किशोर उपाध्याय की वर्दी उतरी: उत्तराखण्ड में कांग्रेस आक्रामक और भाजपा रक्षात्मक मुद्रा में

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उत्तर प्रदेश की ही तरह सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी जहां उत्तराखण्ड में भी ठीक चुनाव से पहले भगदड़ रोकने के लिये रूठों को मनाने और उनकी शर्तों के आगे समर्पण की मुद्रा में नजर आ रही है वहीं राज्य की सत्ता की प्रबल दावेदार कांग्रेस अपने रूठों को मनाने के बजाय उनकी वर्दी उतार कर पार्टी से बाहर जाने का रास्ता दिखा रही है। कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और कभी गांधी परिवार के करीबी माने जाने वाले किशोर उपाध्याय के बारे में कांग्रेस ने जो बेहद सख्त कदम उठाया है उससे न केवल कांग्रेस की आक्रामक चुनावी रणनीति परिलक्षित हो रही है अपितु जीत के प्रति उसका आत्मविश्वास भी झलक रहा है।

भाजपा डैमेज कंट्रोल में और कांग्रेस विद्रोह दमन में व्यस्त

कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत, विधायक उमेश शर्मा काऊ और पूरण सिंह फत्र्याल अपने विद्रोही तेवरों से उत्तराखण्ड में सत्ताधारी भाजपा की नाक में दम करते रहे हैं। इनके अलावा हरिद्वार जिले की खानपुर सीट से विधायक कुंवर प्रणव सिंह चैम्पियन भी अपनी निरंकुश गतिविधियों से भाजपा नेतृत्व की गले की हड्डी बने रहे हैं। इनके अलावा भी पार्टी कभी अल्प संख्यकों के खिलाफ जहर उगलने और कभी महिलाओं के साथ तो कभी टौल बैरियर कर्मचारियों को पीटने के मामले में राजकुमार ठुकराल को भी नोटिस जारी करती रही। मगर किसी के भी खिलाफ अनुशासन की कार्यवाही करने का साहस नहीं जुटा पायी। कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत और विधायक काऊ के आगे तो भाजपा नेतृत्व समर्पण ही कर चुका है। हरक सिंह रावत ने तो सीधे पार्टी नेतृत्व की योग्यता पर सवाल उठा दिया था। सरकार में रहते हुये भी वह त्रिवेन्द्र रावत की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते रहे हैं फिर भी भाजपा ने उनके खिलाफ कार्यवाही करने की हिम्मत नहीं जुटाई जबकि किशोर उपाध्याय के बारे में भाजपा में जाने की अटकलों के कारण कांग्रेस ने उनकी वर्दी उतार दी।

विद्रोही पूर्व प्रदेश अध्यक्ष न घर के न घाट के रहे

कांग्रेस में रहते हुये वर्दी उतरने के बाद किशोर उपाध्याय की दूसरे दलों में जाने पर मोलभाव की क्षमता स्वतः ही घट गयी है। पहले भाजपा को उनकी जरूरत थी इसलिये ललचा रही थी, लेकिन अब तिरस्कृत, बहिष्कृत और निराश्रित किशोर को स्वयं ही एक राजनीतिक आश्रय की तलाश है। किशोर की इस स्थिति के कारण भाजपा में किशोर के प्रवेश से अब वह चुनावी फिजा भी नहीं बन पायेगी जिसके लिये किशोर को लुभाया जा रहा था। देखा जाय तो कांग्रेस ने किशोर के माध्यम से भाजपा का एक बड़ा वार पहले ही विफल कर दिया।

गांधी परिवार से दशकों पुराना नाता भी काम न आया

कांग्रेस के साथ किशोर उपाध्याय का दशकों पुराना नाता रहा। उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) में एक मामूली कर्मचारी के तौर पर सेवा शुरू की थी। उनकी निष्ठा और काबिलियत को देखते हुये उन्हें एआईसीसी में एक टाइपिस्ट के तौर पर पदोन्नति मिली। बाद में उन्हें अरुण नेहरू के साथ निजी सहायक के तौर पर टंकक के रूप में काम करने का मौका मिला। किशोर के गांधी परिवार की सेवा का असली मेवा अस्सी के दशक में तब मिला जब संजय गांधी की दुर्घटना में मृत्यु के बाद राजीव गांधी का राजनीति में प्रवेश हुआ और उन्हें अमेठी सीट से चुनाव लड़ाया गया। इस चुनाव के प्रभारी सतीश शर्मा थे और किशोर उपाध्याय को उनका सहायक बनाया गया। राजीव गांधी ने उस चुनाव में लोक दल के प्रत्याशी शरद यादव को 2.37 लाख मतों से हराया था। उसके बाद तो किशोर उपाध्याय का महत्व और भी बढ़ गया। कहा जाता है कि उस दौरान किशोर मुलाकातियों को राजीव गांधी से मिलाने की जिम्मेदारी भी निभाते थे। यहां तक कहा जाता है कि किशोर उपध्याय ने अपने राजनीतिक संपर्कों के चलते 1985 में उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के लिये शूरवीर सिंह सजवाण को देवप्रयाग सीट से टिकट दिलवाने में मदद की थी।

