दौरा करते हैं और आम तौर पर पथरियों (आम तौर पर एक ही परिवार से तीन से पांच श्रमिकों के समूह) की निर्धारित संख्या में भर्ती करने के लिए नकद भुगतान करते हैं।

कांटाबांजी के पहले होटल श्री अन्नपूर्णा लॉज का छह कमरों के साथ 1982 में उद्घाटन हुआ।

‘श्री अन्नपूर्ण लॉज’ की सफलता को देखकर क्षेत्र में जल्द ही नए लॉज और होटल खुल गए। इसी दौरान ट्रेन द्वारा प्रवासी परिवारों के टिकट और परिवहन का काम संभालने वाले विशेष एजेंटों का एक नेटवर्क भी आकार ले चुका था; कई एजेंटों ने ईंट भट्टों पर मजदूरों की भर्ती और आपूर्ति भी की। शहर में व्यापारियों ने सरदारों को विशेष रूप से ऑफ-सीज़न में 16–18% प्रति वर्ष की दर पर पैसा उधार देकर फलते-फूलते व्यवसाय जमा लिए। कथित तौर पर पुलिसकर्मियों और पत्रकारों ने रास्ते में प्रवासी परिवारों के मिलने पर सरदारों से रिश्वत लेना शुरू कर दिया।

स्थानीय लोगों ने कहा कि केबीके क्षेत्र में सरदारों की संख्या बाद के दशकों में तेजी से बढ़ी, जो क्षेत्र से संकटग्रस्त प्रवासन में वृद्धि के साथ मेल खाती है। कई दलित हैं, जिन्होंने ईंट मढ़ने के काम से शुरुआत की थी। कई कांटाबांजी से दूर और नुआपाड़ा, हरिशंकर रोड एवं नबरंगपुर जैसे नए रेलवे स्टेशनों के करीब के गांवों में रहते हैं।

इन स्टेशनों के आसपास के क्षेत्र श्रमिकों के प्रवासन और तस्करी के नए केंद्र बन गए। वहां भी होटल और लॉज, ट्रांसपोर्ट एजेंट, साहूकार और रिश्वत लेने वाले पुलिसकर्मी जम गए।

कांटाबांजी पुलिस की छापेमारी में 58 लाख रुपये नकद मिले

2022–23 के प्रवासन चक्र की शुरुआत में श्रमिक प्रवासन और तस्करी के केंद्र कांटाबांजी में एक असामान्य घटना ने इस क्षेत्र में भट्ठा मालिकों के प्रभाव का एक और सबूत दिया।

15 सितंबर को कांटाबांजी के उप-विभागीय पुलिस अधिकारी हृषिकेश मेहर ने एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया, जिसमें 30 से अधिक पत्रकार शामिल थे। इन पत्रकारों में पड़ोसी शहर पटनागढ़ और खरियार के कुछ पत्रकार भी शामिल थे।

मेहर करेंसी नोटों के बंडलों और मोबाइल फोन से भरी एक मेज के पीछे बैठे थे। मेज के पीछे सात आदमी खड़े थे, जिनके सिरों पर काला कपड़ा लिपटा हुआ था।

मेहर ने बताया कि उनके नेतृत्व में एक टीम ने पिछली रात श्री अन्नपूर्णा लॉज पर छापा मारा था। उन्होंने कमरा नंबर पांच और सात में जुआ खेल रहे तेलंगाना के सात लोगों को गिरफ्तार किया था।

इस रेड में मेज पर रखे ताश, मोबाइल फोन और सिम कार्ड के अलावा 58,52,250 रुपये नकद जब्त किए गए।

वहां पत्रकार यह जानने को उत्सुक थे कि क्या आरोपी भट्टा मालिक थे, और क्या नकदी सरदारों को सौंपी जानी थी। इस बारे में मेहर ने बस यही कहा, “समय आने पर आपको सब कुछ पता चल जाएगा।”

इस घटनाक्रम से स्थानीय पत्रकार परेशान हो गए। पुलिस का भट्ठा मालिकों पर छापा मारना और उन्हें गिरफ्तार करना बेहद असामान्य था। इस बारे में तेज़ी से अटकलें लगाई गईं कि क्या ऑपरेशन के पीछे असंतुष्ट सरदार या प्रतिद्वंद्वी लॉबी है?

