Sunday, April 28, 2024

विशेष रिपोर्ट-1: जाति और गरीबी से पीड़ित आधुनिक गुलामी में जीते लाखों प्रवासी श्रमिक

(पश्चिमी ओडिशा के एक ही इलाके से हर साल 5,00,000 पुरुष और महिलाएं बंधुआ मजदूर के रूप में काम करने के लिए पलायन करते हैं। भारत ने 1976 में बंधुआ मजदूरी पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन आज भी लगभग 1.1 करोड़ लोग आधुनिक गुलामी के विभिन्न प्रचलित रूपों में फंसे हुए हैं। इसके बावजूद, बंधुआ मजदूरी रोकने के लिए कानून लागू करने वाली समितियां अनुपस्थित हैं, या ढंग से अपना काम नहीं कर रही हैं। बंधुआ मजदूरी की पहचान करने के लिए सर्वेक्षण वर्षों से आयोजित नहीं किए गए हैं। वहीं बंधुआ मजदूरी करने वाले श्रमिकों को अक्सर पीटा जाता है, कैद कर लिया जाता है और उन्हें न्यूनतम से भी कम वेतन दिया जाता है। भारत की संपन्न बंधुआ श्रमिक अर्थव्यवस्था पर आधारित यह रिपोर्ट नौ महीनों में तैयार की गई है। रिपोर्ट चार भागों में बंटी हुई है। यह पहला भाग है..)  

बोलांगीर, पश्चिमी ओडिशा। “अबे कहां मर गया था? इतनी देर कैसे लग गई?” हरे-भरे पश्चिमी ओडिशा के एक साधारण गांव ऐनलाभाटा में गौरव भोई के दोस्तों ने निर्माणाधीन घर में उसके घुसते ही यह सवाल किए। वे सब साल में आखिरी बार एक साथ मिल रहे थे।

वह 26 नवंबर 2022 की देर शाम का वक्त था। दूसरे राज्यों में ईंट भट्टों पर मजदूरों की आपूर्ति करने वाले सरदार (मध्यस्थ या एजेंट) का घर। भोई के छोटे भाई औरव समेत इकट्ठा हुए 15-20 आदिवासी और दलित युवाओं में से अधिकांश अगले कुछ दिनों में मेजबान और अन्य सरदारों के माध्यम से पलायन करने वाले थे।

वे छह महीने तक इन भट्टों पर ईंटें ढालेंगे और 2023 में मानसून की शुरुआत में ही ऐनलाभाटा लौट पाएंगे।

22 वर्षीय भोई ने जवाब दिया, “हमें आज अपने खेत का सारा धान काटना था।” कंध आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले भोई ने 2021 में ईंट भट्टों में काम करना शुरू किया था।

उसने उस शाम खाना बनाने के लिए स्वेच्छा जाहिर की और जब उसने करी के लिए चिकन, प्याज, टमाटर और मसाले तैयार किए तो उसके बेसब्र दोस्तों ने एक कोने में लकड़ी से आग जलाने में मदद की।

भोई अपने हल्के कद की कमी को स्टाइल और आत्मविश्वास से पूरा करता दिख रहा था। उसके बाल साइड और पीछे से बारीकी से कटे हुए थे और वह हर समय रंगीन मोतियों का कलाईबंद, बाएं कान में क्रॉस के आकार की बाली और गले में चेन पहनता था।

बाद में जब भोई और उसके दोस्तों ने महुआ के फूलों से बनी पारंपरिक शराब का अच्छी मात्रा में सेवन कर लिया तो बातचीत अगले कुछ महीनों में होने वाली चीजों पर केंद्रित हो गई।

बिना किसी अपवाद के, वे सभी भट्टों पर काम करने की संभावना से डरते थे।

उन्होंने कहा कि उन्हें सुबह से लेकर देर रात तक लंबे समय के लिए काम करना पड़ता है। ज़्यादातर सप्ताह में एक दिन की भी छुट्टी नहीं मिलती। उन्होंने चिलचिलाती गर्मी सहित लंबे समय तक काम करने के कारण दर्द और बीमारी के बारे में बताया। इसके साथ ही लगभग सभी ने आराम करने या खराब स्वास्थ्य के कारण धीमी गति से काम करने के लिए दुर्व्यवहार, गाली-गलौच और पिटाई का सामना किया था। सबसे बुरी बात यह थी कि वे भट्टे और उसके आस-पास के क्षेत्र से बाहर नहीं निकल सकते थे।

समूह के अधिकांश लोग स्कूल छोड़ चुके थे। ऐनलाभाटा के आसपास खेती केवल मानसून के महीनों तक ही सीमित होती है। बाकी समय वहां कोई नियमित रोजगार उपलब्ध नहीं है।

“चाहे कुछ भी हो जाए मैं भट्टों पर काम करने नहीं जाऊंगा,” नशे में भोई की जीभ ने थोड़ा-थोड़ा लड़खड़ाना शुरू कर दिया था।

“मैं मुंबई या किसी अन्य जगह जाऊंगा और जो भी काम मिलेगा, उसे कर लूंगा। लेकिन मैं फिर कभी ईंट भट्टे पर काम नहीं करूंगा,” बाकियों के मौन प्रोत्साहन को पाकर उसने बात बढ़ाई।

उनमें से एक ने किसी ग्रामीण साथी के बारे में बताया जो मुंबई में निर्माण उद्योग में काम करता था; दूसरे ने कहा कि उसके कज़िन्स बेंगलुरु में सुरक्षा गार्ड हैं; तीसरे ने कहा कि उसका कोई दोस्त रायपुर में रसोइया है। उन्होंने अपने इन दोस्तों को कॉल करने का इरादा बनाया, ताकि उनका दोस्त और वे भी आधुनिक गुलामी के चंगुल से बच सकें।

उस रात चिकन करी में नमक थोड़ा ज़्यादा हो गया था और भोई को जल्द ही कुछ समय पहले कहे शब्दों को वापस लेना पड़ा।

दो हफ्ते बाद 12 दिसंबर को भोई और उसके तीन भाई बोलांगीर के बेलपाड़ा तालुका के पड़ोसी गांव नुनहाड़ में रहने वाले एक प्रमुख सरदार एस* के घर पर मौजूद थे। ये लोग तेलंगाना में एक ईंट भट्टे पर अपने आगामी रोजगार के संबंध में निर्देशों का इंतजार कर रहे थे।

ऑडिशा के बोलांगीर निवासी गौरव, चित्रसेन और औरव भोई हैदराबाद में ईंटें ढाल रहे हैं।

भारत में आधुनिक गुलामी क्यों कायम है?

