Saturday, April 20, 2024

सामाजिक न्याय: आज़ाद भारत में मनु के द्रोणाचार्य

मानव समाज में शोषण के अनेक रूप रहे हैं जिसमें अलग अलग तरीकों से एक इंसान दूसरे इंसान का शोषण करता रहा है। इन सब रूपों में मूलत: उत्पादन के साधनों और मानव श्रम से पैदा अतिरिक्त पर मिल्कियत की ही लड़ाई रही है।  दुनिया के लगभग सभी देशों में उनके बनने से पहले से ही, समाज के विकास के विभिन्न चरणों में कुछ लोगों ने मालकियत हथिया ली और बहुमत लोगों को उनके श्रम का उचित मोल दिए बिना ही कठोर श्रम में झोंक दिया। शोषकों ने कई तरह के हथकण्डे अपनाकर, जिसमें हिंसा और बल का प्रयोग मुख्य था, अपना शोषण बरकरार रखा। ज़ाहिर सी बात है कि शासकों ने अपनी सत्ता को न्यायोचित ठहराने के लिए शोषण की व्यवस्था को ही कुदरती और सामाजिक नियम घोषित किया और इसके इतर सोचने को भी अपराध ठहराया। इसके खिलाफ समय समय पर बगावतें भी हुई और बदलाव भी आए।

शोषण की व्यवस्था है जाति

हमारे देश में शोषण की ऐसी ही व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हथियार है जाति व्यवस्था,जो शोषितों को अपने उत्थान के अवसरों तथा साधनों से महरूम कर देती है । सदियों की जाति व्यवस्था ने जहां शोषित जातियों को आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़ा बनाया, वही जाति को धर्म और अलौकिक शक्ति से जोड़, इसके खिलाफ विरोध के स्वरों को भी शक्तिविहीन कर दिया। अपने दुःख दर्द से त्रस्त इंसान, इंसानी शोषण के खिलाफ तो लड़ने की सोच सकता है परन्तु जब शोषण का यह विधान ब्रह्मा जी ने रचा हो और उनके पुत्र मनु ने इसका पालन करने के लिए दंड संहिता बनाई हो तो इसका विरोध कैसा? इस मकड़जाल को जो हथियार तोड़ सकता था, उस शिक्षा से तो विशेष तौर पर दलितों और आदिवासियों को दूर ही रखा गया। केवल दूर ही नहीं रखा गया परन्तु कभी शम्बूक वध के जरिए आदर्श समाज (राम राज्य) में भी इसके पालन न करने वालों के खिलाफ हिंसा के हथियार को जायज ठहराया गया तो कभी एकलव्य का अंगूठा काटने के जरिए एकलव्य रुपी वंचित समाज के ऊपर ही इसको मानने की नैतिक जिम्मेवारी डाली गई। 

मनु स्मृति पर संविधान की विजय

हालांकि इसके बावजूद दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग ने समय समय पर न केवल जाति को चुनौती दी और मनु के विधान से भी टक्कर ली। इन लड़ाइयों का लम्बा और गौरवशाली इतिहास है और इन सभी लड़ाइयों की ही देन है आज़ाद भारत में हमारे संविधान में सामाजिक गैबराबरी को चिन्हित करना और इससे लड़ने के लिए सामाजिक तौर पर पिछड़े समुदायों के लिए विशेष प्रावधान किया जाना।

सबसे प्रमुख बात यह है कि आज़ाद भारत ने गैरबराबरी के मूल मनु की दंड संहिता को दरकिनार कर सब नागरिकों को समान देखने वाला कानून अपनाया।  हमारे देश के कानून की नज़र में सभी नागरिक चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का हो बराबर है। यह कोई छोटी बात नहीं थी, एक ऐसे देश में जहां सदियों तक इस ब्राह्मणवादी सोच को स्थापित करने के लिए काम किया गया हो, आज़ादी के बाद भी आरएसएस और इसके संगठनों ने मनु स्मृति को ही देश का कानून बनाने की वकालत की हो, वहां मनुस्मृति को जलाने वाले डॉ. बी. आर. आंबेडकर न केवल संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष बने बल्कि देश ने समानता का कानून अपनाया। परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि देश से जातिवाद ख़त्म हो गया या मनुवाद गए ज़माने की बात हो गई।

