लव जिहाद अध्यादेश पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने योगी सरकार से किया जवाब तलब

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उत्तर प्रदेश सरकार के लव जिहाद से धर्म परिवर्तन को लेकर जारी अध्यादेश पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यूपी सरकार से जवाब तलब किया है। जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट की चीफ जस्टिस की बेंच ने उक्त आदेश दिया। यूपी सरकार को हाई कोर्ट के सामने चार जनवरी तक अपना विस्तृत जवाब पेश करना होगा। कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को अगले दो दिनों में अपना हलफनामा दाखिल करने के लिए कहा है और सुनवाई की अपनी तारीख 7 जनवरी तय की है।

लोकमोर्चा संयोजक अजीत सिंह यादव और एक अन्य की याचिका पर हाई कोर्ट ने संज्ञान लिया है। अजीत सिंह की ओर से अधिवक्ता रमेश कुमार ने बहस की। अजीत ने कहा कि लव जिहाद जैसी परिघटना में कोई सच्चाई नहीं है। लव जिहाद शब्द आरएसएस-भाजपा की सांप्रदायिक प्रयोगशाला में जन्मा झूठ है। लव जिहाद हकीकत नहीं बल्कि संघ-भाजपा का सांप्रदायिक गेम है। उन्होंने बताया कि योगी सरकार के उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा योगी सरकार से  जवाब तलब किए जाने को नैतिक जीत बताते हुए उन्होंने कहा कि कानून और संविधान की कसौटी पर योगी सरकार का लव जिहाद अध्यादेश टिक नहीं पाएगा और पूरी उम्मीद है कि अगली सुनवाई में माननीय हाई कोर्ट इसे रद्द कर देगा।

उन्होंने कहा कि भाजपा की ही केंद्र की मोदी सरकार संसद में कह चुकी है कि ‘लव जिहाद’ जैसी कोई घटना सामने नहीं आई है। मोदी सरकार ने इस साल फ़रवरी में संसद में कहा था कि केरल में इस तरह का कोई भी मामला केंद्रीय एजेंसियों की जानकारी में नहीं आया है। योगी सरकार की ही कानपुर पुलिस ने लव जिहाद मामले में एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें इसे लेकर किसी तरह की साज़िश या विदेशी फंडिंग के सबूत नहीं मिले हैं।

कानपुर शहर में कुछ दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों ने आरोप लगाया था कि मुस्लिम युवा धर्म परिवर्तन के लिए हिंदू लड़कियों से शादी से कर रहे हैं। इसके लिए उन्हें विदेश से फंड मिल रहा है और लड़कियों से उन्होंने अपनी पहचान छिपा रखी है। इसकी जांच के लिए कानपुर रेंज के आईजी ने एसआईटी का गठन किया था। और इस एसआईटी जांच में भी लव जिहाद जैसी किसी परिघटना का कोई प्रमाण नहीं मिला। लोकमोर्चा संयोजक ने बताया कि जनहित याचिका में कहा गया है कि योगी सरकार का अध्यादेश राज्य को निगरानी की बेलगाम शक्ति देता है और जीवनसाथी चुनने के वयस्कों के पंसद के अधिकार में हस्तक्षेप करता है।

याचिका में कहा गया है कि राज्यपाल के पास संविधान के अनुच्छेद 213 के तहत अपनी कानून बनाने की शक्ति का इस्तेमाल करने के लिए कोई आकस्‍मिक आधार नहीं था। उन्होंने कहा, “अध्यादेश बनाने की शक्ति राज्यपाल की सबसे महत्वपूर्ण विधायी शक्ति है, जिसे अप्रत्याशित या तत्कालिक परिस्थितियों के निस्तारण के लिए प्रदान किया गया है, लेकिन राज्य आकस्‍मिकता और तत्कालिका समझाने और दिखाने में विफल रहा है। ऑर्डिनेंस को लोक कानून और व्यवस्था के उल्लंघन के बहाने परित किया गया है, लेकिन राज्य द्वारा इस संबंध में कोई डेटा/सर्वेक्षण या अध्ययन नहीं किया गया है, जिससे तत्कालिक स्थिति की आकस्‍मिकता दिखती हो।”

आरसी कूपर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, (1970) एससीआर (3) 530 पर भरोस रखा गया है, जहां यह माना गया था कि राष्ट्रपति के अध्यादेश पारित करने के फैसले को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि ‘तत्का‌लिक कार्रवाई’ की आवश्यकता नहीं है।

याचिका में बताया गया कि एक वर्ष में, भारत में लगभग 36,000 अंतर-धार्मिक विवाह हुए हैं और उत्तर प्रदेश में लगभग 6,000 ऐसे विवाह हुए हैं। हालांकि, राज्य यह उल्लेख करने में विफल रहा है कि इस तरह के कितने मामलों ने कानून-व्यवस्था की स्थिति के लिए खतरा पैदा किया है। इस पृष्ठभूमि में यह आरोप लगाया गया है कि अनुच्छेद 213 के तहत शक्ति का प्रयोग करना उत्तर प्रदेश सरकार के ल‌िए सामान्य परिघटना बन गई है। याचिका में कहा गया है, “वर्ष 2019-20 में राज्य सरकार ने 14 अध्यादेशों की उद्घोषण की और फिर से लागू किया गया है। यह अध्यादेश जारी करने की कार्यपालिका की शक्ति के कारण, शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्‍लंघन है, जो शक्ति के पृथक्करण के स‌िद्धांतों के खिलाफ जाता है, क्योंकि कानून बनाना विधानमंडल का क्षेत्र है।”

