बिहार के सरकारी स्कूलों पर रिपोर्ट: बच्चों की सिर्फ 20 फीसदी हाजिरी, 58 फीसदी शिक्षक ही ड्यूटी पर मिले

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पटना। बिहार में स्कूली शिक्षा प्रणाली की निराशाजनक स्थिति और कोविड संकट के बाद के प्रभाव पर प्रकाश डालते हुए 4 अगस्त को पटना में एक नयी सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की गयी है। इस रिपोर्ट का शीर्षक है- “बच्चे कहां चले गये हैं?” जनवरी-फरवरी 2023 में ‘जन जागरण शक्ति संगठन’ (जेजेएसएस) द्वारा बिहार के कटिहार और अररिया जिलों के 81 सरकारी प्राथमिक और उच्च-प्राथमिक स्कूलों के सर्वेक्षण पर यह रिपोर्ट आधारित है।

सर्वेक्षण के निष्कर्षों से एक गंभीर स्थिति का पता चलता है, कि सर्वेक्षण में शामिल कोई भी स्कूल ‘शिक्षा का अधिकार’ (आरटीई) अधिनियम के मानदंडों को पूरा नहीं करता है। इन स्कूलों में विद्यार्थियों की उपस्थिति आश्चर्यजनक रूप से कम है, सर्वेक्षण के दिन केवल 20 प्रतिशत बच्चे ही उपस्थित थे। इनमें से अधिकांश छात्र गरीब परिवारों और हाशिये पर रहने वाले समुदायों से आते हैं, जिससे शैक्षिक असमानताएं और बढ़ जाती हैं।

चिंता में डालने वाले सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक है स्कूली शिक्षा प्रणाली में शिक्षकों की भारी कमी। केवल 35 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालय और केवल 5 प्रतिशत उच्च-प्राथमिक विद्यालय ‘आरटीई अधिनियम’ के अनुसार प्रति 30 बच्चों पर एक शिक्षक के निर्धारित छात्र-शिक्षक अनुपात को पूरा करते हैं। इसके अलावा, सर्वेक्षण के दौरान, यह पाया गया कि नियुक्त शिक्षकों में से केवल 58 प्रतिशत ही ड्यूटी पर थे, जिससे सरकारी स्कूलों में शिक्षण कार्य में लगे लोगों की प्रतिबद्धता के बारे में गंभीर चिंताएं पैदा हुईं।

रिपोर्ट आर्थिक रूप से वंचित परिवारों को पाठ्यपुस्तकों और यूनिफॉर्म के स्थान पर खाते में पैसे देने, यानि ‘प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण’ (डीबीटी) योजना के प्रतिकूल प्रभावों पर भी प्रकाश डालती है। सीमित वित्तीय संसाधनों वाले कई गरीब परिवारों के समक्ष एक कठिन विकल्प चुनने की मजबूरी खड़ी हो जाती है, कि वे इन पैसों से आवश्यक पाठ्यपुस्तकें और यूनिफॉर्म खरीदें, या अपने को जिंदा रखने के लिए अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करें। परिणामस्वरूप, असंख्य बच्चे पाठ्यपुस्तकों या यूनिफॉर्म से महरूम रह जाते हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि लगभग सभी शिक्षक पाठ्यपुस्तकों के लिए ‘डीबीटी’ प्रणाली के खिलाफ हैं।

कोविड-19 संकट ने स्कूली शिक्षा प्रणाली को गंभीर धक्का पहुंचाया, जिससे छात्रों की पढ़ाई पर स्थायी दुष्प्रभाव पड़ा। सर्वेक्षण के अनुसार, अधिकांश शिक्षकों ने चिंता व्यक्त की कि पिछले साल जब स्कूल फिर से खुले तो कक्षा 1-5 तक के बच्चों की एक बड़ी संख्या पढ़ना और लिखना भूल गई थी। इस चिंताजनक स्थिति के बावजूद, इन परेशान छात्रों के सहयोग के लिए लगभग कोई उपाय नहीं किये गये।

इसके अलावा, यह रिपोर्ट सस्ते और गंदे ट्यूशन केंद्रों के बढ़ते प्रचलन पर भी चिंता जताती है जो सरकारी स्कूलों के लिए खतरा बनते जा रहे हैं और उनका विकल्प बनते जा रहे हैं। ऐसे ट्यूशन केंद्रों का अस्वास्थ्यकर वातावरण बच्चों की भलाई के लिए जोखिम पैदा करता है और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक उनकी पहुंच में बाधा उत्पन्न करता है।

इस संकट से निपटने के लिए अधिकारियों की ओर से तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। रिपोर्ट में ‘आरटीई अधिनियम’ के सख्त अनुपालन का सुझाव दिया गया है, जिसमें सभी स्कूलों में पर्याप्त छात्र-शिक्षक अनुपात सुनिश्चित करना शामिल है। इसके अलावा, मध्याह्न भोजन के साथ प्रतिदिन अंडे उपलब्ध कराने से उपस्थिति को प्रोत्साहित करने और छात्रों की पोषण स्थिति में सुधार करने में मदद मिल सकती है। सरकारी स्कूलों को बहाल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा, निजी ट्यूशन केंद्रों में छात्रों के पलायन को हतोत्साहित करने के लिए स्कूल के घंटों के दौरान ट्यूशन पर प्रतिबंध लगाना।

सर्वेक्षण रिपोर्ट बिहार की स्कूली शिक्षा प्रणाली पर तत्काल ध्यान देने और व्यापक सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करती है। यह रिपोर्ट अररिया जिले के सिकटी ब्लॉक के चरघरिया गांव में स्थित ‘उच्चतर माध्यमिक स्कूल, चरघरिया’ जैसे सफल मॉडलों पर प्रकाश डालती है, जो दर्शाता है कि सरकारी स्कूलों का पुनरुद्धार संभव है। केवल ठोस प्रयास और बच्चों की शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता के माध्यम से ही राज्य चुनौतियों पर काबू पाने और अपने नन्हे शिक्षार्थियों के लिए एक उज्जवल भविष्य बनाने की उम्मीद कर सकता है।

(‘फ्रंटलाइन’ से साभार, अनुवाद : शैलेश)

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