आज भी सक्रिय हैं द्रोणाचार्य 

मसलन, हमारे देश में संविधान की ताकत के चलते आज कोई भी दलित, आदिवासी या अन्य पिछड़ा वर्ग के छात्रों को किसी शिक्षण संस्थान में दाखिल होने से आधिकारिक तौर से नहीं रोक सकता, परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि वर्तमान में द्रोणाचार्य नहीं है। आज़ाद भारत में न केवल मनुवादी द्रोणाचार्य हैं बल्कि वह आज भी एकलव्य का अंगूठा लेकर उससे शिक्षा, विशेष तौर पर उच्च शिक्षा से, महरूम कर रहे हैं। यह बात अलग है कि उनका तरीका बदल गया है।

देश में लगातार बढ़ रही शिक्षा की कीमत इसी तरह का एक साधन है जो वंचित समुदायों के छात्रों का अंगूठा काटने का आजमाया तरीका है। परन्तु हम यहां इस पर चर्चा नहीं कर रहे है बल्कि उच्च शिक्षा विशेष तौर पर शोध छात्रों द्वारा सामना किए जाने वाले जातिवादी हथकंडों की बात कर रहें है। पिछले दिनों देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जहां तुलनात्मक तौर पर बाकियों से स्थिति बेहतर है, वहां से खबर आई कि पीएचडी में प्रवेश लेने के लिए छात्रों को मौखिक परीक्षा (viva voce) में बहुत कम अंक मिले और लिखित परीक्षा में अच्छे अंक आने के बावजूद आरक्षित समुदाय के छात्रों को प्रवेश नहीं मिल पाया। उच्च शिक्षा से  छात्रों को महरूम करने के लिए आज के द्रोणाचार्यों का यह नया तरीका है। 

समावेशी शिक्षा का उपहास उड़ाते उच्च शिक्षण संस्थान

आगे बढ़ने से पहले अगर हम भारत में उच्च शिक्षण संस्थानों में वंचित जातियों के छात्रों की संख्या पर सरसरी नज़र डालें तो पता चलेगा कि संविधानिक गारंटी होने के बावजूद कैसे मनुवाद और इसके वाहक अपना काम कर रहे हैं। संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में भारत के शिक्षा मंत्री ने जो आंकड़े पेश किये वो चौंकाने वाले थे। संसद में दो वामपंथी सांसदों एलामरम करीम और बिकास रंजन भटाचार्य ने केंद्रीय वित्त पोषित तकनीकी संस्थानों में छात्रों की संख्या के अनुपात के बारे में पूछा था। जवाब आया कि देश के लगभग 17 भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थानों (IIIT) में वर्ष 2017 से 2020 के दरम्यान पीएचडी के कुल छात्रों में से दलित केवल 9 और आदिवासी1.7 प्रतिशत थे।

लगभग यही हालत भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) में है जहां वर्ष 2017 से 2020 के बीच पीएचडी करने वाले कुल छात्रों की संख्या का केवल 9 प्रतिशत दलित, 2.1 आदिवासि और 8 प्रतिशत छात्र अन्य पिछड़ा वर्ग से है। हालात यह है कि आईआईटी (IIT) ग्वालियर, कांचीपुरम और कुर्नूल में पीएचडी में एक भी आदिवासी छात्र नहीं था। इसी तरह 31 राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (NIIT) में वर्ष 2017 से 2020 के दौरान पीएचडी छात्रों में से 10.5 दलित और 3.6 प्रतिशत आदिवासी हैं। यह उच्च शिक्षा के केवल कुछ उदाहरण है जहां दलित और आदिवासी छात्रों की संख्या उनके लिए आरक्षण की गारंटी 15 और 7.5 प्रतिशत से कहीं कम है। गौरतलब  है कि केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (आरक्षण और प्रवेश) अधिनियम 2006 लाया गया था, फिर भी उपरोक्त आंकड़ों से पता चलता है कि किस तरह केंद्रीय वित्त पोषित तकनीकी संस्थानों में इसकी धज्जियां उड़ाई जा रही है। 

