Thursday, June 8, 2023

बंदरों और सूअरों के चलते उत्तराखंड के लोगों का जीना हुआ दुश्वार

मतदान से दो दिन पहले ही सही, भारतीय जनता पार्टी ने भी उत्तराखंड चुनाव के लिए अपना दृष्टि-पत्र जारी कर दिया है। कांग्रेस करीब एक हफ्ते पहले ही प्रतिज्ञा पत्र के नाम से अपना घोषणा पत्र जारी कर चुकी थी। दोनों पार्टियों के घोषणा पत्रों में एक बड़ा अंतर यह है कि कांग्रेस का घोषणा पत्र जहां बेहद गंभीर है, वहीं भाजपा का घोषणापत्र बेहद सतही तौर पर तैयार किया गया है। कांग्रेस के घोषणापत्र में कई ऐसे वायदे किये गये हैं, जिन्हें अमली जामा पहनाना व्यावहारिक नहीं है। दूसरी तरफ भाजपा का घोषणा पत्र लव जेहाद और लैंड जेहाद जैसे पार्टी के प्रिय शब्दों से सुसज्जित है। दोनों ही पार्टियों के घोषणा पत्र पहाड़ की उस सबसे बड़ी समस्या पर मौन हैं, जिसका सामना आज पहाड़ का एक-एक व्यक्ति कर रहा है और वह समस्या है बंदरों और सूअरों की।

उत्तर प्रदेश में जिस प्रकार से आवारा सांड और गायें फसलों को चौपट कर रहे हैं, ठीक वही हालात उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में बंदर और जंगली सूअरों ने पैदा कर रखी है। गायें और सांड कम से कम घरों के दरवाजे खोलकर अंदर नहीं घुसते और फ्रिज खोलकर उसमें रखी खाने-पीने की चीजें चट नहीं करते, लेकिन पहाड़ों में बंदर यह सब भी कर रहे हैं। उत्तराखंड में पलायन का बार-बार जिक्र होता है। राज्य में एक पलायन आयोग भी है। यह आयोग पलायन संबंधी रिपोर्ट जारी करता है और बाकायदा पलायन के कारण भी बताता है। पिछली रिपोर्ट में पलायन आयोग ने स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे मसलों को राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन का प्रमुख कारण माना है। लेकिन, जनचौक को रुद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि, चमोली के कर्णप्रयाग और पौड़ी जिले के श्रीनगर में कई ऐसे लोग मिले, जिन्होंने बंदरों के कारण गांव से पलायन किया है। इन लोगों का कहना है कि गांव में रहकर जब हम खेतों से कुछ उगा ही नहीं सकते, तो फिर वहां रहने का कोई औचित्य नहीं है।

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उत्तराखंड चुनाव के लिए बीजेपी का मैनिफेस्टो।

अगस्त्यमुनि में चाय की छोटी सी टिपरी चला रहे वीरेन्द्र का कहना है कि गांव में उनके पास खेती-बाड़ी भी है। पहले खेतों में गुजारे लायक अनाज पैदा हो जाता था और हर सीजन में सब्जियां भी होती थी। लेकिन अब खेतों में फसल उगते ही बंदर उखाड़कर खा जाते हैं। खेतों में कुछ नहीं उगता। घर के आसपास छोटी-छोटी क्यारियों में अपने खाने लायक सब्जियां भी उग जाती थी। लेकिन, बंदर घरों तक पहुंच गये हैं, सब्जियां भी उखाड़ लेते हैं। वीरेन्द्र कहते हैं कि बंदर पहले कुछ ही तरह की सब्जियों और फसलों को खाते थे, लेकिन अब कुछ भी नहीं छोड़ते, ऐसे में इस बात की संभावना पूरी तरह खत्म हो गई है कि जो चीजें बंदर नहीं खाते उन्हें उगाया जाए।

