Friday, April 19, 2024

एक ख़ुशनुमा भारत की तस्वीर है बासित और शोएब की कहानी

कुछ कहानियां जरूर बताई जानी चाहिए। NEET (नीट) यानी नेशनल एलिजिबिल्टी एंट्रेंस टेस्ट में दो मुस्लिम बच्चों, शोएब आफ़ताब और बासित बिलाल खान दो अलग अलग स्थितियों का सामना करते हुए टॉप स्कोरर बने। शोएब आफ़ताब को 720 में से पूरे 720 मार्क्स मिले। तो बासित बिलाल को 720 में से 695 मार्क्स मिले।

नीट के नतीजे में शोएब के मुक़ाबले बासित बिलाल पीछे हैं, लेकिन बासित ने जो कर दिखाया है वो ज्यादा बकमाल है। बासित जम्मू-कश्मीर के उस पुलवामा जिले से हैं जो इस समय सबसे ज्यादा आतंकी और उसके बाद वहां होने वाली सुरक्षा बलों की कार्रवाई वाला सबसे प्रभावित क्षेत्र है। बासित ने फैसला लिया कि वो पुलवामा छोड़ कर कहीं और जाकर स्टडी करेगा। बासित ने श्रीनगर चुना। परिवार ने मदद की और एक दिन उसने उदास मन से पुलवामा छोड़ दिया। बासित ने कहा, “मैंने खुद को बेइज़्ज़त महसूस किया, लेकिन इसके अलावा मेरे पास और कोई रास्ता भी नहीं था।”

बासित ने पुलवामा तो छोड़ दिया, लेकिन पुलवामा के मुक़ाबले कश्मीर के किसी भी हिस्से में अमन-चैन कहां। न पुलवामा में इंटरनेट था और न श्रीनगर में। जिस राज्य में इंटरनेट बैन की सालाना बरसी मनाई जाती हो, दरअसल उस राज्य से नीट परीक्षा में सम्माजनक स्कोर हासिल करना टॉपर शोएब आफ़ताब की टॉप रैंक से बढ़कर है। क्या यह बताने की ज़रूरत है कि तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं में इंटरनेट की कितनी ज़रूरत पड़ती है, लेकिन कश्मीर के बासित जैसे होनहार बच्चे इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी चिनार के दरख्त को सींच रहे हैं।

बासित बिलाल खान ने अपनी और पुलवामा की बेइज़्ज़ती करने वालों के मंसूबों को चूर-चूर करने के लिए अपनी स्टडी को हथियार बना डाला। बासित बिलाल देश के न सही जम्मू कश्मीर के नीट टॉपर हैं। बासित ने कहा कि पुलवामा की बेइज़्ज़ती ने मुझे अंदर से हिला दिया था। मैंने सोचा कि पुलवामा को सिर्फ बुरे कामों के लिए क्यों जाना जाए। क्यों न इसलिए भी जाना जाए कि यहां के बच्चों के सपने बड़े हैं। वे भी दिल्ली और पटना के बच्चों जैसे ही ज़िन्दगी में आगे बढ़ने के सपने देखते हैं।

देश के टॉपर शोएब आफ़ताब की कहानी में बासित बिलाल जैसा रोमांच नहीं है। फिर भी अगर आप पढ़ना चाहते हैं तो मैं बताता हूं। शोएब उड़ीसा के राउरकेला शहर से हैं जो एक औद्योगिक इलाक़ा है। शोएब के पिता और भाई नौकरी करते हैं। परिवार निम्न मध्यवर्गीय है। शोएब ने परिवार का जीवन स्तर ऊपर उठाने के लिए अपनी पढ़ाई को हथियार बनाया। दसवीं क्लास में जब उसके 96.8 फीसदी मार्क्स आए तो उसने डॉक्टर बनने के अपने सपने के बारे में बताया।

शोएब का परिवार इस सपने को पूरा करने में जुट गया। शोएब उस कोटा (राजस्थान) के लिए निकल पड़े, जहां साधन-संपन्न घरों के बच्चे मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए जाते हैं, लेकिन हॉस्टल का ख़र्च बर्दाश्त करने की स्थिति में न होने की वजह से शोएब की मां सुल्ताना रज़िया भी उसके साथ कोटा आ गईं। यहां उन्होंने एक कमरा किराए पर लिया और शोएब ने तैयारी शुरू कर दी। शोएब के पिता शेख़ मोहम्मद अब्बास राउरकेला में ही कमाने के लिए रुके रहे, ताकि शोएब को पैसे से मदद की जा सके। शोएब ने अपनी कामयाबी का श्रेय अपनी मां को दिया है। वह अब एम्स में पढ़कर डॉक्टर बनना चाहते हैं।