1980 के दशक में सूखे की एक श्रृंखला ने पश्चिमी और दक्षिण-पश्चिमी ओडिशा- कालाहांडी-बोलनगीर-कोरापुट या केबीके क्षेत्र- से दूसरे राज्यों में ईंट भट्टों की ओर संकटपूर्ण प्रवास की पहली लहर को जन्म दिया था।

कुछ ही वर्षों में एक सुव्यवस्थित प्रणाली उभरी। आमतौर पर सितंबर के मध्य में नुआखाई त्यौहार के समय, जब खेतों में फसल कम रहती है, सरदार गांव वालों को एकमुश्त अग्रिम राशि देते। इस अग्रिम राशि को चुकाने के लिए वे मजदूरों से पीस रेट (भाग कि दर) पर ईंटों को ढालने या ढुलाई करने का काम करवाते। प्रवासियों को तब तक भट्टों को छोड़ने की अनुमति नहीं मिलती जब तक कि वे अग्रिम राशि चुकाने के लिए पर्याप्त ईंटें नहीं बना लेते या लाद नहीं देते।

भारत ने 1976 में बन्धित श्रम पद्धति (उत्सादन) अधिनियम (बीएलएसएए) द्वारा रोजगार की इस प्रणाली, जिसे ऋण बंधन कहा जाता है, को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। फिर भी चूंकि बाद के दशकों में ईंट भट्टों की ओर संकटपूर्ण प्रवासन में लगातार वृद्धि होती गई, इसलिए ऋण बंधन और बंधुआ मजदूरी भी कायम रही।

ओडिशा-आंध्र प्रदेश/तेलंगाना प्रवासी मार्ग पर संपन्न बंधुआ मजदूर अर्थव्यवस्था की नौ महीने लंबी जांच के दौरान आर्टिकल 14 ने सितंबर 2022 और फरवरी 2023 के बीच केबीके क्षेत्र में बड़े पैमाने पर यात्रा की।

हमें इस बात के उपाख्यानात्मक सबूत मिले कि महामारी के बाद की अवधि में मुख्य रूप से दलित, आदिवासी ` समुदायों से संबंधित परिवार बड़ी संख्या में वार्षिक स्थानांतरण में शामिल होने की कोशिश कर रहे थे, भले ही भट्टों में उपलब्ध रोजगार कम हो गया हो।

तस्करों पर कार्रवाई के बावजूद, अंतर-राज्य प्रवासी कामगार (रोजगार और सेवा की शर्तों का विनियमन) अधिनियम, 1979 के तहत रजिस्टर नहीं किए गए मजदूरों का आवागमन जारी रहा; जबकि केबीके क्षेत्र में बढ़ते संकट और नौकरियों की कमी के कारण बहुत से लोगों ने एकमुश्त अग्रिम राशि के लिए मजबूरी में अपनी स्वतंत्रता बेच डाली।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगस्त 2022 में घोषणा की थी कि भारतीयों को अपनी “गुलाम मानसिकता” से आगे बढ़ना चाहिए और अपने विवेक और आदतों से “गुलामी के हर कण” को हटा देना चाहिए। उन्हीं ने “न्यूनतम वेतन, नौकरी सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य सुरक्षा” का आश्वासन देते नए श्रम कानूनों के माध्यम से श्रमिकों के सशक्तिकरण का भी वादा किया है।

दरअसल, ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स 2023 के अनुसार, 1.1 करोड़ से अधिक भारतीय आज भी आधुनिक गुलामी में जी रहे हैं। दूसरी ओर, शोध से पता चलता है कि लगभग 2.3 करोड़ मजदूर अकेले ईंट-भट्ठा उद्योग में लगे हुए हैं, जो ऋण बंधन के तहत काम करने वाले कई उद्योगों में से एक है।

प्रवासी परिवारों, सरदारों, सरकारी अधिकारियों और ईंट भट्टा मालिकों के साथ बातचीत के आधार पर तैयार किए गए आंकड़ों से संकेत मिलता है कि केबीके क्षेत्र से लगभग 5,00,000 ग्रामीण ईंट भट्टों में काम करने के लिए हर साल दूसरे राज्यों में चले जाते हैं।

दूसरे शब्दों में अकेले पश्चिमी ओडिशा के लगभग 5,00,000 लोग आधुनिक गुलामी से सीधे तौर पर प्रभावित हैं। इसमें जबरन श्रम, ऋण बंधन और मानव तस्करी जैसी प्रथाएं भी शामिल हैं।

अधिकांश पीड़ित दलित और आदिवासी समुदाय से हैं। यह तथ्य लोगों को जबरन श्रम और तस्करी के प्रति संवेदनशील बनाने में जाति व्यवस्था की भूमिका को भी रेखांकित करता है। वास्तव में इतिहासकारों ने तर्क दिया है (यहां और यहां) कि ईंट भट्टों पर रोजगार में हाशिए पर रहने वाले सामाजिक समूहों की प्रमुखता नौकरियों या संसाधनों की कमी या प्राकृतिक आपदाओं के कारण नहीं है, बल्कि सदियों से चले आ रहे संरचनात्मक अभाव के कारण है।

