आरटीई फोरम: 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए ऑन लाइन शिक्षा से ज्यादा जरूरी है स्वास्थ्य औऱ समुचित पोषण

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नई दिल्ली। भारत में सार्वजनिक शिक्षा एवं स्वास्थ्य के लिए बजट आवंटन आवश्यकता से हमेशा कम रहा है। उसके बाद भी विगत वर्षों मे आईसीडीएस (इंटिग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज) के तहत मुहैया कराई जाने वाली सेवाओं के लिए बजट में भारी कटौती होती रही। इतने अल्प बजट के साथ 6 वर्ष से नीचे के बच्चों के बेहतर व गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य-पोषण और शिक्षा की गारंटी तो एक सपना ही है।

मौजूदा संकट ने देश में शिक्षा और स्वास्थ्य के सार्वजनिक ढांचे की जर्जर हालत से तो रूबरू करा ही दिया है, सिर्फ मुनाफा आधारित निजी अस्पतालों की कलई भी खोल कर रख दी है। इन सब चुनौतियों से निबटने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं के सार्वजनिक ढांचे को मजबूत किया जाना ही एकमात्र विकल्प है। इसके लिए बाल अधिकार एवं शिक्षा के लिए संघर्षरत विभिन्न नेटवर्कों, मंचों और नागरिक संगठनों को एक देशव्यापी अभियान चलाने का संकल्प लेना होगा।

मार्च में लॉकडाउन की घोषणा से लेकर अब तक सरकार की ओर से ढेर सारी घोषणाएँ तो की गई, लेकिन इन घोषणाओं के केंद्र में 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को कभी नहीं रखा गया। अभी आँगनवाड़ी सेवाएँ लगभग पूरी तरह बन्द हैं। नतीजतन ग्रोथ मोनिटरिंग के अभाव में कुपोषित एवं अतिकुपोषित बच्चे प्रभावित हो रहे हैं जो बेहद चिंताजनक है। यही नहीं, ऑनलाइन शिक्षा के इस दौर में नेटवर्क, मोबाइल चार्ज, डाटा पैक से लेकर मोबाइल सेट की अनुपलब्धता जैसी बुनियादी समस्याओं ने व्यापक आबादी को शिक्षा के दायरे से बाहर कर दिया है। ऑनलाइन प्लेट्फॉर्म्स तकनीकी तौर पर चाहे जितने भी उन्नत हों, वे नियमित स्कूली शिक्षा के विकल्प कतई नहीं हो सकते। बच्चों की अनदेखी करके हम और हमारा समाज आगे नहीं बढ़ सकता है। ये बातें राइट टू एजुकेशन फोरम द्वारा जारी शिक्षा-विमर्श के तहत वेब-संवाद की पांचवी कड़ी में “कोविड-19 संकट : 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के अधिकार व चुनौतियाँ” विषय पर वक्ताओं ने कहीं।

इस वेब-संवाद को प्रो. (एमेरिटस) विनीता कौल, अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली; प्रो रेखा शर्मा सेन, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू); और सुनीषा आहूजा, शिक्षा विशेषज्ञ (अर्ली चाइल्डहुड एंड केयर) यूनिसेफ ने संबोधित किया। एलायंस फॉर राइट टू ईसीडी की संयोजक एवं 6 साल से कम उम्र के बच्चों की शिक्षा-स्वास्थ्य-पोषण पर एक समग्र दृष्टि के साथ बतौर विशेषज्ञ लंबे समय से कार्यरत, सुमित्रा मिश्रा ने पूरे विमर्श में सूत्रधार की भूमिका निभाते हुए अंत में एक बेहतरीन सार-टिप्पणी प्रस्तुत की।  

प्रो विनीता कौल ने कहा, “आज ऑनलाइन शिक्षा की बात ज़ोर-शोर से हो रही है हैरत ये है कि अत्यंत छोटे बच्चों, यहाँ तक कि डेढ़ साल के बच्चों के लिए भी ऑनलाइन शिक्षा की वकालत की जा रही है जबकि इस डिजिटल कवायद ने अभिभावकों को काफी दबाव में ला दिया है। नेटवर्क, मोबाइल चार्ज, डाटा पैक से लेकर मोबाइल सेट की अनुपलब्धता जैसी बुनियादी समस्याओं ने व्यापक आबादी को शिक्षा के इस प्लेटफ़ार्म से बाहर कर दिया है।“

उन्होंने चिंता जताते हुए कहा कि ऑनलाइन शिक्षा की बात मान भी ली जाये, तो क्या सिर्फ शिक्षा से बच्चों का सामाजिक, शारीरिक, मानसिक विकास सम्भव होगा? घरों में बढ़ते घरेलू हिंसा के मामले भी बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं, इसलिए घर में भी एक सामाजिक-संवेदनशील वातावरण बनाए रखने की जरूरत है।