रामचंद्र सिंह गांव में खेती-बाड़ी छोड़कर कर्णप्रयाग में रह रहे हैं। वे कहते हैं कि खेतों में बंदर एक दाना तक नहीं उगने देते। बंदरों के डर से बच्चों का स्कूल जाना और अकेले घर से बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया है। मौका मिलते ही बंदर बच्चों पर झपट पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में गांव में रहना अब किसी भी हालत में संभव नहीं है। वे यह भी जोड़ते हैं कि यदि दिन-भर खेतों की रखवाली करके बंदरों से किसी तरह फसलों को बचा भी लें, तो रात को सूअरों से बचाना किसी भी हाल में संभव नहीं है। जंगली सूअर पहले भी खेतों में घुसते थे, लेकिन पहले ऐसा कभी-कभार ही होता था। अब जंगली सूअरों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि वे रात ही नहीं दिन में भी खेतों के आसपास नजर आने लगे हैं।

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घूमता हुआ बंदर।

दोनों बड़ी पार्टियां बंदरों और सूअरों को लेकर किसी कार्य योजना पर काम करने के मामले में बेशक चुप्पी साधे हुए हों, लेकिन उम्मीदवारों को अपने चुनाव प्रचार के दौरान लगातार इस मामले में आम लोगों के तीखे सवालों का सामना करना पड़ रहा है। केदारनाथ विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस उम्मीदवार और निवर्तमान विधायक मनोज रावत कहते हैं कि ऐसा कोई दिन नहीं होता, जबकि दो-चार बार उन्हें बंदर और सूअरों से संबंधित सवालों का सामना न करना पड़ता हो। मनोज रावत कहते हैं कि पहाड़ों में खेती से लोगों का मोहभंग होने का सबसे बड़ा कारण बंदर, सूअर और अन्य जंगली जानवर ही हैं। वे कहते हैं कि वे लगातार इस मसले को उठाते रहे हैं। एक बार गैरसैंण विधानसभा सत्र के दौरान उन्होंने इस मसले को लेकर अगत्स्यमुनि से गैरसैंण तक साइकिल यात्रा की थी। इतना ही नहीं तीन या चार बार वे विधानसभा में नियम 58 के तहत इस मसले का उठा चुके हैं, लेकिन सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं दिया गया है। वे कहते हैं कि देहरादून में वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट और पंतनगर में कृषि विश्वविद्यालय होने के बावजूद इस समस्या के निपटने के लिए सरकार की ओर से आज तक कोई सुझाव इस संस्थानों से नहीं मांगा गया है।

रुद्रप्रयाग विधानसभा क्षेत्र से उत्तराखंड क्रांति दल के टिकट पर चुनाव लड़ रहे मोहित डिमरी भी इस मसले को लेकर लगातार लोगों को आश्वासन दे रहे हैं। मोहित कहते हैं कि उनके विधानसभा क्षेत्र में महिलाओं के लिए सूअर और बंदर सबसे बड़ा मसला हैं। वे जिस भी गांव में जाते हैं महिलाएं सबसे पहले यही कहती हैं कि वे वोट तभी देंगी, जब सूअर और बंदरों का इलाज करोगे। वे कहते हैं कि यह समस्या पहाड़ के लिए नई नहीं है, हालांकि पिछले कुछ सालों में समस्या काफी गंभीर हो गई है और बंदर खेतों से निकलकर अब लोगों के घरों तक पहुंच गये हैं।

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उत्तराखंड कांग्रेस का मैनिफेस्टो।

श्रीनगर गढ़वाल विधानसभा सीट से युवाओं की एक टीम ने सोशल यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया (कम्युनिस्ट) पार्टी के बैनर तले अपना उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारा है। इस टीम में शामिल 8-10 युवा रोज सुबह चुनाव प्रचार पर निकलते हैं और देर शाम लौटते हैं। इस टीम का मुख्य मुद्दा ही खेतों को बंदरों और सूअरों से बचाना है। युवाओं की इस टीम को लीड कर रही गढ़वाल विश्वविद्यालय की छात्रा रेशमा पंवार कहती हैं “पहाड़ों की बर्बादी के दो प्रमुख कारण हैं, पहला नशा और दूसरा बंदर-सूअर।” रेशमा कहती हैं कि उनका चुनाव प्रचार इन्हीं दो मसलों पर केन्द्रित है। वे कहती हैं “गांवों के लोग बड़ी संख्या में कस्बों और शहरों में आ गये हैं, जहां उनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं है और इस सबका प्रमुख कारण बंदर और सूअर ही हैं। खेतों में कुछ पैदा नहीं हो रहा है, ऐसे में लोग इस उम्मीद के साथ कस्बों में आ रहे हैं कि वहां रहकर छोटा-मोटा कोई काम कर लेंगे।”