आर्टिकल 14 ने पाया कि ऐसी स्थितियों का सामना करने के लिए स्पष्ट रूप से अधिनियमित बंधुआ मजदूर प्रणाली (उत्सादन) अधिनियम, 1976 (बीएलएसएए) को शायद ही कभी लागू किया गया। इसके कार्यान्वयन की जिम्मेदारी संभालने वाले कई सरकारी अधिकारी बंधुआ मजदूरी की परिभाषा से अनभिज्ञ हैं। कई जिलों में जिला और उप-मंडल स्तर पर सतर्कता समितियां अनुपस्थित या गैर-कार्यात्मक रही हैं (यहां, यहां और यहां देखिए)। इतना ही नहीं, कई वर्षों से बंधुआ मजदूरों की पहचान करने के लिए सर्वेक्षण तक नहीं किए गए हैं।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन और संयुक्त राष्ट्र प्रवासन की सितंबर 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में दुनिया भर में लगभग 5 करोड़ लोग आधुनिक गुलामी में रह रहे थे, 2016 की तुलना में 1 करोड़ ज्यादा। महिलाएं और बच्चे असमान रूप से असुरक्षित हैं। साथ ही COVID-19 महामारी, सशस्त्र संघर्ष और जलवायु परिवर्तन ने रोजगार को बाधित कर दिया है और असुरक्षित स्थानांतरण को बढ़ावा दिया है। इन दोनों कारकों ने आधुनिक गुलामी के खतरे को और भी अधिक बढ़ा दिया है।

एशिया-प्रशांत क्षेत्र का दुनिया भर की आधुनिक गुलामी में लगभग आधे से अधिक हिस्सा है। रिपोर्ट में श्रमिकों को उनकी इच्छा के विरुद्ध काम करने के लिए मजबूर करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली जबरदस्ती के कई रूपों का हवाला दिया गया है। इन रूपों में कमाए गए वेतन को रोकना, काम से निकाले जाने की धमकी, जबरन कारावास, शारीरिक एवं यौन हिंसा, और बुनियादी जरूरतों से वंचित करना शामिल है।

अभाव से निराशा: गुलामी की ओर डगमगाते कदम

ऐनलाभाटा के भोई हमेशा से तस्करी और आधुनिक गुलामी के प्रति अतिसंवेदनशील नहीं थे।

यह परिवार कंध आदिवासी और गांव के गांवतिया (औपनिवेशिक काल का एक स्थानीय शीर्षक, जो भूमि कर संग्रह के लिए सबसे अधिक पट्टे की राशि की बोली लगाने वाले को दिया जाता था) भागीरथी कोनर से संबंधित था। उसके पास कथित तौर पर 300 एकड़ से अधिक भूमि थी। इससे भोईयों को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे।

पश्चिमी ओडिशा के बोलांगीर जिले के ऐनलाभाटा गांव में अपने घर के बाहर खड़े भोई परिवार के सदस्य।

गौरव और औरव भोई की 40 वर्षीय मां सरस्वती को 1980 के दशक में शादी के उपहार के रूप में अपने गांवतिया चचेरे भाई से 20 एकड़ का खेत मिला था। इसके अलावा, भोइयों ने एक किराने की दुकान भी शुरू की थी।

2017 तक दंपति के 10 बच्चे हो चुके थे। कई वर्षों तक किराने की दुकान, कृषि उपज और उनके सात से आठ महुआ के पेड़ों ने उन्हें जीविका प्रदान की। घर चलाने के लिए कुछ-कुछ समय पर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 (मनरेगा) के तहत मिलने वाली मजदूरी से भी मदद मिली।

2013 के आसपास गांवतिया ने भोई को गांव के मंदिर के पास वासभूमि भी दी थी। वहां उन्होंने टाइल वाली छत के साथ तीन कमरे का घर बनाया। यह परिवार दशकों तक संकटपूर्ण प्रवासन से अछूता रहा।

उनकी पीढ़ी के कम संपन्न कंध आदिवासियों का अनुभव उनसे काफी अलग था। इसमें उनके गांव के कुछ लोग भी शामिल थे।

ऐनलाभाटा गांव में गौरी और शीबा कोनर (दायें पर) अपनी बेटी मौसूमी और पोते के संग।

ऐनलाभाटा की गौरी (उम्र लगभग 60) और शीबा कोनर (उम्र लगभग 70) के पास दो एकड़ से कम कृषि भूमि थी। उन्होंने 1990 के दशक की शुरुआत में ईंट भट्टों की ओर पलायन करना शुरू किया था।

गौरी कोनर ने बताया, “अपनी शादी के कुछ समय बाद हम हैदराबाद में दर्शन सेठ की फैक्ट्री में गए।”

इस तरह वे पहली बार ईंट भट्टे के काम पर गए थे।

“अगर हम टारगेट पूरे नहीं कर पाते तो वे हमें बुरी तरह पीटते थे। हमने फिर भी वहां 10 साल तक काम किया,” उसने आगे कहा, “हम और क्या कर सकते थे। गांव में कोई खाना या काम उपलब्ध नहीं था। और बच्चे भी बड़े हो रहे थे।”

1990 के दशक में प्रत्येक पथरीया ईंट ढालने वालों के समूह से हर हफ्ते 4,000–5,000 कच्ची ईंटों का उत्पादन करने की उम्मीद की जाती थी।

इसके बाद उसने और उसके पति ने अगले 10 सालों तक ओडिशा में विभिन्न ईंट भट्टों पर काम किया; ज़्यादातर मौकों पर उनके साथ उनके पांच बच्चे भी होते थे, जो उनके साथ ही काम करते थे।

आख़िरकार, भोई परिवार अछूता नहीं रहा।

जब कभी बरसात न होती तो वे साहूकारों से 3% से 4% प्रति माह पर ऋण ले लेते। उन्होंने सामाजिक और धार्मिक अवसरों के लिए भी ऋण लिया, जैसे कि उनकी बेटियों के यौवन की शुरुआत को चिह्नित करने के लिए आयोजित किए गए समारोह में होने वाले खर्च के लिए।