एक रिपोर्टर ने दावा किया कि जब्त की गई नकदी को कम बताया जा रहा है और भट्ठा मालिकों को झूठे कारणों से जुआरी करार दिया जा रहा है।

पांच दिन बाद 20 सितंबर को मेहर का कांटाबांजी से ट्रांसफर कर दिया गया और बाद में पुलिस ऑपरेशन के दौरान जब्त की गई नकदी को कथित तौर पर कम बताने के आरोप में निलंबित कर दिया गया। स्थानीय मीडिया में आई खबरों में कहा गया कि लॉज से जब्त किए गए अतिरिक्त 13 लाख रुपये कांटाबांजी पुलिस स्टेशन के अंदर रखे एक बैग में पाए गए।

महामारी के बाद की कार्रवाई अप्रभावी रही है

2020 और 2021 में COVID-19 महामारी और लॉकडाउन के दौरान प्रवासी श्रमिकों के बड़े पैमाने पर पलायन ने सरकारों और नीति निर्माताओं को प्रवासियों की समस्याओं और चिंताओं को दूर करने के लिए कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया।

ओडिशा में राज्य सरकार ने अंतर-राज्यीय प्रवासी श्रमिकों की सुरक्षा और कल्याण के लिए राज्य कार्य योजना शुरू की, जिसमें सुरक्षित और सूचित प्रवासन को बढ़ावा देना, पंचायत स्तर पर प्रवासी श्रमिकों की ट्रैकिंग और आईएसएमडब्ल्यूए को लागू करना शामिल था।

पुलिस ने कांटाबांजी और तस्करी के अन्य प्रमुख केंद्रों के आसपास चेक पोस्ट भी बनाए और मानव तस्करी से संबंधित कानून की धाराओं के तहत सरदारों के खिलाफ मामले दर्ज किए।

उपाख्यानों से संकेत मिलता है कि COVID-19 के बाद की अवधि में तस्करी के मामलों की दर्जी में वृद्धि देखी गई, जो इस प्रकार की कार्रवाई का एक संभावित परिणाम हो सकता है।

पुलिस अधिकारियों ने आर्टिकल 14 को बताया कि इनमें से अधिकतर मामले कमज़ोर थे और उनमें सजा होने की संभावना नहीं थी।

बोलांगीर जिला के खपराखोल पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी रमाकांत साहू ने कहा, “सभी मामले प्रवासी परिवारों के बयानों पर आधारित हैं, जो या तो अदालत में मुकर जाते हैं या सुनवाई में शामिल होने में असमर्थ होते हैं, क्योंकि वे साल के अधिकांश समय दूसरे राज्यों में काम करते हैं।”

उन्होंने आर्टिकल 14 को बताया कि सरदारों ने भट्ठों पर भेजे जाने वाले प्रवासी मजदूरों में से 20% को तेजी से रेल के बजाय सड़क परिवहन में ट्रांसफर कर दिया।

कांटाबांजी स्थित ट्रैवल एजेंसी के ड्राइवर कृष्णा ने कहा, “COVID-19 अवधि के दौरान जब ट्रेनें नहीं चल रही थीं और रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर भारी पुलिस निगरानी थी तो सड़क मार्ग से बड़े पैमाने पर आवाजाही शुरू हुई। सड़कें एक सुरक्षित दांव थीं, क्योंकि वहां पुलिस की मौजूदगी कम थी, खासकर कि जब प्रमुख जंक्शनों से बचना मुमकिन हो।”

कृष्णा ने 2020 और 2021 में कई बार प्रवासी परिवारों को हैदराबाद और तेलंगाना के अन्य स्थानों पर पहुंचाया था।

इस अवधि के दौरान प्रवासी परिवारों को गंतव्य राज्यों तक पहुंचाने के लिए कारों, पिक-अप वैनों और बसों को बड़ी संख्या में इस्तेमाल किया गया। नुआपाड़ा जिले के सिनापाली और तेलंगाना के हैदराबाद के बीच बस सेवाएं भी शुरू की गईं, जहां अधिकांश प्रवासी कार्यरत हैं।

स्थानीय लोगों ने कहा कि इस मार्ग पर अब तीन बस ऑपरेटर सेवा दे रहे हैं, जिनमें से केवल एक ही रजिस्टर्ड है। इस ऑपरेटर द्वारा सेवा प्राप्त बसों के टिकट ‘रेडबस’ जैसे ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर भी उपलब्ध हैं।

खरियार के पत्रकार अजीत पांडा ने कहा, “बसें सरदारों के स्वामित्व में हैं और यात्री ज्यादातर नुआपाड़ा और पड़ोसी जिलों के गरीब, अपंजीकृत ग्रामीण हैं। रजिस्टर्ड ऑपरेटर के पास एक बस का लाइसेंस होता है, लेकिन वह तीन बसें चला रहा होता है। यह सब पुलिस और सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से हो रहा होता है, जिन्हें मोटी रिश्वत दी जाती है।”

जोखिमों और कठिनाइयों से भरी यात्रा

इस बीच, ट्रेन से गंतव्य राज्यों की यात्रा करते हुए अधिकांश प्रवासी परिवारों के लिए अनारक्षित डिब्बों में यात्रा की स्थितियां महामारी से पहले की तरह ही कठिन हैं। भोइयों का मामला भी अलग नहीं है।

कांटाबांजी में जिस डिब्बे में उन्हें बिठाया गया था वह पहले से ही स्वीकृत क्षमता 80 से कहीं अधिक यात्रियों से भरा हुआ था।

औरव और भाग्यवती भोई सामान रखने के लिए बनी शेल्फ पर रेंगकर बैठने में कामयाब रहे, जहां पहले से ही कई अन्य लोग बैठे हुए थे। जबकि गौरव और चित्रसेन भोई को दरवाजे के पास जगह मिल गई।