उच्च शिक्षा से महरूम करने का नया हथियार बन रहा है वायवा

आरक्षण के प्रावधान होने के वावजूद उच्च शिक्षा से वंचित जातियों के छात्रों को महरूम करने के लिए वायवा का इस्तेमाल मुख्य तौर पर होता है। इसे बड़े ध्यान से समझने की जरुरत है कि किस तरह यह देश के विभिन्न उच्च शिक्षण संस्थानों में बेरोक-टोक और बिना किसी प्रतिरोध के जारी है। यह जेएनयू ही है जहां जनवादी आंदोलन होने के कारण यह नज़र में ही नहीं आता, बल्कि इसका विरोध भी होता है। हालांकि वायवा के मुद्दे पर देश में काफी चर्चा हुई है। इसमें भेदभाव होता है और पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर वंचित जातियों के छात्रों को लिखित परीक्षा में अच्छे अंक हासिल करने के वावजूद वायवा (मौखिक परीक्षा) में कम अंक दिए जाते हैं।

जेएनयू में तो इस मसले पर तीन कमेटियां गठित की गई हैं। पहली कमेटी 2012 में राजीव भट्ट के नेतृत्व में, दूसरी 2013 में एस. के. थोराट के नेतृत्व में और तीसरी 2016 में अब्दुल नफे के नेतृत्व में बनी। अब्दुल नफे कमेटी ने 2012 से 2015 के बीच दाखिले के रिकॉर्ड का अध्ययन करने के बाद सिफारिश दी कि वायवा के अंक 30 से घटाकर 15 कर देने चाहिए। इधर छात्र मौखिक परीक्षा के अंक घटाने के जरिए शोध में दाखिले की प्रक्रिया में ब्राह्मणवादी हस्तक्षेप को रोकने की लड़ाई लड़ रहे थे, उतने में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग बिलकुल ही विपरीत दिशा में जाते हुए एक तर्क विहीन नियम लेकर आया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (एमफिल/पीएचडी उपाधि प्रदान करने हेतु न्यूनतम मानदंड और प्रक्रिया) विनियम, 2016 (University Grant Commission (Minimum Standards and Procedure for award of MPhil./PhD. Degree) Regulation 2016 ) में शोध डिग्री में प्रवेश के लिए वायवा को 100 प्रतिशत वेटेज दी गई थी।

इसके लागू होने का मतलब था कि वायवा (viva) के जरिये अध्यापकों को खुली छूट। इस फैसले का चौतरफा विरोध हुआ। स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया इसके खिलाफ अदालत में गया और 1 अक्टूबर, 2018 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया एंड अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य में यूजीसी की अधिसूचना से इस प्रावधान को हटाने का आदेश दिया। इसके साथ ही आरक्षित श्रेणी के छात्रों के लिए लिखित परीक्षा में न्यूनतम अंकों में भी छूट देने के लिए यूजीसी को निर्देश दिए। यह एक बड़ी जीत थी, जिससे भविष्य में आने वाले खतरे को रोक दिया गया परन्तु वर्तमान में हो रहे अन्याय के खिलाफ भी लड़ना होगा। 