अपने संबोधन में यूनिसेफ की प्रतिनिधि एवं बाल्यावस्था के दौरान शिक्षा एवं देखभाल की विशेषज्ञ सुनीषा आहूजा ने कोविड से उपजे वैश्विक संकट का जिक्र करते हुए कहा कि आज की मुश्किल घड़ी में हम 6 वर्ष से कम उम्र के उन नौनिहालों के अधिकारों पर बात कर रहे हैं जो हमारे देश का भविष्य हैं। कोविड – 19 के बारे में जानकारी देने तथा सतर्कता बरतने के लिए यूनिसेफ और सरकार के बातचीत के बाद एक कार्य योजना बनाई गई। ये सहमति बनी कि आँगनवाड़ी तथा आशा कार्यकर्ता घरों तक पहुँच में अहम भूमिका निभा सकते हैं। इसके लिए ऑनलाइन प्रशिक्षण के जरिये मुख्य रुप से कोरोना-संक्रमित मरीजों की पहचान तथा बचाव से संबन्धित कुछ बुनियादी बातें बताईं गईं। उनके माध्यम से घर-घर तक राशन पहुंचाने की व्यवस्था भी की गई है। 

सुश्री आहूजा ने चिंता जताते हुए कहा, “अभी आँगन वाड़ी सेवाएँ लगभग पूरी तरह बन्द हैं। ग्रोथ मोनिटरिंग नहीं होने के कारण कुपोषित और अतिकुपोषित बच्चे प्रभावित हो रहे हैं। आंगनवाड़ी केन्द्रों का संचालन कब से शुरू होगा कहा नहीं जा सकता। लेकिन पहले टीकाकरण, ग्रोथ मोनिटरिंग का काम शुरू किया जाए, उसके बाद ही सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को शुरू करना उचित होगा।“

इग्नू विश्वविद्यालय की प्रो. रेखा शर्मा सेन ने कहा, “ऑनलाइन शिक्षा और दूरस्थ शिक्षा के फर्क को समझने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि ऑनलाइन प्लेट्फॉर्म्स तकनीकी तौर पर चाहे जितने भी उन्नत हों, वे नियमित स्कूली शिक्षा के विकल्प कतई नहीं हो सकते। एकतरफा संवाद ज्ञान साझा करने के मूल उद्देश्यों, सृजन और सीखने –सिखाने की प्रक्रिया को ही बाधित कर देता है। और 6 साल से छोटे बच्चों के लिए तो ये पूरी प्रक्रिया बेहद तकलीफदेह और उबाऊ हो जाएगी जो उनके शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डालेगा।” 

सुमित्रा मिश्रा, संयोजक, अलाइन्स फॉर राइट टू ईसीडी ने कहा, “कोविड-19 महामारी के दौरान 6 वर्ष के बच्चों का सर्वांगीण विकास बाधित न हो, इस पर बात करनी जरूरी है। बच्चों के भविष्य निर्माण की बुनियाद इसी उम्र में रखी जाती है। मार्च में घोषित लॉकडाउन से लेकर अब तक सरकार के द्वारा बहुत सारी घोषणाएँ तो की गईं, लेकिन इस उम्र के बच्चों को केंद्र में रखकर कुछ भी नहीं किया गया। ऐसे बच्चों की अनदेखी करके हम और हमारा समाज आगे नहीं बढ़ सकता है। उन्होंने निराशा जाहिर करते हुए कहा कि मीलों माँ–बाप के साथ पैदल चलते बच्चे, सूटकेस पर सोते हुए बच्चे, रास्ते में बच्चे का जन्म लेना, मृत मां के आंचल खींचते बच्चे जैसे दारुण दृश्य वाली घटनाएं भला कैसे किसी भी सभ्य समाज की पहचान हो सकती हैं। हमें सरकार की जवाबदेही और सामाजिक जिम्मेदारियों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।”

वेबिनार की शुरुआत में सभी प्रतिभागियों का स्वागत करते हुए राइट टू एजुकेशन फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अम्बरीष राय ने कहा कि आज हम 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के शिक्षा और अधिकार पर बाते करेंगे। इस उम्र तक बच्चों के मस्तिष्क का 75 प्रतिशत विकास हो जाता है। इसलिए बच्चों की दृष्टि से प्रारम्भिक बाल्यावस्था देख-रेख एवं शिक्षा महत्वपूर्ण हो जाती है। नई शिक्षा नीति के मसौदे में भी इसे महत्वपूर्ण रूप से जगह दी गई है। लेकिन वह अंतिम रूप में किस तरह सामने आएगा ये देखना बाकी है।

(प्रेस विज्ञप्ति पर आधारित।)

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