छत्तीसगढ़ राज्य में सरगुजा जिले का हसदेव अरण्य क्षेत्र अपनी जैव विविधता, विशेषकर हाथियों के झुंड़ों के लिए काफी प्रसिद्ध है। यहां हजारों प्रजाति के वन्य जीवों का बसेरा है और इनके साथ माइग्रेटरी चिड़ियों का भी आगमन होता है। पर्यावरण की दृष्टि से यह अति महत्वपूर्ण वन इस समय कोयला खदान की व्यवसायिक खनन सक्रियता की वजह से अस्तित्व का संकट झेल रहा है। यह माना जाता है कि इस कोयला खनन कार्य से राज्य के वन पारिस्थितिकी तंत्र को खतरा है। ध्यातव्य है कि यह क्षेत्र जैव विविधता में समृद्ध है और यह हसदेव और मांड नदियों के लिए जलग्रहण क्षेत्र भी है। हसदेव, बांगो बैराज का कैचमेंट क्षेत्र है जहां से छत्तीसगढ़ राज्य के उत्तरी और मध्य मैदानी इलाकों की 4 लाख हेक्टेयर भूमि में सिंचाई की जाती है।
हाल ही में छत्तीसगढ़ के सरगुजा स्थित परसा कोल ब्लॉक से उत्खनन के लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने अनुमति दे दी है। इस कोल ब्लॉक से अडानी समूह की कंपनी ओपनकास्ट माइनिंग के जरिये कोयला निकालेगी। 2100 एकड़ में फैला यह कोल ब्लॉक राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित हुआ है, लेकिन एमडीओ यानी खदान के विकास और ऑपरेशन का अधिकार अडानी के पास है। संरक्षित व सघन वन क्षेत्र होने के कारण इस कोल ब्लॉक के आवंटन का शुरू से विरोध हो रहा है।
इस निर्णय के बाद जंगल क्षेत्र में निवास करने वाले आदिवासी आंदोलन कर रहे हैं और आवंटन रद्द करने की मांग को लेकर बीते 14 अक्टूबर से धरने पर बैठे थे। अब कोयला खनन के विरोध में सरगुजा और कोरबा जिले के 30 गांवों के 350 से अधिक आदिवासी ‘हसदेव बचाओ पदयात्रा’के बैनर तले पदयात्रा कर रहे हैं। ग्रामीणों ने अपनी यात्रा मदनपुर ग्राम से शुरू की और 10 दिनों में 300 किमी से अधिक की दूरी तय करते हुए वे राजधानी रायपुर पहुंच रहे हैं, जहां वे अपनी मांगों को छत्तीसगढ़ के राज्यपाल और मुख्यमंत्री को सौंपेंगे। आदिवासियों ने इसका नाम ‘हसदेव बचाओ पदयात्रा’ दिया है। रायपुर पहुंचकर ये लोग विरोध जताएंगे।
इनका आरोप है कि कोल परियोजनाओं के लिए अवैध रूप से भूमि का अधिग्रहण हो रहा है। हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के अनुसार, दो जिलों के प्रदर्शनकारियों का एक संयुक्त मंच है, इनके विरोध के बावजूद इस क्षेत्र में छह कोल ब्लॉक आवंटित किए गए हैं। इनमें से दो में खनन चालू हो गया है। परसा पूर्व और केटे बसन ब्लॉक और चोटिया के ब्लॉक 1-2 हैं। इसके साथ ही परसा के दूसरे कोल ब्लॉक को पर्यावरण मंत्रालय से क्लियरेंस मिल गया है। ग्रामीणों का आरोप है कि जमीन अधिग्रहण का काम बिना ग्राम सभा केी अनुमति के की गई है। साथ ही भूमि अधिग्रहण का काम भी जारी है। संघर्ष समिति के प्रमुख सदस्य उमेश्वर सिंह आर्मो ने आरोप लगाया है कि परसा में पर्यावरण मंजूरी के लिए जाली दस्तावेज का प्रयोग किया गया है। साथ ही मंत्रालय को गलत जानकारी दी गई है।
केंद्र सरकार की तरफ से 24 दिसंबर, 2020 को कोयला असर क्षेत्र अधिनियम, 1957 की धारा 7 के तहत एक अधिसूचना जारी की गयी थी, जिसमें क्षेत्र के हजारों ग्रामीणों को अधिकारों पर आपत्तियां, यदि कोई हो, प्रस्तुत करने के लिए 30 दिन की अवधि दी गई थी। आठ फरवरी को केंद्रीय कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कहा कि मंत्रालय को 470 से अधिक आपत्ति पत्र मिले हैं, जिनमें राज्य सरकार के पत्र भी शामिल हैं। जोशी ने कहा कि 1957 के कानून के तहत, ग्राम सभा से किसी भी सहमति के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है।