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों का खराब रिकॉर्ड 

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में से एक भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (Indian Institute of Technology) में हालात तो बिलकुल ही दयनीय है। विश्वविद्यालयों में सीटों की संख्या और आरक्षित श्रेणी की पीएचडी की संख्या पता होने से वायवा में होने वाले भेदभाव का पता तो चल जाता है परन्तु आईआईटी तो अलग ही दुनिया में चल रहे हैं जैसे उन पर भारत का संविधान लागू ही नहीं होता हो। पीएचडी में आवेदन आमंत्रित करने वाले विज्ञापनों में कभी भी यह संस्थान कुल पदों का आंकड़ा नहीं देते हैं।

परीक्षा के बाद अपनी मर्जी से छात्रों का प्रवेश करते हैं बिना यह बताये कि कितने छात्र किस सामाजिक श्रेणी से रखे गए हैं। सूचना के अधिकार से प्राप्त कुछ जानकारियों के आधार पर यह पता चला है कि इन संस्थानों में सामान्यत: आरक्षित श्रेणियों के लिए पदों से कहीं ज्यादा आवेदन आते हैं इसके बावजूद ज्यादातर संस्थानों में आरक्षित श्रेणियों में पीएचडी की सीटें खाली रखी जाती हैं। कारण सबको पता है और तरीका भी।  इसका कारण उपयुक्तछात्रों की कमी नहीं बल्कि इन संस्थानों के प्रबंधकों और अध्यापकों की ब्राह्मणवादी मानसिकता है जो वंचित जातियों के छात्रों को संस्थानों में प्रवेश से रोकते हैं। 

हमारे देश में आईआईटी में प्रवेश पाना बहुत ही महत्व रखता है। यह न केवल नौकरी पाने का प्रभावी माध्यम है बल्कि समाज में प्रतिष्ठा भी दिलाता है। इसके अतिरिक्त आईआईटी से निकल कर छात्र नीति निर्धारण की प्रक्रिया में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन शिक्षा मंत्रालय के वर्ष 2020 दिए गए रिकॉर्ड के अनुसार आईआईटी में कुल प्रवेश का क्रमशः  9%, 2.1% और का 23% ही एससी, एसटी और ओबीसी से था। ऐसे में भेदभावपूर्ण प्रक्रिया के जरिये वंचित जातियों के नौजवानों के लिए सामाजिक उन्नति की प्रक्रिया के दरवाजे ही बंद कर दिए जाते हैं।

सुधारने की जगह आरक्षण की अवहेलना को संस्थागत करने का प्रयास

संवैधानिक बाध्यता होने के बावजूद जाति के वर्चस्व को पुन: स्थापित करने का कोई भी मौका शासक वर्ग नहीं छोड़ता है। मौका मिलते ही नाना प्रकार से आरक्षण को लागू करने की जिम्मेवारी से सरकारी संस्थान बचने की कोशिश ही नहीं करते बल्कि उसी ब्राह्मणवादी सोच से इसे सही ठहराने का प्रयास भी करते है। उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के बावजूद वंचित समुदायों के छात्रों की नाम मात्र उपस्थिति सबके सामने आने के बाद सरकार ने आईआईटी में आरक्षण के कार्यान्वयन में सुधार के लिए एक विशेषज्ञ पैनल का गठन किया और आईआईटी दिल्ली के निदेशक इसके मुखिया बनाये गए। जनाब तो यह भूल ही गए कि उनकी क्या जिम्मेवारी लगाई गई है। इस कमेटी की पांच पन्ने की रिपोर्ट जो पूर्व के मानव संसाधन मंत्रालय और वर्तमान के शिक्षा मंत्रालय को तो सौंपी गई, परन्तु जनता के सामने नहीं लाई गई।