कोरबा-विशाखापत्तनम लिंक एक्सप्रेस 13 दिसंबर को सुबह करीब 7 बजे अपने गंतव्य पर पहुंची। भोईयों के साथ कोई भी निगरानी रखने वाला नहीं था, क्योंकि उन्होंने अग्रिम भुगतान नहीं लिया था। वे लगभग 12 घंटे तक स्टेशन पर इंतजार करते रहे। इस दौरान, उन्हें लगातार पुलिस से पकड़े जाने का डर लगा रहा।

13 दिसंबर की शाम करीब 7 बजे वे सिकंदराबाद जाने के लिए ट्रेन में चढ़े।

चित्रसेन भोई ने कहा, “यह ट्रेन पिछली ट्रेन की तरह ही खचाखच भरी थी, लेकिन हमें राहत मिली, क्योंकि अब पुलिस द्वारा हमें पकड़ने की संभावना बहुत कम थी।”

उनकी यह राहत सबूतों पर आधारित थी। तेलंगाना में कई भट्ठा मालिकों, सरदारों और पुलिस और प्रशासन के सूत्रों ने आर्टिकल 14 को बताया कि वहां पुलिस प्रवासी श्रमिकों को रोकती या परेशान नहीं करती।

हालांकि, न तो गौरव और न ही चित्रसेन भोई ने ट्रेन के नाम या नंबर पर ध्यान दिया, क्योंकि वे एक जोखिम भरे, लेकिन सोच-समझकर कदम उठाने की योजना बनाने में व्यस्त थे।

सरदार ने भोइयों को हैदराबाद के बाहरी इलाके में स्थित रजनी सेठ की फैक्ट्री में काम के लिए रिपोर्ट करने का निर्देश दिया था। लेकिन वहां काम करने वाले ऐनलाभाटा के अन्य ग्रामीण श्रमिकों ने उन्हें चेतावनी दी थी कि मालिक मामूली उल्लंघनों के लिए श्रमिकों के साथ मारपीट करता है और अक्सर भुगतान करने में देरी करता है।

हैदराबाद से 30 किलोमीटर दूर रविरयाल गांव में स्थित ईंट भट्टे के पास साप्ताहिक बाजार के दिन भोई भाई-बहन।

दूसरी ओर, डी वेंकटेश्वरलु, जिसके कारखाने में भोई लोगों ने पिछले वर्ष काम किया था, वह काम का बहुत सख्त था और टार्गेट पूरा नहीं करने वाले श्रमिकों के साथ दुर्व्यवहार करता था और उन्हें मारता था। लेकिन वह भुगतान के मामले में तत्पर और निष्पक्ष था। भोई लोगों ने उसे इतना प्रभावित किया था कि उसने उन्हें अपना फ़ोन नंबर दे दिया था।

इसलिए 14 दिसंबर को दोपहर के आसपास ट्रेन से सिकंदराबाद स्टेशन पहुंचने के बाद भोई परिवार ने प्लेटफ़ॉर्म पर एक शांत जगह ढूंढी और इसके बाद गौरव ने अपनी बनाई योजना पर काम करना शुरू कर दिया।

गौरव ने हमें बताया, “मैंने मालिक को फोन किया और उसे बताया कि हम उसकी फैक्ट्री में काम करना चाहते हैं। मैंने उससे हमारे सरदार से बात करने का अनुरोध किया। उन्होंने कुछ मिनटों के बाद वापस फोन किया और हमें वहां आने के लिए कहा।“

उन्होंने स्टेशन से वंडरला मनोरंजन पार्क के पास रविरयाल गांव में फैक्ट्री के लिए टैक्सी ली और शाम ढलते-ढलते वहां पहुंच गए। 1,400 रुपये का किराया मुंशी या मैनेजर सीताराम ने दे दिया। वह एक उड़िया था, जिसे वे पहले से जानते थे।

कार्यस्थल पर छह एकड़ के समतल विस्तृत मैदान पर कच्चे माल के ढेर ने उनका स्वागत किया। यह जगह अगले छह महीनों के लिए उनका घर होने वाली थी।

(अरित्र भट्टाचार्य कोलकाता स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। सौरभ कुमार मुंबई स्थित एक शोधकर्ता, मल्टीमीडिया पत्रकार और वृत्तचित्र फिल्म निर्माता हैं। इस रिपोर्टिंग के लिए लेखक ओडिशा के बोलांगीर जिले के तस्करी विरोधी कार्यकर्ता सुशांत पाणिग्रही को उनकी मदद के लिए धन्यवाद देते हैं।)

* भोईयों को संभावित प्रतिशोध से बचाने के लिए नाम छुपाया गया है। 

यह चार भाग वाली श्रृंखला का दूसरा भाग है। आप पहला, तीसरा और चौथा भाग यहां, यहां और यहां पढ़ सकते हैं।

(अंग्रेजी में मूल रिपोर्ट यहां पढ़ें, अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: अनुवाद संवाद )

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