हालांकि परिवार का अभी भी गांवतिया द्वारा उन्हें दी गई लगभग 20 एकड़ ज़मीन पर अधिकार है, गौरव और औरव के पिता सारंगा भोई ने कहा कि वे सिर्फ छह एकड़ ज़मीन के मालिक हैं और बाकी खरीदने की प्रक्रिया में हैं। उन्होंने आगे कुछ नहीं बताया। लेकिन गांव वालों ने कहा कि जब देनदार कर्ज नहीं चुकाते तो अक्सर गांवतिया या साहूकार ज़मीन छीन लेते हैं।

2017 तक जब सारंगा और सरस्वती भोई का दसवां बच्चा हुआ तो खेत, किराने की दुकान और महुआ के पेड़ों से घर चलाना पहले से ही मुश्किल हो चुका था।

मुख्यतः, खेत पूरे साल 12 लोगों का पेट नहीं भर सकता था।

इतिहासकार फैनिंदम देव के नेतृत्व में हुए अध्ययन से पता चलता है कि, औसतन, सामान्य मानसून वर्ष में केबीके क्षेत्र में खेती के तहत पांच लोगों के परिवार को साल भर पोषण प्रदान करने के लिए 8-12 एकड़ भूमि की आवश्यकता होती है। इस तथ्य का उनकी 2009 में प्रकाशित पुस्तक ‘रूट्स ऑफ पॉवर्टी: ए सोशल हिस्ट्री’ में भी वर्णन किया गया है।

दूसरा, कपास की खेती से कुछ रुपये तो मिलते, लेकिन बीज, उर्वरक और कीटनाशकों के लिए नए कर्ज भी लेने पड़ते। केबीके क्षेत्र के अधिकांश अन्य कपास किसानों की तरह अपनी उपज का व्यापार करने में अकुशल होने के कारण भोई एक व्यापारी पर निर्भर थे। वह मुफ्त में निवेश वस्तुओं की आपूर्ति करता और उसकी एवज में सारी उपज उसी को बेचनी पड़ती। भोइयों के पास मोलभाव करने की ताकत बहुत कम थी।

तीसरा और सबसे गंभीर मुद्दा कि उनके सबसे बड़े बच्चे शादी की उम्र के करीब पहुंच रहे थे और हर शादी में कम से कम 2 से 3 लाख रुपये का खर्च होता है।

विशेष रूप से यह उनकी सबसे बड़ी बेटी रोस्मिता के लिए सच था, जो क्षेत्र में लड़कियों की विवाह योग्य उम्र 20 साल को पार कर चुकी थी।

अपने सबसे छोटे भाई के जन्म के कुछ महीनों बाद चित्रसेन भोई, जो अब 27 वर्ष का है, ईंट भट्टे पर मीयादी काम करने वाला परिवार का पहला व्यक्ति बन गया। उसने दक्षिणी ओडिशा में एक भट्टे पर जलाईवाले के रूप में काम किया। वहां काम करने की स्थिति अन्य राज्यों की तरह प्रतिकूल नहीं थी। उसने 8,000 रुपये के मासिक वेतन से शुरुआत की, जो चौथे वर्ष तक बढ़कर 12,000 रुपये हो गई।

इस बीच गौरव और औरव भोई दोनों 10वीं कक्षा की परीक्षा में फेल हो गए। पढ़ाई में रुचि न होने के कारण वे भी अब स्थिर रोजगार की तलाश में थे।

2021 में चित्रसेन, गौरव, औरव और उनकी बहन भाग्यवती, जिसने कक्षा 5 के बाद स्कूल छोड़ दिया था, चारों ने नुनहाड़ गांव के प्रमुख सरदार ‘स’ के माध्यम से अन्य राज्यों में ईंट भट्टों पर काम पर जाने के लिए अपना पहला कदम बढ़ाया।

“मेरे पिता सरदार को अच्छी तरह से जानते हैं। वे दोस्त हैं,” गौरव भोई ने कहा, “इसलिए उन्होंने हमारे लिए हैदराबाद में एक भट्टे पर काम करने की व्यवस्था की है।”

भट्ठा मालिक एक सख्त और बेरुखा व्यक्ति था, और भोइ लोग पहली बार ईंट ढालने का काम कर रहे थे। फिर भी चारों भाई-बहनों ने उस सीज़न में 2,50,000 रुपये कमाए। इस पैसे का इस्तेमाल रोस्मिता की नुनहाड़ के एक लड़के से शादी करने में किया गया। उनके खेत में बोरवेल लगाने के लिए भी कुछ पैसे बचे।

एकमुश्त अग्रिम भुगतान का आकर्षण

गांव वालों ने बताया कि 1980 के दशक के अंत में केबीके क्षेत्र से पलायन करने वालों को प्रति श्रमिक लगभग 500 रुपये की एकमुश्त अग्रिम राशि दी जाती थी। 2020 के दशक में यह राशि 30,000 से 40,000 रुपये के आसपास रही।

इसका मतलब यह हुआ कि चार श्रमिकों वाला एक परिवार ईंट भट्टों पर एक सीज़न काम करके 120,000 से 160,000 रुपये कमा सकता है और उन्हें यह पैसा बिना कुछ ब्याज लगाए एकमुश्त अग्रिम राशि के रूप में मिलेगा। इस आकर्षक प्रस्ताव के जरिये वे कई साहूकारों का ऋण चुका सकते हैं, ऋण से मुक्त हो सकते हैं और शेष राशि का उपयोग घरेलू खर्चों को पूरा करने के लिए कर सकते हैं।

हालांकि भोई परिवार 2021 में पलायन करके ईंट ढालने का काम करने के लिए मजबूर हो गया था, फिर भी वे उन श्रमिकों के एक छोटे से हिस्से में से हैं, जिन्होंने कोई अग्रिम राशि नहीं ली। यह संभावना है कि भोई परिवार की गांवतिया और सरदार से निकटता ने इस तरह के सौदे को हासिल करने में मदद की हो।