नीट परीक्षा में अच्छा स्कोर हासिल करने वाले हर मुस्लिम बच्चे की कहानी संघर्ष से भरी पड़ी है। हर किसी की कहानी के लिए बहुत पन्ने और इंटरनेट पर जगह चाहिए। सफ़ीना ज़हरा- 720/618, मोहम्मद शाहनवाज़- 720/657, अलीजा हसन-720/637, सकीना बानो- 720/632 और तस्कीन हसन- 720/625 की कहानियां शोएब आफ़ताब की कहानी से कम नहीं है, लेकिन बासित बिलाल खान जैसी कहानी किसी की नहीं है। कश्मीर में अभी भी इंटरनेट कुछ जगहों पर बंद है या लिमिटेड है। वहां के बच्चे इन दोनों की कहानी नहीं पढ़ पाएंगे। क्या आप इस दर्द को महसूस कर सकते हैं।

बासित और शोएब की कहानियों में कोई ट्विस्ट नहीं है। ये कहानियां बताती हैं कि भारत में मुस्लिम बच्चे भी ठीक उसी तरह पढ़ना और आगे बढ़ना चाहते हैं, जैसे बाकी मज़हबों के बच्चे। जाने-माने मुस्लिम स्कॉलर मौलाना शहाबुद्दीन रज़वी कहते हैं कि ज़हरीले ज़ेहन वाले लोग जब उन्हें पंक्चर जोड़ने वाला या आतंकी मानसिकता का बताने लगते हैं तो हमारे बच्चे उन चुनौतियों को स्वीकार करके वो कर दिखाते हैं, जिनसे बाकी समाज के लोग उम्मीद तक नहीं करते। आख़िर ऐसी ज़हरीला मानसिकता के लोग अपना माइंडसेट कब बदलेंगे? भारत की मिट्टी में पैदा हुआ बच्चा भी देश को आगे बढ़ाने में उसी तरह का योगदान देना चाहता है जैसे बाकी मज़हबों के बच्चे।

उम्मीद है कि उन दो सवालों के जवाब उन लोगों को मिल गए होंगे, जिन्होंने इस देश में यह नैरेटिव चलाया था और अभी भी चला रहे हैं कि मुसलमान बच्चे पढ़ना ही नहीं चाहते। वे सिर्फ मदरसों में पढ़ते हैं। मुस्लिम परिवार ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं।

क्या किसी को 2009 में सिविल सेवा के नंबर वन टॉपर रहे कश्मीरी युवक शाह फ़ैसल की कहानी याद है? शाह फ़ैसल मेडिकल के टॉपर बन चुके थे, लेकिन उनकी प्यास बुझी नहीं थी। मन में कुछ गांठ थी। इसीलिए वह सिविल सेवा परीक्षा में बैठे। आईएएस बने और अपना ही राज्य यानी जम्मू कश्मीर चुना। बतौर डीएम कई जिलों में तैनात रहे। सिस्टम को नज़दीक से देखा। फिर नौकरी और आईएएस से इस्तीफ़ा दे दिया। सिस्टम को बदलने के लिए वह मुख्यधारा की राजनीति में आए। 9 फ़रवरी 2019 में जेएनयू की छात्र नेता रही शहला राशिद के साथ अपनी राजनीतिक पार्टी बनाई। सिस्टम और राजनीति ने उन्हें चलने नहीं दिया। उन्हें भी कैद में डाल दिया गया। उनका मोह भंग हो गया। जेल से बाहर निकलने के बाद शाह फ़ैसल ने राजनीतिक पार्टी ही भंग कर दी या उससे अलग हो गए।

ख़ैर, उम्मीद है कि एक दिन यह भ्रष्ट सिस्टम सभी हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, दलित, आदिवासी बच्चे बदलेंगे जरूर। हम फिर गाएंगे- सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा…

(यूसुफ किरमानी वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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