‘न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बगैर संविधान खोखले वायदों के दस्तावेज से कुछ ज्यादा नहीं’

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वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमणियम ने कहा है कि प्रत्येक संस्थान के गौरव और चुनौती के अपने क्षण होते हैं। वर्तमान में चुनौती के क्षण हैं जब न्यायपालिका का एक संवैधानिक कर्तव्य है कि वे संवैधानिक स्वतंत्रता के प्रति सचेत हों, विशेषकर जब सरकार अपने अधिकार के प्रति अधिक दुराग्रही हो रही हो। अपने पद की शपथ के अनुरूप न्यायाधीशों को बगैर किसी भय, पक्षपात, राग या द्वेष के काम करना चाहिए, क्योंकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बगैर संविधान खोखले वादों के दस्तावेज से कुछ ज्यादा ही है। उन्होंने कहा कि कानून का शासन और न्यायिक स्वतंत्रता दो विचार हैं, ‌जो राष्ट्रों को बनाते या बिगाड़ते हैं।

पूर्व सालिसीटर जनरल गोपाल सुब्रमणियम यूनिवर्सिटी आफ कैंब्रिज के जीसस कॉलेज और इंटेलेक्चुअल फोरम द्वारा ‘शिफ्टिंग मीनिंग्स ऑफ द रूल आफ लॉ एंड ज्यूडीशियल इंडिपेंडेंस’ विषय पर आयोजित वेबिनार को संबोधित कर रहे थे। सुब्रमणियम ने यहां कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका महत्वपूर्ण है कि भारत के संविधान में किए गए वादों को बरकरार रखा जाए। उन्होंने आगाह किया कि स्वतंत्र न्यायपालिका के बगैर संविधान खोखले वादों का बयान बनकर रह जाएगा।

सुब्रमणियम ने कहा कि भारत के उच्चतम न्यायालय और इसकी लोकतांत्रिक साख इस बात पर निर्भर करती है कि सभी स्वतंत्र और समान हैं। हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया  कि पूरी स्वतंत्रता के साथ अराजकता और अव्यवस्था भी आती है।

सुब्रमणियम ने कहा कि समाज में हमेशा ऐसे कुछ लोग रहेंगे जो अपनी स्वतंत्रता का चयन दूसरों का अहित करने के लिए करेंगे। इसका समाधान एक व्यवस्थित आजादी में निहित है। अत: लोग समझौते के लिए राजी होते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो लोग अपनी आजादी और समता की गारंटी सहित कतिपय आश्वासनों के बदले अपनी आजादी के छोटे हिस्से से समझौता करने का मार्ग चुनते हैं। सुब्रमणियम ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि भारत में यह समझौता 26 नवंबर, 1949 को पूरा हुआ जब देशवासियों ने संविधान अपनाया।

उन्होंने कहा कि न्यायपालिका पर सबसे महत्वपूर्ण काम अर्थात, यह सुनिश्चित करना कि समझौते या संविधान का हनन नहीं हो, के लिए अंतत: भरोसा कैसे किया गया। उच्चतम न्यायालय संविधान का अंतिम व्याख्याता बना और उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों को कार्यपालिका और विधायिका दोनों की कार्रवाईयों पर निगाह करने की सर्वोच्च जिम्मेदारी सौंपी गई, इन दोनों निकायों की संविधान से प्रतिबद्धता थी। इस व्यापक जिम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए ही अदालतों को संरक्षण प्रदान करना संवैधानिक व्यवस्था का ही हिस्सा है। किसी भी अदालत से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह सरकार के दूसरे विभागों के हस्तक्षेप के साथ निगरानी करने का अपना काम करे।

उन्होंने कहा कि न्यायिक अधिकार कभी भी कार्यपालिका की मंशा को सुविधा पहुंचाने वाले नहीं हैं। इसके विपरीत, यह कार्यपालिका के अधिकारों के बारे में पूछताछ या छानबीन करने वाला होना चाहिए। स्वतंत्रता से वंचित करने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण न्याय तक पहुंच से वंचित करने के ऐतिहासिक आरोप होंगे, जिनका न तो सरकार और न ही अदालतों को सामना करना चाहिए।