चित्रसेन और गौरव भोई ने आर्टिकल 14 को बताया, “एक बार जब आप एकमुश्त अग्रिम राशि ले लेते हैं तो आप तब तक काम करने के लिए बाध्य होते हैं जब तक कि आप तय काम पूरा नहीं कर लेते। परिवार में किसी के बीमार होने या किसी की मृत्यु होने पर भी काम नहीं छोड़ सकते।”

एकमुश्त अग्रिम राशि लेने वालों के लिए मजदूरी दरें भी काफी कम हैं- 600 रुपये प्रति 1,000 ईंटें। बिना अग्रिम राशि लिए काम करने वालों को 800 रुपये तक का भुगतान किया जाता है।

हालांकि, 2022 में मानसून के बाद की अवधि में परिवार के सामने आने वाली विकट परिस्थितियां बनी रहीं। उनके 12 एकड़ धान के खेत में 3,750 किलोग्राम चावल पैदा हुआ, जिसे उन्होंने घर पर उपयोग के लिए सावधानी पूर्वक जमा कर लिया। सामान्य परिस्थितियों में उनका परिवार 37 क्विंटल चावल को 24 महीनों तक खा सकता है, लेकिन उनकी बाकी कृषि आय मुश्किल से अन्य आवश्यक चीजों को पूरा कर पाती और शिक्षा, स्वास्थ्य, घर की मरम्मत, कृषि निवेश सामग्री, पारिवारिक कार्यक्रमों, त्योहारों और आपातकालीन स्थिति के लिए कुछ नहीं बचता।

उनकी चार एकड़ कपास की पैदावार केवल 15 क्विंटल थी। उन्होंने व्यापारी को तीन क्विंटल 10,000 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बेच दिया, क्योंकि वह उन पर 40,000 रुपये की कृषि निवेश सामग्री लागत चुकाने का दबाव बना रहा था। बाकी फसल के लिए वे बेहतर कीमत का इंतजार कर रहे थे।

इस बीच चित्रसेन भोई की शादी के लिए एक लड़की मिल गई और वह शादी से पहले घर में नए कमरे बनाने और बोरवेल खोदने का काम शुरू करने को उत्सुक था।

सारंगा और सरस्वती भोई की पांचवीं संतान भुवन ने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी कर ली थी और अपनी आगे की पढ़ाई के लिए निकटतम सरकारी कॉलेज में जाना चाहता था, जो उसके गांव से 20 किलोमीटर दूर था। इसके लिए उसे मोटरसाइकिल चाहिए थी।

“हम काफी उत्सुक हैं कि वह कॉलेज खत्म करे और नौकरी करे,” चित्रसेन भोई ने उन परिस्थितियों के बारे में बताते हुए कहा, जिनके कारण परिवार को 2022 में एक बार फिर से ईंट ढालने वालों के रूप में पलायन करने का निर्णय लेना पड़ा।

गौरव भोई ने निर्णय स्वीकार कर लिया, क्योंकि उनके पास इतना पैसा दे सकने वाली कोई अन्य नौकरी नहीं थी।

“मान लीजिए कि हम चारों ने ओडिशा में जलाईवालों के रूप में काम किया, जहां वेतन 12,000 रुपये है और सीजन पांच महीने का है, तो हम केवल 2,40,000 रुपये कमा सकते हैं,” उसने कहा।

अन्य राज्यों में ईंट ढालने वालों के रूप में वे एक सीज़न में कम से कम 4,00,000 ईंटें बना सकते हैं। इससे प्रति 1,000 ईंटों पर 800 रुपये की दर से 3,20,000 रुपये की आय हुई।

अनुमानित आय छह महीने के लिए चार श्रमिकों के न्यूनतम वेतन से काफी कम थी। काम के लिए उन्हें सीज़न के दौरान रोजगार और आवाजाही की स्वतंत्रता को भी त्यागना पड़ता, जिसे बीएलएसएए, 1976 के तहत बंधुआ मजदूर के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

भोइयों के लिए यह सब बातें एक सेकंड की सोच के लायक भी नहीं थीं।

ढीले तौर पर लागू कानून

बीएलएसएए ने बंधुआ मजदूरी को ऐसे उदाहरणों के रूप में परिभाषित किया है, जहां ग्रामीणों ने अग्रिम राशि के भुगतान, सामाजिक दायित्व या आर्थिक मदद के बदले एक तय अवधि के लिए सेवाएं देने के लिए सरदार या अन्य मध्यस्थ के साथ समझौता किया हो, जिसके दौरान उनकी आवाजाही और रोजगार की स्वतंत्रता, बाजार मूल्य पर अपना श्रम या संपत्ति बेचने के उनके अधिकारों को सीमित कर दिया गया हो।

जिस कानून ने कागज पर बंधुआ मजदूरी को समाप्त कर दिया, उसने जिला मजिस्ट्रेट को कार्यान्वयन प्राधिकारी बना दिया और साथ ही जिला और उप-विभागीय स्तरों पर जिला प्रशासन की सहायता के लिए सतर्कता समितियों के गठन को अनिवार्य कर दिया।

अन्य चीजों सहित, सतर्कता समितियों को मुक्त बंधुआ मजदूरों के आर्थिक और सामाजिक पुनर्वास के लिए प्रावधान करना, बैंकों से ऋण तक पहुंच सुनिश्चित करना और बंधुआ मजदूरों की पहचान करने के लिए सर्वेक्षण करना आवश्यक है। बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास के लिए केंद्रीय क्षेत्र योजना, 2016 ने चलती बंधुआ मजदूरी की पहचान करने के लिए सर्वेक्षण के लिए 4,50,000 रुपये प्रति जिले की धनराशि भी उपलब्ध कराई थी।

