ख़ास रिपोर्ट: अपनी भाषा में अपनी बात यानि असुरों का अपना रेडियो!

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‘नोआ हाके असुर अखड़ा रीडियो, एनेगाबु डेगाबु सिरिंगेयाबु दाहां-दाहां तुर्रर….धानतींग नातांग तुरू…।’ लातेहार व गुमला जिले के हर साप्ताहिक बाजार में ढोल-मांदर और दूसरे वाद्य यंत्रों से एक शानदार संगीत के साथ कुछ महिलाओं की सामूहिक आवाज लोगों को अपनी ओर खींचती है। इसका मतलब होता है ‘यह है असुर अखड़ा रेडियो, नाचेंगे…खेलेंगे…गाएंगे…।’ इसके साथ ही शुरू होता है मोबाइल रेडियो का प्रसारण। उसके बाद असुर भाषा में शुरू होता है पुरखा कहानी।

पुरखा कहानी की समाप्ति के बाद पुन: ‘नोआ हाके असुर अखड़ा रीडियो एनेगाबु डेगाबु सिरिंगेयाबु दाहां-दाहां तुर्रर….धानतींग नातांग तुरू…’ और शुरू होता है नाया गीत, पुरना गीत, वार्तालाप, समाचार एवं सरकारी योजनाओं की जानकारी देने का काम। पुरखा कहानी के तहत असुर जनजाति के पूर्वजों के बारे में, संस्कृति के बारे में जानकारी दी जाती है।

भारत में शायद यह पहली बार है कि किसी हाट-बाजार में ओपेन रूप से रेडियो का अनोखा प्रसारण। यह रेडियो का प्रसारण शुरू किया है विलुप्त प्राय हो रही असुर जनजाति समुदाय के लोगों ने अपना रेडियो, अपनी भाषा में। असुर अखड़ा रेडियो की शुरुआत हुई 19 जनवरी, 2020 रविवार को गुमला जिले के घाघरा प्रखंड व चैनपुर प्रखंड के कोटेया के साप्ताहिक बाजार से। जिले के विशुनपुर प्रखंड के सखुआपानी गांव की सुषमा असुर, अजय असुर, विवेकानंद असुर एवं जोभीपाट गांव के मिलन असुर व रोशनी असुर की टीम ने इसे अमलीजामा पहनाया, जो लगातार जारी है। बताते चलें कि झारखंड के गुमला व लातेहार जिले के विभिन्न क्षेत्रों में बसती हैं असुर जनजाति। विलुप्त प्राय हो रही असुर जनजाति की जनसंख्या पूरे झारखंड में लगभग 8 हजार है।

इस बाबत अश्विनी कुमार पंकज बताते हैं झारखण्ड में लगभग 32 आदिवासी समुदाय हैं, जिसमें से 8 आदिवासी समुदाय धीरे-धीरे हाशिये के बाहर जा रहे हैं, यानी वो ख़तरे में हैं, जिन्हें आदिम जनजाति की संज्ञा दी गई है, जिनमें से एक असुर समुदाय है। झारखंड में इनकी संख्या लगभग 8000 के क़रीब है। असुर भाषा पर अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं कि भाषा के विलुप्तीकरण का मतलब होता है कि जिस समुदाय की भाषा ख़तरे में है, उस समुदाय की आजीविका से लेकर अर्थव्यवस्था, सामाजिक ताना-बाना, राजनीति, सब खतरे में है। सबसे बड़ा ख़तरा इनकी जमीन और इनकी विरासत का है।

वे कहते हैं कि असुर प्रकृति-पूजक होते हैं। ‘सिंगबोंगा’ उनके प्रमुख देवता हैं। ‘सड़सी कुटासी’ इनका प्रमुख पर्व है, जिसमें ये अपने औजारों और लोहे गलाने वाली भट्टियों की पूजा करते हैं। असुर महिषासुर को अपना पूर्वज मानते हैं। हिन्दू धर्म में महिषासुर को एक राक्षस (असुर) के रूप में दिखाया गया है, जिसकी हत्या दुर्गा ने की थी। पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में दुर्गा पूजा के दौरान असुर समुदाय के लोग शोक मनाते हैं।

समझा जाता है कि असुरों ने ही दुनिया को लोहा गलाने की तकनीक सिखाई। इनके द्वारा गलाए और पॉलिश किए गए लोहे पर कभी जंग नहीं लगती है। मान्यता है कि कुतुबमीनार के पास स्थित लौह स्तंभ का लोहा भी इन्हीं असुरों ने बनाया था। कहा जाता है कि गुमला जिले में स्थित इस शिवलिंग का लोहा भी असुरों ने तैयार किया था। इस शिव मंदिर में सैकड़ों साल से रखे त्रिशूल पर आज तक जंग नहीं लगी है। वैसे आज भी यह समुदाय लोहा गलाने का काम करता है।