सुब्रमणियम ने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में संविधान में शुरू से ही खामियां थीं और वे आजादी के शुरुआती दशकों में ही स्पष्ट हो गई थीं। यह व्यवस्था ऐसी थी, जिसमें अधिकारों के दुरूपयोग से बचने के लिए नियुक्ति प्रक्रिया में किसी प्रकार की निगरानी का प्रावधान नहीं था। उन्होंने कहा कि हमें उम्मीद थी कि कार्यपालिका अपने हितों को दरकिनार करके हमेशा ही सदाशयता से काम करेगी।

सुब्रमणियम ने कहा कि कॉलेजियम की सिफारिशों पर फैसले नहीं लेना कार्यपालिका का ब्रह्मास्त्र है। वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा प्रस्तावित चार नामों में से एक नाम गोपाल सुब्रमणियम का था। केंद्र सरकार द्वारा उनकी नियुक्ति पर रोक लगाने के बाद सुब्रमणियम ने जज के पद के लिए अपनी सहमति वापस ले ली थी, सुब्रमणियम ने कहा कि कार्यपालिका ने अपने शस्त्रागार में एक नया हथियार पाया है। यह उन नियुक्तियों पर बैठ सकती है, जिससे वह असहज है। न्यायपालिका बहुत ज्यादा नहीं कर सकती है।

सुब्रमणियम ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के प्रथम पांच मुख्य न्यायाधीशों ने अपनी विलक्षण प्रतिभा, ज्ञान और स्वभाव और भारत के श्रेष्ठतम अटार्नी जनरल की मदद से पूरी विनम्रता के साथ न्यायपालिका की स्वतंत्रता और उसके स्वभाव की लय तय कर दी। उस समय राजनीतिक नेताओं ने न्यायालय को अपना सहयोगी या विरोधी नहीं समझा। संविधान सर्वोपरि रहा। संभवत: इसकी एक वजह यह भी रही होगी कि सभी की इच्छा थी कि संविधान काम करे। उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्त के मामले में प्रधान न्यायाधीश की सिफारिशों का सम्मान करने की परपंरा दो दशक तक चली।

सुब्रमणियम ने कहा कि 1970 के दशक में संविधान की खामियां सामने आने लगीं। उच्चतम न्यायालय और केंद्र के बीच कई मामलों में टकराव हुआ और इससे नाराज कार्यपालिका ने यथास्थिति को उलट पलट दिया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पहले दो कार्यकाल के दौरान पारित चार फैसलों ने पतन के संकेत दिए। ये चार मामले थे- आईसी गोलकनाथ बनाम पंजाब, आरसी कूपर बनाम भारत संघ, द प्रीवी पर्सेज मामला और केशवानंद भारती बनाम केरल।

केशवानांद भारत मामले में चौथी पराजय को सरकार ने सहजता से नहीं लिया। इसके बाद ही प्रधान न्यायाधीश पद के लिए प्रधान न्यायाधीश एसएम सीकरी द्वारा नामित न्यायाधीश के स्थान पर न्यायमूर्ति एएन रे को अगला मुख्य न्यायाधीश बनाया गया। इस प्रक्रिया में तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों- न्यायमूर्ति जयशंकर मणिलाल शेलट, न्यायमूर्ति एएन ग्रोवर और न्यायमूर्ति केएस हेगड़े की वरिष्ठता को नजरअंदाज किया गया। ये तीनों ही प्रतिष्ठित न्यायाधीश थे, लेकिन ये तीनों ही सरकार की पसंद के हिसाब से काफी स्वतंत्र विचार के थे। मुख्य न्यायाधीश रे की नियुक्ति के साथ संविधान के इतिहास में पहली बार एक महत्वपूर्ण परंपरा को तोड़ दिया गया था। सुब्रमणियम ने कहा कि रे की नियुक्ति ने राजनीति की गहराईयों को बेनकाब कर दिया। संविधान की कमजोरियां अब सामने नजर आ रही थीं।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 32 के तहत याचिकाओं को हतोत्साहित करने पर सुब्रमणियम ने कहा कि भारत का उच्चतम न्यायालय इस मायने में अद्वितीय है कि अनुच्छेद 32 के तहत वह स्वयं एक मौलिक अधिकार है। यह एक अद्वितीय सुरक्षा है। उच्चतम न्यायालय की शक्तियां इतनी वृहद हैं। कैंब्रिज विश्वविद्यालय की श्रुति कपिला और सौम्या सक्सेना ने इस परिचर्चा का संचालन किया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

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