याच‌िका में एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि अध्यादेश को ‘अवैध रूप से’ घोषित किया गया है, क्योंकि यह सलामत अंसारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य में, उच्च न्यायालय के आधिकारिक घोषणा के खिलाफ है, जिसमें उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने एकल पीठ के फैसले को खारिज कर दिया था, जिसने शादी के लिए धार्मिक रूपांतरण को अस्वीकार कर दिया था। यह प्रस्तुत किया गया है कि उत्तर प्रदेश सरकार के लिए कार्रवाई का सही तरीका उक्त निर्णय के खिलाफ अपील दायर करना होता, लेकिन राज्य ने संविधान के अनुच्छेद 348 (1) के तहत अपनी शक्तियों का ‘दुरुपयोग’ किया।

यह माना जा रहा है कि अध्यादेश की धारा 3, 5 और 6 के तहत जीवन सा‌थी या धर्म पर नागरिक की पसंद के अधिकार पर राज्य को बेलगाम ‘निगरानी की शक्ति’ दी गई है, और यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी, व्यक्तिगत स्वायत्तता, निजता, मानव के मौलिक अधिकारों का हनन करता है।’

याचिका में यह आरोप लगाया गया है कि अध्यादेश की घोषणा के बाद, राज्य पुलिस ने विभिन्न जोड़ों के खिलाफ अपनी मर्जी से शादी करने के साथ-साथ उनके परिवार के सदस्यों की सहमति से मामले दर्ज किए हैं। ‘पुलिस ने अनावश्यक रूप से विवाह समारोह में हस्तक्षेप किया है और विवाह करने वालों के पसंद के अध‌िकार का उल्लंघन किया और उनके परिवार के सदस्यों को परेशान करने और बदनाम किया है।’

यह आरोप लगाया गया है कि अध्यादेश का एक छिपा उद्देश्य महिलाओं की यौन‌िकता को नियंत्रित करना है और मानव शरीर को अधीन मानना ​​है और यह लैंगिक रूप से पक्षपाती भी है, जो महिलाओं की अपने जीवन साथी का चयन करने की स्वतंत्र इच्छा को खत्म करता है। यह कहा गया है, ‘अध्यादेश की धारा 6 का एक सामान्य पाठ यह मानता है कि केवल एक पुरुष केवल एक महिला को धर्मांतरित करेगा और महिलाओं को वस्तु मानता है और समान पायदान पर खड़ी महिलाओं के व्यक्तिगत अभ‌िकरण को मान्यता नहीं देता है।’ अन्य आधार-अध्यादेश भेदभावपूर्ण है, क्योंकि यह धार्मिक समूहों के दो संप्रदायों के बीच ‘शत्रुतापूर्ण भेदभाव’ पैदा करता है और इस तरह से संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।

* अध्यादेश के उल्लंघन के लिए निर्धारित कठोर दंड दंडशास्त्र के न्यायशास्त्र के विरुद्ध है।
* अध्यादेश के तहत अभियुक्त पर सबूत का उल्टा बोझ आपराधिक न्यायिक प्रणाली के सिद्धांत के साथ-साथ भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के खिलाफ है।
* संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार सभी व्यक्तियों को अंतरात्मा की स्वतंत्रता का पूर्ण अधिकार देता है और किसी भी धर्म को स्वतंत्र रूप से अभ्यास करने और प्रचार करने का अधिकार है, लेकिन अध्यादेश द्वारा इस अधिकार का उल्लंघन किया जाता है।
* अध्यादेश में संसद द्वारा अधिनियमित कानून के प्रावधानों को कम करने की विशेषताएं हैं जैसे कि सीआरपीसी, आईपीसी, विशेष विवाह अधिनियम 1954, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, शरीयत आवेदन अधिनियम 1937, भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम 1872, आदि।
* विवाहों की वैधता की मान्यता का व्यक्ति के धर्मांतरण से कोई संबंध नहीं हो सकता है, और चूंकि अध्यादेश ऐसा करता है, इसलिए यह व्यक्ति के अधीनता और उसकी पसंद की अधीनता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
* अध्यादेश सहमति और विवाह के मुद्दे पर निर्णय लेने से संबंधित फैमिली कोर्ट से न्यायिक विवेक को छीन लेता है और यह आदेश देता है कि ऐसी कोई भी शादी शून्य होगी।
* अध्यादेश अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत भारत के दायित्व का उल्लंघन करता है, जिसे अब सभी भारतीय संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों में पढ़ा गया है। इस तरह के उपकरणों में UDHR, ICCPR, CEDAW आदि शामिल हैं।
* राज्य किसी भी प्रकार के विवाहों या पार्टनरश‌िप को मान्यता देने में कोई भेदभाव नहीं कर सकता है, और विवाह को शून्य मानना राज्य सरकार की विधायी क्षमता से बाहर है। यह ध्यान दिया जा सकता है कि उत्तराखंड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2018 के साथ इस अध्यादेश को अधिवक्ता विशाल ठाकरे, अभय सिंह यादव और प्रणवेश ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी है। जनहित याचिका में कहा गया है कि ‘लव जिहाद’ के नाम पर बनाए गए इन कानूनों को शून्य घोषित किया जाना चाहिए, क्योंकि ‘वे संविधान के बुनियादी ढांचे को बिगाड़ते हैं’।

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