हालांकि, देश के अधिकांश अन्य हिस्सों की तरह (देखिए यहां, यहां और यहां) केबीके क्षेत्र में कानून बहुत ही ढीले तौर पर लागू किए गए हैं। 

जिला प्रशासन और पुलिस के अधिकांश अधिकारी, जिनसे आर्टिकल 14 ने बात की, वे इस बात से अनजान थे कि एकमुश्त अग्रिम भुगतान कानून का उल्लंघन है।

गुमनाम रहने का अनुरोध करते हुए नुआपाड़ा और बोलांगीर जिला प्रशासन के सूत्रों ने बताया कि केवल कुछेक जिलों में ही कार्यात्मक सतर्कता समितियों का गठन किया गया है। फिर समस्याओं के समाधान के लिए ये समितियां बहुत ही कम मिलती हैं।

उन्होंने यह भी दावा किया कि हाल के वर्षों में इस क्षेत्र में बंधुआ मजदूरी का कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया है। आर्टिकल 14 ने बीएलएसएए के कार्यान्वयन के संबंध में ओडिशा सरकार के मुख्य सचिव से ई-मेल और कॉल के ज़रिये संपर्क करने का प्रयास किया, मगर कोई जवाब नहीं मिला।

मनरेगा के तहत मजदूरी बढ़ाने के कदम का हश्र भी कुछ ऐसा ही रहा है।

2022 में राज्य सरकार ने पश्चिमी ओडिशा के 20 पलायन-बहुल ब्लॉकों में कानून के तहत पात्रता को कानून द्वारा प्रदान की गई 100 दिनों की रोजगार गारंटी के बजाय वर्ष में 300 दिन तक बढ़ा दिया। इसका उद्देश्य ईंट भट्टों की ओर संकटग्रस्त पलायन को रोकना था। मगर इस बढ़ोतरी के लागू होने में भारी देरी हुई।

6 दिसंबर 2022 को जब आर्टिकल 14 ने बोलांगीर जिले के 20 ब्लॉकों में से एक खापराखोल ब्लॉक में महारापदर पंचायत कार्यालय का दौरा किया तो योजना के तहत नहरों, टैंक और तालाबों की खुदाई और सफाई जैसे विभिन्न कार्यों के लिए धन की उपलब्धता और उसके आवंटन के लिए आयोजित बैठक चल रही थी।

बोलांगीर जिले के महरापदर पंचायत की सरपंच सुमति प्रधान।

महरापदर पंचायत की सरपंच सुमति प्रधान ने कहा, “ज़्यादा से ज़्यादा परिवार गांव छोड़ रहे हैं। इसलिए हमें उन्हें काम देने की जरूरत है।”

यह पूछे जाने पर कि योजना पहले से क्यों नहीं बनाई गई, उन्होंने कहा कि उस साल का बजट अभी तक फाइनल नहीं किया गया है।

हालांकि मनरेगा का भुगतान सीधे लाभार्थियों के खातों में किया जाता है, कार्यकर्ताओं और सरकारी अधिकारियों ने आर्टिकल 14 को बताया कि विस्तारित योजना अनियमित्ताओं और भ्रष्टाचार से ग्रस्त है।

गुमनाम रहने का अनुरोध करते हुए बोलांगीर जिले के एक पंचायत के सदस्य ने कहा, “पूरे क्षेत्र में लगभग 60 से 70% धनराशि सरपंचों और ग्राम रोजगार सेवकों द्वारा, श्रमिकों की संख्या या काम के दिनों को बढ़ा-चढ़ाकर बताकर, हड़प ली जाती है।”

उस पंचायत सदस्य ने आगे कहा, “वे गैर-लाभार्थियों और सहयोगियों को भुगतान भेजने के लिए ऑनलाइन डेटाबेस में बदलाव करके ऐसा करते हैं।”

इस तरह 2022 में एक बार फिर लाखों मजदूर दूसरे राज्यों में ईंट भट्टों पर काम करने के लिए मजबूर हुए।

हाशियाकरण का इतिहास

ओडिशा के केबीके क्षेत्र में कालाहांडी, बोलांगीर, कोरापुट, बरगढ़, नुआपाड़ा, नबरंगपुर, रायगड़ा और मल्कानगिरी सहित आठ जिले हैं जिन में सुरम्य पहाड़ियों और जैव-विविधता से समृद्ध घाटियों से घिरे उपजाऊ मैदान शामिल हैं। अधिकांश निवासी गोंड, कंध और भुंजिया सहित 50 से अधिक आदिवासी समुदायों से संबंध रखते हैं।

इस क्षेत्र में दलित दूसरा सबसे बड़ा जनसंख्या समूह है। कुछ ब्लॉकों में तो आदिवासी और दलित मिलकर आबादी का लगभग 70% हिस्सा बन जाते हैं। इसके बाद ओबीसी सबसे बड़ा वर्ग है जो प्रवासन के इस दंश को सालों से झेल रहा है।

अधिकांश दलित और आदिवासी छोटे-मोटे किसान, भूमिहीन खेतिहर या दिहाड़ी मजदूर हैं। वे गांवों और जंगलों में बस्तियों में रहते हैं, जहां ज्यादातर सभी मौसम के लिए उपयुक्त सड़कें, हाईस्कूल या अस्पताल नहीं हैं। बिंझल और पहरिया (ओडिशा में अन्य पिछले वर्ग के रूप में वर्गीकृत) जैसे कुछ आदिवासी समुदाय घने जंगलों वाली पहाड़ी चोटियों और घाटियों में रहते हैं, जो काफी हद तक बाहरी दुनिया से अलग हैं। ये लोग स्थानांतरित खेती और वन उपज पर निर्भर हैं।