किशोर का विद्रोही स्वभाव नया नहीं

किशोर उपाध्याय का विद्रोही स्वाभाव नया नहीं है। नब्बे के दशक में उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान किशोर ने कांग्रेस में रहते हुये तत्कालीन नरसिम्हाराव सरकार के खिलाफ आवाज बुलन्द कर दी थी। राज्य गठन के बाद वह पहली बार 2002 में विधानसभा के पहले चुनाव में टिहरी विधानसभा सीट से जीते थे। नारायण दत्त तिवारी सरकार में उन्हें औद्योगिक विकास राज्य मंत्री बनाया गया, मगर हरीश गुट में होने के कारण उनकी मुख्यमंत्री तिवारी के साथ कभी नहीं निभी। इसलिये तिवारी ने उनको नाम मात्र का मंत्री बनाये रखा और जब संविधान के 91 वें संशोधन के तहत मंत्रिमण्डल को 12 सदस्यों तक सीमित करने की बारी आयी तो 4 अन्य मंत्रियों के साथ ही किशोर उपाध्याय को भी हटा दिया गया। लेकिन उन्होंने हरीश रावत गुट नहीं छोड़ा। वर्ष 2007 में भी वह टिहरी से चुनाव जीत गये, लेकिन 2012 में जब कांग्रेस पुनः सत्ता में आयी तो किशोर टिहरी चुनाव हार गये। संयोग ऐसा हुआ कि जिस दिनेश धनै ने उन्हें निर्दलीय के रूप में हराया था उसे हरीश रावत ने सत्ता में आते ही 2014 में मंत्रिमण्डल में शामिल कर लिया। इसी दौरान किशोर को मनाने की कोशिशों के तहत हरीश रावत ने उनको प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनवा दिया। लेकिन धनै को लेकर उनका हरीश रावत के साथ मनमुटाव कम नहीं हुआ।

प्रदेश अध्यक्ष ने अपनी ही पार्टी को हरवाया

हरीश रावत जब प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उनको विपक्ष से अधिक चुनौतियां प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में किशोर उपाध्याय से मिलती रहीं। उस समय किशोर आये दिन मुख्यमंत्री को परेशान करने वाले पत्र भेज कर लेटर बमों का विस्फोट उत्तराखण्ड की राजनीति में करते रहे। सरकार की आलोचना वाले वे पत्र मुख्यमंत्री के पास बाद में और प्रेस को पहले पुहंचते थे। माना जाता है कि 2017 के चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति के लिये काफी हद तक किशोर उपाध्याय भी जिम्मेदार थे। उन्होंने 2017 के चुनाव से पहले मुख्यमंत्री हरीश रावत पर इतनी राजनीतिक बमबारी की कि हरीश रावत को भाजपा से अधिक अपने ही पार्टी अध्यक्ष का मुकाबला करना भारी रहा और अन्ततः हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस सिमट कर 11 पर रह गयी और स्वयं हरीश रावत दो जगह से हार गये। हरीश ने भी किशोर को ठिकाने लगाने के लिये उनके गृह क्षेत्र टिहरी से उन्हें खदेड़ कर देहरादून की सहसपुर सीट पर पटक दिया और टिहरी को पुनः किशोर के प्रतिद्वन्दी धनै के हवाले कर दिया।

सुन्दरलाल बहुगुणा के नक्शे कदम पर चलने का प्रयास

कांग्रेस के लिये किशोर उपाध्याय की गतिविधियां 2017 की हार के बाद भी परेशानी का सबब बनती रहीं। वह कभी हरीश रावत पर तो कभी किसी अन्य नेता पर निशाने साधते रहे। इसी दौरान उन्होंने वनाधिकार मंच बना डाला। वह सदैव सुन्दरलाल बहुगुणा से प्रभावित रहे, इसलिये पर्यावरण के प्रति उनकी चिन्ता स्वाभाविक ही थी। लेकिन वनाधिकार आन्दोलन के प्रणेता के रूप उनकी मांग उत्तराखण्ड को वनवासी क्षेत्र घोषित कराने की रही।

टिकट वितरण से पहले असन्तुष्टों को कड़ा संदेश

चुनाव में टिकट वितरण से पहले कांग्रेस ने स्पष्ट संदेश दे दिया कि जिस किसी को भी पार्टी छोड़नी हो वह जा सकता है, मगर पार्टी न तो किसी दबाव में आयेगी और ना ही पार्टी विरोधी हरकतें बर्दास्त करेगी, चाहे कोई कितना बड़ा नेता क्यों न हो। चूंकि कांग्रेस में टिकटों के लिये मारामारी मची हुयी है और सभी को टिकट देना कांग्रेस के लिये ही क्या, भाजपा के लिये भी संभव नहीं है। इसलिये विद्रोह से पहले ही कांग्रेस ने अनुशासन का डंडा घुमा कर संभावित विद्रोह के दमन की मंशा जाहिर कर दी। जबकि भाजपा अभी टिकट वितरण से पहले संभावित विद्रोह को थामने में लगी हुयी है। उसे असली चुनौती का सामना तब करना पड़ेगा जब एण्टी इन्कम्बेंसी से बचने के लिये सिटिंग विधायकों के टिकट काटकर नये चेहरे उतारने पड़ेंगे। कुल मिला कर देखा जाय तो इस चुनाव में कांग्रेस जहां आक्रामक है वहीं सत्ताधारी दल को रक्षात्मक रणनीति अपनानी पड़ रही है।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)

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