Saturday, April 27, 2024

झारखंड: लाटू और कुजरूम के आदिवासियों को विस्थापित कर बदहाली के दलदल में ढकेल रहा वन विभाग

पलामू। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की स्थापना टाइगर टास्क फोर्स की सिफारिश के बाद दिसंबर 2005 में की गई थी। जो संशोधित रूप में 4 सितंबर 2006 को लागू हुआ। यह अधिनियम बाघ और अन्य लुप्तप्राय प्रजाति यानी वन्यजीव अपराध को नियंत्रण करने का प्रावधान करता है।

इसके अलावा यह टाइगर रिजर्व के आसपास के क्षेत्रों में स्थानीय लोगों की आजीविका के हितों को सुनिश्चित करने सहित यह सुनिश्चित करता है कि अनुसूचित जनजातियों और आसपास रहने वाले ऐसे अन्य लोगों के अधिकारों में हस्तक्षेप या प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।

वहीं अनुसूचित जनजातियों और ऐसे अन्य वन निवासियों के हितों की रक्षा करते हुए कोर (क्रिटिकल) और बफर (परिधीय) क्षेत्रों को परिभाषित किया गया है।

इसका जिक्र इसलिए करना जरूरी है कि 2017 के वन विभाग के पलामू व्याघ्र परियोजना (दक्षिणी भाग) द्वारा निर्गत एक पत्र के आलोक में लातेहार जिले में स्थित 8 वन गांव– लाटू, कुजरूम, रमनदाग, हेनार, विजयपुर, पंडरा, गुटवा और गोपखाड़ के ‘ईको विकास समिति’ को भेजा गया था। इस पत्र में वन विभाग ने इन आठ गावों को विस्थापन एवं पुनर्वास हेतु प्रस्तावना भेजा था।

इस प्रस्तावना के तार भारत सरकार द्वारा बाघों के संरक्षण हेतु प्रयासों से जुड़े हैं। राष्ट्रीय व्याघ्र संरक्षण प्राधिकार के अध्ययन अनुसार, बाघों के लिए न्यूनतम 800-1000 वर्ग किमी का कोर एरिया चाहिए, जो मनुष्यों के अतिक्रमण से परे हो।

पलामू व्याघ्र परियोजना, जिसकी स्थापना केंद्र सरकार ने वर्ष 1974 में की थी, का कुल दायरा 1129.93 वर्ग किमी है। वर्तमान में पलामू व्याघ्र आरक्षण के 414.08 वर्ग किमी को कोर एरिया घोषित किया, जिसके अंतर्गत उपरोक्त 8 वन गांव आते हैं। वन विभाग का पुनर्वास सम्बंधित प्रस्ताव इन 8 वन गांवों को कोर एरिया से हटाने का है।

ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार इन 8 वन गावों को अंग्रेज़ी हुकूमत ने 1910-1920 के आसपास बसाया था। इन गावों के अधिकांश निवासी आदिवासी समुदाय यानी सरकारी भाषा में जनजातीय समुदाय से आते हैं।

वर्ष 2006 में वन अधिकार क़ानून पारित होने के पश्चात इन सभी निवासियों के पास इस क्षेत्र में रहने का औपचारिक हक़ है। इन्होंने अपने अपने गावों में रहने लायक घर, खेती लायक ज़मीन, परम्परा अनुसार सरना मसना स्थापित किए हैं। इन क्षेत्रों में ये 100 से ज्यादा वर्षों से रह रहे हैं।

अतः अब भारत सरकार द्वारा 2006 में गठित राष्ट्रीय व्याघ्र संरक्षण प्राधिकार के अंतर्गत कोर जोन से ग्रामीणों के स्वैच्छिक पुनर्वासन हेतु निर्गत दिशा-निर्देश एवं वन विभाग द्वारा इन निर्देशों की अवहेलना ने इन आदिवासी गांवों की जीविका पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है। आज वन विभाग ने इस क्षेत्र के लाटू और कुजरूम के आदिवासियों को आने वाले दिनों में बदहाली, गृहहीनता एवं बेरोज़गारी जैसी परिस्थिति में खड़ा कर दिया है।

बता दें कि जब 2017 में वन विभाग द्वारा विस्थापन एवं पुनर्वास हेतु प्रस्तावना भेजा गया तो अधिकांश गावों ने इसका पुरज़ोर विरोध किया। हालांकि, दो गांव लाटू और कुजरूम ने वन विभाग के इस प्रस्ताव को बोझिल मन से स्वीकारा।

उल्लेखनीय है कि पलामू व्याघ्र परियोजना के तहत आने वाले इन दोनों गांवों लाटू और कुजरूम वनग्राम में केवल अनुसूचित जनजाति एवं आदिम जनजाति के लोग रहते हैं। 