राजाओं और सरदारों द्वारा यहां बसाए गए ब्राह्मण, मुस्लिम, मोहंती (तटीय ओडिशा की लेखक जाति), माली (नागपुर की जाति) और अन्य चाकरी जातियां इस क्षेत्र के सामाजिक अभिजात वर्ग में शामिल हैं। इनमें से कई को औपनिवेशिक काल में गांवतिया (किराया वसूलने वाले) के रूप में नियुक्त किया गया था। कुछ जगहों पर गोंड और कंध आदिवासी गांवतिया बन गए और प्रमुख समूह के रूप में उभरे।

19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान, इस क्षेत्र ने मारवाड़ी, सिंधी, गुजराती, पंजाबी और अन्य व्यापारिक समुदायों को भी आकर्षित किया। वे पटनागढ़, खरियार, संबलपुर और कांटाबांजी जैसे शहरी इलाकों में बस गए और क्षेत्र की नई मुद्रीकृत अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण कर लिया। ये समूह अब इस क्षेत्र के अधिकांश प्रमुख व्यवसायों जैसे रियल एस्टेट और निर्माण, होटल, अस्पताल और मॉल के मालिक हैं।

गंधमर्दन पहाड़ियों के आसपास का क्षेत्र।

इसके बावजूद, इस क्षेत्र में कोई बड़ा उद्योग या व्यावसायिक प्रतिष्ठान नहीं है। 1980 के दशक में गंधमर्दन पहाड़ियों में बॉक्साइट खदान शुरू करने के भारत एल्युमीनियम कंपनी के कदम को स्थानीय लोगों के निरंतर प्रतिरोध के कारण रोक दिया गया था। स्थानीय लोग इन पहाड़ियों को एक पवित्र स्थल मानते हैं।

प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की क्षेत्र के कुछ इलाकों में मजबूत उपस्थिति है। खासकर नबरंगपुर, नुआपाड़ा और बोलांगीर में, जो छत्तीसगढ़ और तेलंगाना की सीमा से लगे हुए हैं।

केबीके क्षेत्र में राज्य के समुद्र तट की तुलना में कम वर्षा होती है, क्योंकि यह पूर्वी घाट के निचले किनारे पर स्थित है। क्षेत्र में जो भी वर्षा होती है, वह अनियमित और असमान रूप से होती है और यहां की मिट्टी की जल धारण क्षमता भी कम है। ये कारक इस क्षेत्र को सूखा-ग्रस्त बनाते हैं। स्थानीय लोगों ने बताया कि क्षेत्र में हर दो-तीन साल में एक छोटा सूखा और हर 10 साल में एक बड़ा सूखा पड़ता है।

हालांकि सूखा अक्सर मौत और विनाश के निशान छोड़ जाता है, यह क्षेत्र 1980 के दशक में उस वक्त राष्ट्रीय सुर्खियों में आया था, जब ग्रामीणों द्वारा अपने बच्चों को कौड़ियों के भाव बेचने के लिए कई दिनों तक पैदल चलकर शहर जाने की खबरें सामने आई थीं।

ओडिशा का कांटाबांजी टाउन, जो तस्करी और प्रवासी श्रमिकों का केंद्र है।

1980 के दशक से श्रम बाजार के केंद्र रहे कांटाबांजी में स्थित एक ब्राह्मण वकील बिष्णु शर्मा ने बताया की सूखे ने ब्राह्मणों और अन्य प्रमुख जातियों को बड़े पैमाने पर प्रभावित नहीं किया था।

कांटाबांजी से 10 किमी दूर स्थित एक गांव में पले-बढ़े बिष्णु शर्मा ने बताया, “भले ही सूखे के दौरान हमारी सारी फसलें नष्ट हो गईं हो, फिर भी हमारे पास कई गायें और भैंसें थीं। इस प्रकार, दूध, दही और पनीर जैसे डेयरी उत्पाद घर पर आसानी से उपलब्ध थे।” उन्होंने आगे कहा, “दलितों के पास खुद को बचाने के लिए ऐसे कोई संसाधन नहीं थे।”

वर्तमान में रायपुर में रहने वाले नुआपाड़ा जिले के खरियार कस्बे के एक ब्राह्मण पत्रकार और संचार पेशेवर पुरूषोत्तम ठाकुर ने भी वकील शर्मा की राय को ही दोहराया।

उन्होंने कहा कि सूखे के वर्षों के दौरान, यादव और अन्य चाकरी जातियां ब्राह्मणों और अन्य उच्च जाति के जमींदारों के परिवारों के साथ रोजगार खोजने में कामयाब रहीं। गोंड आदिवासियों सहित सब के द्वारा अछूत समझे जाने वाले दलितों को इन घरों के अंदर जाने की अनुमति नहीं थी। इसलिए उन्हें गांवों में कोई काम नहीं मिलता था।

ठाकुर और शर्मा दोनों ने कहा कि आदिवासी शुरुआती संकटग्रस्त प्रवासियों में प्रमुखता से शामिल नहीं थे, क्योंकि वे जंगली इलाकों में रहते थे और उनकी छोटी-मोटी वन उपज तक पहुंच थी। इससे उनका साल भर गुजारा हो जाता था। कई जनजातीय समूहों में बाहरी पलायन निषेध भी था।

खरियार स्थित वरिष्ठ पत्रकार अजीत पांडा ने कहा, “1970 के दशक में जब इंदिरा गांधी सरकार ने सूखा राहत के लिए लकड़ी के बदले भोजन कार्यक्रम शुरू किया तो वन क्षेत्र तेजी से घटने लगा। इसने आदिवासियों को संकटग्रस्त प्रवासियों की कतार में शामिल होने के लिए मजबूर किया।”

इतिहासकार और रूट्स ऑफ पावर्टी: अ सोशल हिस्ट्री के लेखक फनिन्दम।

अजीत पांडा के ही शहर में रहने वाले सेवानिवृत्त इतिहास के प्रोफेसर फनिन्दम देव ने कहा कि साक्षरता और जागरूकता की कमी के कारण दलित और आदिवासी निश्चित रूप से असुरक्षित थे, लेकिन वास्तव में वे सदियों से चले आ रहे संरचनात्मक अभाव के शिकार थे।