इतना सब होने के बाद भी उत्तराखंड में बारी-बारी से शासन करने वाली भाजपा और कांग्रेस के घोषणा पत्र इस मुद्दे पर मौन हैं। दोनों दलों के घोषणा पत्रों की प्रमुख बातों पर नजर डालें तो साफ होता है कि कांग्रेस ने घोषणापत्र तैयार करने में खासी मेहनत की है। हालांकि वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट मानते हैं कि कांग्रेस के घोषणा पत्र में कई ऐसी बातें हैं, जिन पर अमल करना किसी भी हालत में व्यावहारिक नहीं है। वे कहते हैं “घोषणापत्र तैयार करते समय कांग्रेस ये भूल गई है कि उसने भी राज्य में 10 वर्ष तक शासन किया है।” हालांकि वे यह भी कहते हैं कि “कांग्रेस का घोषणा पत्र यह तो साफ करता ही है कि इस पार्टी को बीमारी के बारे में जानकारी है। यह बात अलग है कि निदान के बारे में कोई ठोस आश्वासन यह घोषणा पत्र नहीं देता है।”

बीजेपी के दृष्टि-पत्र की बात करें तो यह बंदर-सूअर ही नहीं, राज्य के अन्य तमाम बड़ी समस्याओं पर भी कोई बात नहीं करता। यहां तक कि इस बार पार्टी ने लोकायुक्त का मसला भी छोड़ दिया है। इस दृष्टि पत्र में बीजेपी के मनपसंद विषय लवजेहाद को जरूर प्रमुखता के साथ शामिल किया गया है। देहरादून में वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत कहते हैं “यह बेहद हास्यास्पद है।  जिस समुदाय के खिलाफ यह प्रपंच गढ़ा गया है, उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में उस समुदाय की मौजूदगी ना के बराबर है। इस तरह का कोई मामला अब तक पहाड़ में सामने आया भी नहीं है, लेकिन भाजपा ने अन्य तमाम समस्याओं को छोड़कर लव जेहाद को प्रमुखता से अपने घोषणा पत्र में जगह दी है। इसका सीधा अर्थ यह है कि भाजपा आगे भी असली मुद्दों के बजाय जबरन खड़े किये गये आभासी मुद्दों पर ही राज्य की सत्ता में वापसी करने के प्रयास में है।”

कुल मिलाकर इन चुनावों में भाजपा के लिए लव जेहाद व लैंड जेहाद और कांग्रेस के लिए लोकायुक्त और अन्य तमाम बड़े मसले हों, लेकिन अब भी खेती-बाड़ी से आस लगाये आम पहाड़ी जनमानस के लिए बंदर और सूअर प्रमुख समस्या बने हुए हैं। केदारनाथ घाटी के बसुकेदार में सेवानिवृत्त अध्यापिका राजेश्वरी सेमवाल कहती “गांव में बंदर पहले भी थे और फसलों को पहले भी नुकसान पहुंचाते थे। लेकिन, पहले हर परिवार बारी-बारी पूरे गांव के खेतों की रखवाली करता था। एक या दो लोग बंदरों को भगा देते थे। लेकिन, अब चारों तरफ बंदर हैं। कोई बंदरों को भगाने की कोशिश करता है तो बंदर काट खाने को दौड़ते हैं। कई बार छोटे बच्चों को नुकसान भी पहुंचाते हैं। ऐसे में लोगों ने बंदरों को भगाना छोड़ दिया है। खेतों में कुछ नहीं मिल रहा है तो बंदर घरों के दरवाजे खोलकर घर में रखा राशन और सब्जियां तक चट कर रहे हैं। फ्रिज तक खोल देते हैं। हर समय घरों के दरवाजे बंद रखने पड़ते हैं। वे कहती हैं कि लव जेहाद नहीं, फिलहाल पहाड़ों में बंदर जेहाद चलाने की जरूरत है। जब तक बंदर जेहाद नहीं चलाया जाता, तब तक पहाड़ों को बर्बाद होने से नहीं बचाया जा सकता।  वे कहती हैं जिसकी भी सरकार आये, सबसे पहले बंदरों और सूअरों की समस्या से निपटने के प्रयास किये जाने चाहिए।”

(त्रिलोचन भट्ट स्वतंत्र पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)

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