लाटू और कुजरूम, दोनों गांव गारू प्रखंड के सुदूर वन क्षेत्र में बसे हैं। इन गावों तक न सड़क जाती और न ही बिजली। बाड़ेसार के मुख्य मार्ग तक आने के लिए इन ग्रामीणों को 6-13 किमी का लम्बा सफ़र पैदल तय करना पड़ता है। बारिश के मौसम में इन गावों को जोड़ती कच्ची सड़क भी जवाब दे देती है। इन गावों में न तो स्वास्थ्य केंद्र है और ना ही मोबाइल फोन सिग्नल, ऐसे में किसी भी प्रकार की स्वास्थ्य समस्या के लिए मदद मिलनी नामुमकिन हो जाती है।

यह कहना अनुचित ना होगा की लाटू और कुजरूम की इन परिस्थितियों के लिए ज़िम्मेदार वन विभाग है। वन विभाग ने इन सुदूरवर्ती क्षेत्रों में विकास का कोई काम नहीं होने दिया है। चूंकि ये दोनों गांव वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, अतएव यहां किसी भी प्रकार के विकास के लिए वन विभाग की अनुमति चाहिए होती है।

परंतु वन विभाग ने लोगों की जरूरतों को अनदेखा कर, वन्यजीवों की सुरक्षा की आड़ में, यहां किसी भी जन उपयोगी कार्य को आगे बढ़ने नहीं दिया। इस क्रम में वन विभाग शायद यह भूल गया है कि इंसान और प्रकृति को साथ चलना होता है, जो यहां रह रहे आदिवासियों के मूल में है। वन विभाग द्वारा इन गावों में ऐसी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां बनाई गयी हैं, जहां लोग खुद गांव छोड़कर जाने को मजबूर हो जाएं।

इसके अतिरिक्त, चूंकि ये दोनों गांव वन क्षेत्र में हैं, जिसके परिणाम स्वरूप लोगों के पास खतियानी दस्तावेज़ ना होकर वन पट्टा हैं। खतियानी दस्तावेज़ ना होने के कारण यहां पर निवास कर रहे आदिवासियों को राज्य सरकार ने जनजातीय प्रमाण पत्र उपलब्ध नहीं कराया है और न ही इन्हें झारखंड के स्थाई निवासी होने का प्रमाण पत्र ही प्राप्त है। जिसके कारण यहां के लोग राज्य एवं केंद्र सरकार की कई सारी योजनाओं से वंचित रह जाते हैं।

2017 के पुनर्वास प्रस्तावना के पीछे, एक तरफ़ वन विभाग द्वारा संरचित परिस्थितियां थीं, तो दूसरी तरफ़ वन विभाग द्वारा गांव वालों को किए गए अनौपचारिक वादे थे। वन अधिकारियों ने न केवल पक्के मकान, अच्छी शिक्षा एवं उज्ज्वल भविष्य का सपना दिखाया, वरन लोगों को जाति प्रमाण पत्र और झारखंड के स्थाई प्रमाण पत्र तक दिलाने का वादा कर डाला। इस संदर्भ में लाटू और कुजरूम के लोगों ने बोझिल मन से अपने घर छोड़ने के लिए हामी भर दी।

वन विभाग द्वारा प्रस्तावित पुनर्वास राष्ट्रीय व्याघ्र संरक्षण प्राधिकार के दिशानिर्देश अनुसार होने थे। इन निर्देशों के आलोक में लाटू और कुजरूम निवासियों को दो विकल्प दिए गए। पहले विकल्प के अन्तर्गत लोग 10 लाख रुपए का मुआवजा लेकर अपने घरों से विस्थापित हो जाएंगे और अपने पुनर्वासन की ज़िम्मेदारी वे ख़ुद उठाएंगे।

इस विकल्प के तहत 10 लाख की राशि देने के बाद वन विभाग की इनके पुनर्वास के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं रहेगी। झारखंड राज्य सरकार ने प्रथम विकल्प को और आकर्षित बनाने हेतु इसमें 5 लाख की अतिरिक्त राशि जोड़ दी। मतलब लोग 15 लाख लेकर अपने घर से बेदख़ल हो जाएं और अपने पुनर्वास की व्यवस्था खुद करें।

दूसरे विकल्प में यह कहा गया कि समुचित 10 लाख की राशि लोगों को ना देकर, वन विभाग उनके पुनर्वास से सम्बंधित कार्य करेगी। इस कार्य के तहत, वन विभाग लोगों को 5 एकड़ ज़मीन दिलाएगी, खतियानी हक़ दिलाएगी, उनके लिए मकान बनवाएगी और सामूहिक सुविधाएं, जैसे – सड़क, पेयजल, शौचालय, मोबाइल टावर व बिजली इत्यादि उपलब्ध कराएगी।

