Sunday, April 28, 2024

सीईसी की नियुक्ति के लिए बने कानून और तीन नए क्रिमिनल लॉ को सुप्रीम कोर्ट में मिली चुनौती

सुप्रीम कोर्ट में हाल ही में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर बने नए कानून को चुनौती दी गई है। सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई, जिसमें मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक तटस्थ और स्वतंत्र चयन समिति की गठन करने की बात कही गई है। इसके अलावा  संसद में पास हुए तीन नए क्रिमिनल लॉ के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की गई है।

जनहित याचिका में मुख्य चुनाव आयुक्त और इलेक्शन कमिश्नर की नियुक्ति के लिए केंद्र द्वारा 28 दिसंबर 2023 को जारी राजपत्र को रद्द करने का निर्देश देने की मांग की गई है। अधिवक्ता गोपाल सिंह ने यह याचिका दायर की है। जनहित याचिका में मुख्य चुनाव आयुक्त और इलेक्शन कमिश्नर की नियुक्ति के लिए केंद्र द्वारा 28 दिसंबर, 2023 को जारी राजपत्र को रद्द करने का निर्देश देने की मांग की गई है।

वहीं, कोर्ट में याचिका दायर कर नियुक्तियों में देश के मुख्य न्यायाधीश को पैनल में शामिल करने की मांग की गई है। वहीं, याचिका में यह भी कहा गया कि मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए चयन समिति में भारत के मुख्य न्यायाधीश को शामिल किया जाए। अधिवक्ता गोपाल सिंह ने यह याचिका दायर की है।

21 दिसंबर को लोकसभा ने मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति और सेवा शर्तों को विनियमित करने के लिए एक विधेयक पारित किया। कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने कहा कि यह कानून सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद लाया गया है। इसके बाद 28 दिसंबर को राष्ट्रपति ने मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और कार्यालय की अवधि) विधेयक 2023 को मंजूरी दे दी थी।

गौरतलब है कि संशोधित कानून में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) को सेलेक्शन पैनल से हटा दिया गया और इसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता विपक्ष और प्रधानमंत्री द्वारा नामित एक कैबिनेट मंत्री कर दिया गया।

याचिका में दलील दी गई है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त अधिनियम, 2023 के प्रावधान अनूप बरनवाल मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन करते हैं।

याचिका में कहा गया है कि अधिनियमन के प्रावधान, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं क्योंकि यह ईसीआई के सदस्यों की नियुक्ति के लिए “स्वतंत्र तंत्र” प्रदान नहीं करता है। यह भी तर्क दिया गया है कि कानून अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन है क्योंकि यह भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) को भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) के सदस्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया से बाहर रखता है।

मार्च 2023 के फैसले में, सुप्रीमकोर्ट ने आदेश दिया था कि ईसीआई के सदस्यों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, सीजेआई और लोकसभा में विपक्ष के नेता की एक समिति की सलाह पर की जाए, “जब तक कि संसद द्वारा कानून नहीं बनाया जाता है”।

याचिका में कहा गया है कि सीजेआई को प्रक्रिया से बाहर रखने से सुप्रीम कोर्ट का फैसला कमजोर हो जाता है क्योंकि नियुक्तियों में प्रधानमंत्री और उनके द्वारा नामित व्यक्ति हमेशा ‘निर्णायक कारक’ होंगे।

याचिका में विशेष रूप से मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और कार्यालय की अवधि) अधिनियम, 2023 की धारा 7 और 8 को चुनौती दी गई है। प्रावधान ईसीआई सदस्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया को कानून बनाते हैं।

तीन आपराधिक कानून संशोधन को चुनौती

तीन नए आपराधिक कानून संशोधन अधिनियमों – भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की गई है।

भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम क्रमशः भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह लेंगे।

ये तीनों कानून भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में आमूलचूल बदलाव लाना चाहते हैं और 25 दिसंबर को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने से पहले पिछले साल संसद ने इसे शीतकालीन सत्र में पारित किया था। इस घटनाक्रम को राष्ट्रपति भवन की वेबसाइट पर अधिसूचित किया गया था, लेकिन इसे अभी तक भारत के राजपत्र में प्रकाशित नहीं किया गया है क्योंकि नियम अभी तक तैयार नहीं किए गए हैं। इसलिए, तीनों कानून अभी तक लागू नहीं हुए हैं।

विशाल तिवारी की याचिका में जोर देकर कहा गया है कि कानून कई दोषों और विसंगतियों से ग्रस्त हैं और विधि आयोग की सिफारिशों की अनदेखी करते हैं। याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया “तीनों आपराधिक कानून बिना किसी संसदीय बहस के पारित और अधिनियमित किए गए क्योंकि दुर्भाग्य से इस अवधि के दौरान अधिकांश सदस्य निलंबित थे.. इन प्रस्तावित विधेयकों का शीर्षक क़ानून और उसके मकसद के बारे में बात नहीं करता है, लेकिन अधिनियमों के वर्तमान नाम प्रकृति में अस्पष्ट हैं।

याचिका में कहा गया है कि भारतीय न्याय संहिता 1860 के अधिकतर अपराधों को बरकरार रखती है और नए सीआरपीसी से पुलिस हिरासत की अवधि के दौरान जमानत मिलना मुश्किल हो जाएगा।

तीनों कानूनों को पहली बार 11 अगस्त, 2023 को लोकसभा में पेश किया गया था, जिसके बाद इन्हें आगे की जांच के लिए बृजलाल की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति के पास भेज दिया गया था। इन्हें अंतत: 20 दिसंबर को लोकसभा ने पारित किया था और 21 दिसंबर को राज्यसभा ने इन्हें पारित किया था।

याचिकाकर्ता ने सवोच्‍च अदालत से अपील की है कि देश में ब्रिटिश राज खत्‍म हो चुका है। तीन नए कानून इतने कठोर हैं कि इससे पुलिस राज स्‍थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। याचिका में दावा किया गया है कि इन तीन नये कानूनों में कई ‘खामियां और विसंगतियां’ हैं।

याचिका में कहा गया कि इन्हें बिना किसी संसदीय बहस के पारित किया गया, क्योंकि अधिकांश विपक्षी सदस्य निलंबित थे। याचिका में अदालत से तीन नए आपराधिक कानूनों की व्यवहार्यता का आकलन करने के लिए तुरंत एक विशेषज्ञ समिति गठित करने का निर्देश देने की मांग की है।

याचिका में कहा गया है, ‘‘नए आपराधिक कानून काफी कठोर हैं, जो असल में पुलिस राज को स्थापित करते हैं और भारत के लोगों के मौलिक अधिकारों के हर प्रावधान का उल्लंघन करते हैं। यदि ब्रिटिश कानूनों को औपनिवेशिक और कठोर माना जाता था, तो भारतीय कानून अब ब्रिटिश काल की तुलना में कहीं अधिक कठोर है।

याचिका में कहा गया है कि ब्रिटिश काल में आप किसी व्यक्ति को अधिकतम 15 दिनों तक पुलिस हिरासत में रख सकते थे। 15 दिनों से लेकर 90 दिनों और फिर इससे अधिक अवधि तक इसे बढ़ाया जा सकता है। पुलिस को प्रताड़ित करने में समर्थ बनाने वाला यह स्तब्ध करने वाला प्रावधान है।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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