उन्होंने कहा था कि भूमि अधिग्रहण, पनुर्वास और पुनर्वास अधिनियम, 2013 में उचित मुआवजा और पारदर्शिता के अधिकार और छत्तीसगढ़ आदर्श पुनर्वास नीति 2007 के नियमों के तहत वैध मुआवजे का भुगतान किया जाएगा। संघर्ष समिति में शामिल आदिवासियों का कहना है कि मुआवजा पर्याप्त नहीं है। पैसा और हमारी मातृभूमि समान नहीं हैं। कोई भी राशि अंतत: समाप्त हो जाती है, लेकिन हमारे घर यहां वर्षों से हैं।
हसदेव अरण्य वन क्षेत्र को तबाह करने की क्षमता वाली कोयला खनन परियोजनाओं की मंजूरी के खिलाफ स्थानीय आदिवासी समुदाय और पूरी ग्राम सभा 2014 से ही लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। आसपास के गांवों में गोंड आदिवासी समुदायों की आजीविका इसी पर आधारित रहती है। 2010 में, सरकार ने खुद घोषणा की थी कि हसदेव अरण्य को कोयला खनन के लिए ‘नो-गो’ (न छुआ जाने वाला) ज़ोन माना जाना चाहिए, लेकिन अब इस निर्णय को उलट दिया गया है।
हसदेव अरण्य कोलफील्ड में बड़े पैमाने पर कोयला भंडार होने के कारण खनन उद्योग और उससे जुड़े पूंजीपति इस तरफ आकर्षित होते हैं। उनका अनुमान है कि 1,878 वर्ग किमी में फैले क्षेत्र (जिसमें से 1,502 वर्ग किमी वन भूमि है) में एक अरब मीट्रिक टन से अधिक कोयला उपलब्ध है। हसदेव अरण्य के गांवों और जंगलों को 18 कोयला-खनन ब्लॉकों में विभाजित किया गया है जिसे बड़े व्यावसायिक कंपनियों को वितरित किया जाएगा। अब तक, राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों को 4 कोयला ब्लॉक आवंटित किए गए हैं, जिन्होंने अडानी एंटरप्राइजेज लिमिटेड को माइन डेवलपर और ऑपरेटर के रूप में अनुबंधित किया है।
हालांकि हसदेव अरण्य का अधिकांश क्षेत्र एक अनुसूची- V क्षेत्र है, आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण कानून – पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996, और वन अधिकार अधिनियम, 2006 सहित महत्वपूर्ण क़ानून यहां अब तक लागू नहीं किये गए हैं। ग्रामीणों द्वारा दायर सामुदायिक वन अधिकार के दावे अभी भी लंबित हैं। ग्राम सभाओं के कड़े विरोध के बावजूद पर्यावरण और वन मंजूरियां दी गयी हैं। यहाँ तक कि कुछ मामलों में, जैसे परसा कोयला ब्लॉक में, फर्जी ग्राम सभा की कार्यवाही के आधार पर वन मंजूरी प्रदान की गई। सरकार ने ग्राम सभाओं से सार्वजनिक परामर्श और सहमति के लिए स्थापित प्रक्रियाओं को दरकिनार करने के लिए अप्रासंगिक और कठोर, कोयला धारक क्षेत्र (अर्जन और विकास) अधिनियम, 1957 के तहत खनन के लिए भूमि अधिग्रहण करने का भी प्रयास किया है। स्थानीय आदिवासियो की निम्न प्रमुख मांगें हैं-
1. बिना ग्राम सभा की सहमति के क्षेत्र में कोयला धारक क्षेत्र (अर्जन और विकास) अधिनियम के तहत किए गए सभी भूमि अधिग्रहण को तत्काल रद्द करें।
2. इस क्षेत्र में सभी कोयला खनन परियोजनाओं को रद्द करें।
3. पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में किसी भी कानून के तहत भूमि अधिग्रहण के लिए आगे बढ़ने से पहले ‘पेसा’(PESA)अधिनियम, 1996 के अनुसार निश्चित ग्राम सभा सहमति के प्रावधान को लागू करें।
4. परसा कोयला ब्लॉक के लिए फर्जी प्रस्ताव पत्र बनाकर प्राप्त की गयी वन मंजूरी को तत्काल रद्द करें, और फर्जी ग्राम सभा प्रस्ताव बनाने वाले अधिकारी व कंपनी के खिलाफ कार्यवाही करें।
5. सभी गांवों में समुदाय और व्यक्तिगत स्तर के वन अधिकारों को मान्यता दें, और घाटबर्रा गांव के निरस्त किये सामुदायिक वन अधिकारों को बहाल करें।
6. पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 के प्रावधानों का पालन करें।
(लेखक और साहित्यकार शैलेंद्र चौहान जयपुर में रहते हैं।)
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