इन विकल्पों का अध्ययन करने के बाद, कुजरूम गांव के 120 परिवारों में से 70 परिवारों ने दूसरे विकल्प को चुना, वहीं लाटू गांव के 90 परिवारों में से 57 परिवार ने दूसरे विकल्प को चुना। कुजरूम गांव वालों की सहमति से उनके विस्थापन की जगह लाई-पैलापत्थल में चुना गया, जो कि एक आरक्षित वन भूमि है।

लाटू गांव वालों के लिए विस्थापन की जगह पोलपोल में चुना गया। हालांकि इस चिन्हित जगह पर लोगों की सहमति नहीं बन पाई थी, जिसे वन विभाग ने नज़रंदाज कर दिया। आज भी लाटू गांव के लोग पोलपोल जाना नहीं चाहते।

राष्ट्रीय व्याघ्र संरक्षण प्राधिकार के निर्देशानुआर, वन विभाग ने लाई-पैलापत्थर में 70 परिवारों के लिए 350 एकड़, सामूहिक सुविधाएं हेतु अतिरिक्त 65 एकड़, और पोलपोल में 57 परिवारों के लिए 285 एकड़, सामूहिक सुविधाएं हेतु अतिरिक्त 48 एकड़ (अनुमानित) ज़मीन मुहैया कराने की अनुशंसा की।

सामूहिक सुविधाओं के लिए जो अतिरिक्त भूमि मुहैया करायी जा रही है, वह झारखंड पुनर्स्थापन एवं पुनर्वास नीति 2008 के अधीन है। इस नीति के तहत अगर पुनर्स्थापित क्षेत्र का दायरा 250 एकड़ से ज़्यादा होता है तो सामूहिक सुविधाएं मुहैया कराना अनिवार्य होगा। अतएव लाटू और कुजरूम से पुनर्वासित हो रहे लोगों के लिए (जिन्होंने दूसरे विकल्प को चुना है) सामूहिक सुविधाएं उपलब्ध कराना वन विभाग की ज़िम्मेदारी बनती है।

ये सभी प्रक्रिया क़ानूनी विधि के अनुरूप की जा रही हैं, जिसका व्याख्यान ख़ुद वन विभाग अपने पत्राचार, जो की केंद्र सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को सम्बोधित था (दिनांक 1/04/2022), में किया है।

इस पत्राचार में राज्य वन विभाग स्पष्ट करता है कि पुनर्वास हेतु जो ज़मीन मुहैया करायी जा रही है, उसका कुल क्षेत्र (क़रीबन 750 एकड़) खाली करायी जा रही ज़मीन के कुल क्षेत्र (क़रीबन 827 एकड़) से कम है। अतः यह पुनर्वास पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी दिशानिर्देश (दिनांक 22/05/2019) का अनुपालन करता है।

जैसे-जैसे पुनर्वास का समय नज़दीक आता जा रहा है, वन विभाग का दोहरा चरित्र देखने को मिल रहा है। कुछ दिनों पूर्व वन विभाग ने विकल्पों को दरकीनार करते हुए ऐसे ग्रामीण (जिन्होंने दूसरा विकल्प चुना था) को प्रथम विकल्प के तहत 15 लाख थमा दिए। ऐसे में वन विभाग अपने निर्धारित ज़िम्मेदारियों से बचता दिख रहा है।

दूसरी ओर वन अधिकारी लाटू और कुजरूम के ग्रामीणों को पर्यावरण मंत्रालय के 2019 के दिशानिर्देश का ग़लत हवाला देते हुए यह कह रहे हैं कि उनकी पुनर्स्थापित ज़मीन 5 एकड़ ना होकर केवल उतनी ही मिलेगी, जितना उनका तत्कालीन वन पट्टा है। यहां स्पष्ट कर दें कि वन पट्टा में उल्लिखित भूमि, मांगी गई भूमि से अक्सर कम रहती है।

अगर आकलन किया जाए तो वन विभाग अपनी सामूहिक सुविधाएं – बिजली, पेयजल इत्यादि उपलब्ध करने की ज़िम्मेदारियों से भी बचता फिर रहा है। झारखंड पुनर्स्थापन एवं पुनर्वास नीति 2008 के अनुसार यह जिम्मेदारियां तभी लागू होती हैं जब पुनर्स्थापित क्षेत्र का दायरा 250 एकड़ से ज़्यादा हो। परंतु वन विभाग द्वारा वन पट्टा के समकक्ष पुनर्स्थापित ज़मीन मुहैया कराना, कुल पुनर्स्थापित क्षेत्र की सीमा को 250 एकड़ से कम पर ले आता है।