सूचना के अधिकार के तहत जब इसे हासिल किया गया तो पता चला कि कमेटी में तो अपने उद्देश्य से ही उल्टा काम किया है। इस कमेटी ने प्रस्ताव दिया है कि इन 23 संस्थानों को आरक्षण लागू करने से छूट दी जाये। मतलब कि अपनी कमी को दूर करने के बजाय कमेटी ने सुझाया कि आरक्षण ही ख़तम कर दिया जाये और इन संस्थानों में समाज के सभी तबकों का प्रतिनिधित्व संस्थानों के प्रबंधन के जिम्मे छोड़ दिया जाये। यह कितना हास्यपद और कुटिल प्रस्ताव है जब आरक्षण के ठोस प्रावधान होने के बावजूद दलित और आदिवासी छात्रों को इन संस्थानों में प्रवेश नहीं मिल रहा है इस कमेटी की सिफारिश लागू होने पर क्या होगा इसकी कल्पना करना कोई मुश्किल काम नहीं है। दर असल इस सिफारिश का आधार केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (शिक्षकों के संवर्ग में आरक्षण) अधिनियम 2019 (Central Educational Institutions (Reservation in Teachers’ Cadre) Act 2019) को बनाया गया है।

इस अधिनियम के नाम से जैसा प्रतीत होता ही है यह अधिनियम भी केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में अध्यापकों की नियुक्ति में आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए लाया गया था। लेकिन इस अधिनियम की धारा 4 “उत्कृष्ट संस्थानों, अनुसंधान संस्थानों, राष्ट्रीय और रणनीतिक महत्व के संस्थानों” और अल्पसंख्यक संस्थानों को आरक्षण प्रदान करने से छूट देती है। मायने कि इन संस्थानों में आरक्षण लागू नहीं होगा। वर्तमान में टाटा मौलिक अनुसंधान संस्थान, राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र, उत्तर-पूर्वी इंदिरा गांधी क्षेत्रीय स्वास्थ्य और चिकित्सा विज्ञान संस्थान, जवाहरलाल नेहरू उन्नत वैज्ञानिक अनुसंधान केंद्र, भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अंतरिक्ष भौतिकी प्रयोगशाला, भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान और होमी भाभा राष्ट्रीय संस्थान इस तरह के शिक्षण संस्थान हैं जिन्हें आरक्षण लागू करने से छूट प्राप्त है। जब रास्ता खुल ही गया तो उपरोक्त कमेटी ने भी सिफारिश की कि आईआईटी को केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (शिक्षकों के संवर्ग में आरक्षण) अधिनियम 2019 की अनुसूची में उल्लिखित “उत्कृष्ट संस्थानों” की सूची में जोड़ा जाना चाहिए।

मेरिट की बुर्जुआ अवधारणा

उपरोक्त सिफारिश कि आईआईटी को भी उत्कर्ष संस्थानों की सूची में शामिल कर आरक्षण से मुक्त कर दिया जाए। इसके पक्ष में तर्क मेरिट का है। इसका आधार है कि उत्कृष्टता को कायम रखने के लिए केवल उच्च जातियों के छात्र चाहिए और वंचित समुदायों के छात्र उत्कृष्टता को बनाये रखने में बाधक है। हमारे समाज में मान्यता है कि अगर आप उच्च जाति से हैं तो योग्य होंगे ही और इसके उलट शोषित जातियों के लोगों को अपनी योग्यता प्रमाणित करनी ही होगी। ऐसी मेरिट का तर्क सामंती बुर्जुआ सोच का परिणाम है। क्या केवल परीक्षा परिणाम में या वायवा में फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना ही मेरिट है? क्या मेरिट को सामाजिक और आर्थिक पृष्टभूमि से अलग कर देखा जा सकता है। दलित/आदिवासी छात्र जो, अपनी विपरीत सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों से लड़ते हुए उच्च शिक्षण संस्थानों के दरवाजे तक पहुंचे हैं तो यह अपने आप में उनके व्यक्तित्व की योग्यता का प्रमाण है।