रूट्स ऑफ पावर्टी: अ सोशल हिस्ट्री (गरीबी की जड़ें: एक सामाजिक इतिहास) में देव ने बताया कि इस क्षेत्र पर शासन करने वाले अधिकांश राजा और सामंत “ब्राह्मणवाद के चैंपियन” थे। उन्होंने मंदिरों और ब्राह्मणों को बड़े पैमाने पर भूमि अनुदान दिया और साल या सागौन की लकड़ी काटने के लिए घने जंगलों को ठेकेदारों को पट्टे पर दिया।

इन सब चीजों से स्थानीय किसानों और आदिवासियों को ज़मीन और जंगलों से अलग कर दिया। औपनिवेशिक सरकार ने तब भूमि कर लागू किया, जो पहले इस क्षेत्र में काफी हद तक अनुपस्थित था। वहीं व्यापारियों और ठेकेदारों ने राजाओं और नौकरशाहों के सहयोग से लकड़ी और लघु वन उपज के व्यापार पर नियंत्रण कर लिया और इलाके के वन क्षेत्रों में प्रवेश किया।

इस प्रकार, क्षेत्र के गरीब किसानों और आदिवासियों ने पाया कि “उनकी जमीनें छिन गईं, उनके पारंपरिक रीति-रिवाज खतरे में पड़ गए और सरकार-राजा-गांवतिया/ठेकेदार गठजोड़ द्वारा वे हाशिये पर कर दिए गए,” देव ने यह समझते हुए लिखा कि इन समूहों ने 1880 के दशक में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह क्यों किया, जिसे लोकप्रिय तौर से ‘कंध मेली’ के नाम से जाना जाता है।

औपनिवेशिक सरकार द्वारा विद्रोह को बेरहमी से कुचल दिया गया और उसके नेताओं को सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया गया।

अंततः ईंट भट्ठा मजदूरों के लिए सरकार-राजा-गांवतिया/ठेकेदार गठजोड़ सरकार-सेठ-सरदार गठजोड़ में बदल गया। सेठ मुख्यतः रेड्डी और चौधरी थे- आंध्र में भूमि-मालिक जातियां, जो पूर्व में छोटे राजा थे या छोटे राजघरानों से संबंधित थे और ऐतिहासिक रूप से बंधुआ मजदूरी का इस्तेमाल करते आए थे, जिन्हें स्थानीय रूप से वेट्टी, चक्री और जीतम आदि के नाम से जाना जाता था, जो ऋण दासता के विभिन्न नाम हैं।

गुलामी के एक और चक्र की तैयारी

8 दिसंबर 2022 को जब भोइयों को सरदार ‘स’ से संदेश मिला कि उन्हें 12 दिसंबर को गांव छोड़ना होगा तो उन्होंने भुवन के लिए एक बजाज पल्सर मोटरसाइकिल खरीद ली।

नुनहाद के एक डीलर से बाइक खरीदने वाले चित्रसेन और गौरव भोई ने उसे 50,000 रुपये नकद भुगतान किया, जो कि उनकी कपास बिक्री की आय से आये थे। इसके अलावा, बाकी का भुगतान 24 महीने के लिए 2,000 रुपये प्रति माह की किस्तों में करने पर सहमति हुई।

12 दिसंबर को तय दिन चित्रसेन, गौरव, औरव और भाग्यवती भोई शाम 7 बजे के आसपास सरदार के घर पहुंचे। प्रत्येक के पास अपने कपड़े, निजी सामान, मुरमुरे जैसे खाद्य पदार्थ और कुछ छोटे बर्तनों से भरे एक या दो बैग थे।

वे अपने कार्यस्थल और यात्रा कार्यक्रम के संबंध में निर्देशों के लिए कई अन्य परिवारों के साथ वहां इंतजार कर रहे थे।

आखिरकार, शाम 7.30 बजे के आसपास उन्हें कांटाबाजी स्टेशन से देर रात की ट्रेन पकड़ने और हैदराबाद जाने के लिए कहा गया, जहां उन्हें रजनी सेठ की फैक्ट्री में काम करना था।

उनके लिए आगे की यात्रा जोखिमों से भरी थी। इसलिए उन्होंने बिना किसी परेशानी के मंजिल तक अपना रास्ता तय करने के तत्काल काम पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया।

गौरव भोई ने कहा, “पड़ोसी गांव बेलपाड़ा के कुछ परिवारों ने पिछले साल रजनी सेठ के भट्टे पर काम किया था। उन्होंने हमें बताया कि उन्हें बांध कर पीटा गया था; यहां तक कि महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया था।”

चर्चा इस बात पर हुई कि क्या वे उस विशेष भट्टे पर काम करने से बच सकते हैं, और क्या कोई अन्य मालिक बेहतर हो सकता है। आशंकित लेकिन अपने फैसलों से बंधे हुए भाई-बहन आधुनिक गुलामों के रूप में एक और सीज़न के लिए निकल पड़े।

(अरित्र भट्टाचार्य कोलकाता स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। सौरभ कुमार मुंबई स्थित एक शोधकर्ता, मल्टीमीडिया पत्रकार और वृत्तचित्र फिल्म निर्माता हैं। इस रिपोर्टिंग के लिए लेखक ओडिशा के बोलांगीर जिले के तस्करी विरोधी कार्यकर्ता सुशांत पाणिग्रही को उनकी मदद के लिए धन्यवाद देते हैं।)

* भोईयों को संभावित प्रतिशोध से बचाने के लिए नाम छुपाया गया है।

यह चार भाग वाली श्रृंखला का पहला भाग है। आप दूसरा, तीसरा और चौथा भाग यहां, यहां और यहां पढ़ सकते हैं।

(अंग्रेजी में मूल रिपोर्ट यहां पढ़ें, अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: अनुवाद संवाद)

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