ऐसी परिस्थिति में वन विभाग न केवल अपने वादों से मुकरता दिख रहा है, वहीं क़ानूनी विधि की भी अवहेलना कर रहा है। ऐसे में लाटू और कुजरूम के ग़रीब आदिवासी पिसते दिख रहे हैं। जिन्हें हर दिन एक नया सपना दिखाया जाता और दूसरे दिन उस सपने को तोड़ दिया जाता है।

इन बदलती परिस्थितियों में कुजूरूम और लाटू वनग्राम के आदिवासी अपने हक़ के लिए दो मांगे वन विभाग के समक्ष रखते हुए कहते हैं कि हमें भी भारत का नागरिक समझते हुए हमें हमारा अधिकार दिया जाए।

ग्रामवासी कहते हैं कि यदि हमारा विस्थापन होता है तो सम्पूर्ण ग्रामीणों की सहमति से हो और हर उस वादे को पूरा किया जाय जो वन विभाग ने ग्रामीणों से किया है। अतएव वन विभाग कुजरूम के 70 एवं लाटू के 57 परिवारों के लिए 5 एकड़ ज़मीन, मकान, प्रोत्साहना राशि, खतियानी दस्तावेज़ एवं सामूहिक सुविधाएं (जैसे बिजली, पानी, मोबाइल, सड़क इत्यादि) उपलब्ध कराया जाए।

वहीं अगर वन विभाग अपने पुनर्वास के वादे को नहीं पूरा करता है तो वह लाटू और कुजरूम में रह रहे ग्रामीणों की पीड़ा को समझे और उन्हें भारत के नागरिकों को मिलने वाले सभी सरकारी लाभ से वंचित ना करें।

इस बावत कुजरूम के ग्राम प्रधान लालू उरांव ने बताया कि पलामू व्याघ्र परियोजना के (कोर एरिया) कुजूरूम गांव के 70 परिवारों के लिए राष्ट्रीय व्याघ्र संरक्षण प्राधिकार की मार्ग दर्शिका में प्रस्तावित पुनर्वास विकल्प- 2 के तहत 5-5 एकड़ खेती योग्य जमीन, मकान, खतियानी दस्तावेज एवं सामूहिक सुविधा के तहत बिजली, पानी, सड़क, मोबाइल टावर इत्यादि उपलब्ध कराने को लेकर वन विभाग द्वारा आना-कानी करने के संबंध में 4 दिसंबर 2023 को कुजूरूम गांव में ग्राम सभा का आयोजन किया गया।

ग्रामसभा में हुई चर्चा में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि जब तक वन विभाग कुजूरूम गांव के 70 परिवारों के लिए राष्ट्रीय व्याघ्र संरक्षण प्राधिकार की मार्ग दर्शिका में प्रस्तावित पुनर्वास विकल्प 2 के तहत 5-5 एकड़ खेती योग्य जमीन, मकान, जमीन की खतियानी दस्तावेज एवं सामूहिक सुविधा उपलब्ध नहीं कराती है, तबतक हम कुजूरूम गांव के निवासी गांव खाली नहीं करेंगे।

सर्वसम्मति से इस बात का भी निर्णय लिया गया कि ग्राम सभा में आज की बैठक का निर्णय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय भारत सरकार, सचिव पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय झारखंड सरकार, मुख्यमंत्री झारखंड, प्रधान सचिव झारखंड सरकार एवं उपायुक्त लातेहार को इस संबंध में पत्र प्रेषित किया जाए। ग्रामसभा के इस प्रस्ताव के बाद 6 दिसम्बर को उक्त तमाम पदाधिकारियों को रजिस्ट्री डाक से पत्र भेजा गया।

केन्द्रीय जनसंघर्ष समिति, लातेहार-गुमला के सचिव जेरोम जेराल्ड कुजूर बड़े ही दुखी स्वर में कहते हैं कि वन विभाग की इस वादा खिलाफी से इन गांवों के आदिवासियों की आवाज कोई सुनने को तैयार नहीं है।

वे कहते हैं कि यह जितना गंभीर मसला है उस हिसाब से इसकी गंभीरता को यहां का मीडिया भी नहीं समझ पा रहा है जबकि मीडिया समाज, देश, काल का आईना होता है। मीडिया केवल विभागीय अघिकारियों को अधिक तरजीह देता दिख रहा है, जो काफी निराशाजनक बात है।

(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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