‘असुर अखड़ा रेडियो’ के उद्देश्य के बारे में ‘झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ की महासचिव, कवयित्री और लेखिका वंदना टेटे बताती हैं कि जब असुर जनजाति आज विलुप्त हो रही है, वैसे में उनकी भाषा पर संकट स्वाभाविक है। इसी संकट से उबरने की अवधारणा है ‘असुर अखड़ा रेडियो।’ वे बताती हैं कि प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन की इसमें मुख्य भूमिका है। जिसमें जोभीपाट के सेवानिवृत्त प्राचार्य चैत टोप्पो, घाघरा के प्रोफेसर महेश अगुस्टीन कुजूर जैसे लोगों ने इसकी रूपरेखा तैयार करने में मदद की है। उन्होंने बताया कि यूनेस्को द्वारा पिछले सालों में जारी वर्ल्ड स्पेसिफिक डेंजर लैंग्वेजेज की सूची में हमारी असुर भाषा भी शामिल है। वे कहती हैं कि हम किसी कीमत पर अपनी भाषा को मरते नहीं देख सकते।

बता दें कि इनकी भाषा पर यूनेस्को के वर्ल्ड स्पेसिफिक डेंजर लैंग्वेज के अनुसार इनकी भाषा डेंजर की कैटेगरी में रखी गयी है। मतलब इनकी भाषा विलुप्त हो चुकी श्रेणी में आती है। वे आगे कहती हैं कि भाषा व संस्कृति के सवाल के साथ-साथ हमारा मकसद है कि इस रेडियो के माध्यम से असुर समाज के लोगों तक देश की राजनीतिक-सामाजिक घटनाओं की जानकारी देना, राज्य की सरकारी याजनाओं की जानकारी देना, रोजगार की जाकारी देना, वगैरह वगैरह….। वे कहती हैं- असुर जनजाति लगभग पहाड़ों में बसती है, तथा वे तमाम तरह के सूचना तंत्र से महरूम हैं। अत: हमारा उद्देश्य देश-प्रदेश की आर्थिक-राजनीतक-सामाजिक सूचनाओं को उन तक पहुंचाना भी है।

असुर रेडियो की उद्घोषिका सुषमा असुर बताती हैं कि करीब आधे घंटे के प्रसारण के दौरान गीत के साथ कुछ संदेश, कुछ समाचार सहित अपनी भाषा और संस्कृति को बचाने की बातें जाती हैं। सुषमा असुर आगे बताती हैं कि इस कार्यक्रम में भारतीय फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान, पुणे के रंजीत उरांव द्वारा इसके तकनीकी पक्ष में सहयोग सहित कृष्ण मोहन सिंह मुंडा और अश्विनी कुमार पंकज द्वारा जरूरी सामान की व्यवस्था कराई गई है। वे बताती हैं कि हम अपने कार्यक्रम को सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर भी डालते हैं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक हमारे कार्यक्रम का मकसद पहुंच सके।

कार्यक्रम की रिकार्डिंग ‘कैसे और कहां की जाती है?’ के सवाल पर सुषमा असुर बताती हैं कि हम सारा कार्यक्रम मैदान में ही रिकार्ड करते हैं, तथा उसे पेनड्राइव में लेकर प्रसारण स्थल पर चलाते हैं। वे बताती हैं कि इस इलाके में गुरूवार, शनिवार और रविवार को विभिन्न स्थलों पर तीन दिवसीय हाट लगता है। हम इन्हीं साप्ताहिक हाटों में ‘असुर अखड़ा रेडियो’ का प्रसारण करते हैं। इन हाटों में मुर्गा, बकरा-सूअर, साग-सब्जियां, दाल-चावल, बीड़ी-सिगरेट, हड़िया ( चावल से बना एक तरह का पेय पदार्थ), टोकड़ियां, फल, बिंदी-चूड़ी, सिंदूर, लुंगी-साड़ी, खुरपी-कुल्हाड़ी, मूढ़ी-घुघनी, पाउडर-क्रीम, माश्चाराइजर-शैंपू- साबुन, चप्पलें, आयुर्वेदिक दवाएं और फलों की दुकानें लगती हैं। इन्हीं हाटों में ऑटो रिक्शा से साउंड सिस्टम पहुंचता है और जब भीड़ जमा होती है, तब पेन ड्राइव में रिकार्ड कर लाई गई साउंड क्लिप से प्रसारण शुरू होता है।

सुषमा असुर बताती हैं कि अभी हम दूसरा एपिसोड का प्रसारण कर रहे हैं, जिसमें रमेश ने न केवल असुर अखड़ा रेडियो के दूसरे एपिसोड का संचालन किया, बल्कि इसने उसका आलेख भी लिखा है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि रमेश मात्र 7वीं तक पढ़ा है और अभी यह दैनिक मजदूरी यानी कुली का काम करता है।

बता दें कि ASUR Adivasi Wisdom Documentation Initiative असुर आदिवासी विज़डम डॉक्यूमेंटेशन के नाम से फेसबुक पेज है जिस पर असुर आदिवासी मोबाइल रेडियो की जानकारी दी जाती है।

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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