अगर इसको दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जरा देखिये यह तथाकथित मेरिटवादी क्या उन परिस्थितयों में रह भी सकते हैं जिनका सामना दलित और आदिवासियों के बच्चे अपने जीवन के हर मोड़ पर करते है? इस प्रश्न पर हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय का एक बेहतरीन फैसला आया है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और ए. एस. बोपन्ना की बेंच ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नीट में आरक्षण के खिलाफ याचिका पर फैसला दिया है कि आरक्षण मेरिट के खिलाफ नहीं जाता है। शीर्ष अदालत ने कहा कि, “मेरिट की परिभाषा संकीर्ण नहीं हो सकती है। मेरिट का मतलब केवल यह नहीं हो सकता कि किसी प्रतियोगी परीक्षा में किसी ने कैसा प्रदर्शन किया है।

प्रतियोगी परीक्षाएं महज औपचारिक तौर पर अवसर की समानता प्रदान करने का काम करती हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं का काम बुनियादी क्षमता को मापना होता है ताकि मौजूद शैक्षणिक संसाधनों का बंटवारा किया जा सके। प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रदर्शन से किसी व्यक्ति की उत्कृष्टता, क्षमता और संभावना यानी एक्सीलेंस, कैपेबिलिटीज और पोटेंशियल का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। किसी व्यक्ति की उत्कृष्टता, क्षमता और संभावना व्यक्ति के जीवन में मिलने वाले अनुभव, ट्रेनिंग और उसके व्यक्तिगत चरित्र से बनती है। इन सब का आकलन एक प्रतियोगी परीक्षा से संभव नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि खुली प्रतियोगी परीक्षाओं में सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक फायदों की माप नहीं हो पाती है, जो किसी खास वर्ग की इन प्रतियोगी परीक्षाओं में मिलने वाली सफलता में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं।”

नॉट फाउंड सुटेबल (‘Not Found Suitable’ (NFS)

इसी तरह का एक औजार है नॉट फाउंड सुटेबल(‘Not Found Suitable’ (NFS)) उपयुक्त उम्मीदवार न मिलना जो सामान्यत: सरकारी नौकरिया में प्रयोग किया जाता है। सामान्य तौर पर देखा गया है कि सरकारी नौकरियों के लिए सामान्य श्रेणी में तो नियुक्तियां कर दी जाती हैं परन्तु आरक्षित श्रेणी में साक्षात्कार बोर्ड एनएफएस(NFS) घोषित कर देता है जिसके मायने है कि इस श्रेणी में आरक्षित सीटों के लिए योग्य उम्मीदवार ही नहीं मिले। ऐसा ही एक मामला हाल में चर्चा में रहा जब जी.बी. पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान (G.B. Pant Social Science Institute) में प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर एवं असिस्टेंट प्रोफेसर भर्ती में ओबीसी कोटे में नॉट फाउंड सुटेबल(Not Found Suitable (NFS)) घोषित कर दिया। ऐसे अनगिनत मामले हैं जब इस तरीके से दलितों, आदिवासी और अन्य पिछड़े वर्ग से पढ़े लिखे नौजवानों को उनके हक़ से महरूम किया जाता है। इस मनुवादी प्रक्रिया का परिणाम है कि आज़ादी के 75 वर्षों के बाद भी सरकारी नौकरियों में शोषित जातियों को उनकी जायज संविधानसम्मत हिस्सेदारी नहीं मिली है।

दि वायर (The Wire) की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के 13 आईआईएम में कुल 642 प्राध्यापकों में से केवल 4 दलित, 1 आदिवासी और 17 अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं। मानव संसाधन मंत्रालय की तरफ से जनवरी 2019 को लोकसभा में बताया गया था कि देश के 23 भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IIT) में कार्यरत कुल 6043 अध्यापकों में से 149 दलित और 23 आदिवासी हैं, मतलब अध्यापकों की कुल संख्या का केवल 3 प्रतिशत; जबकि इन दोनों श्रेणियों के लिए कुल मिलाकर 22.5 प्रतिशत पद आरक्षित हैं। यह है बराबरी के लिए संविधान के ठोस प्रावधानों से मनुवादियों का खिलवाड़। 

आगे का रास्ता

यह सर्वविदित तथ्य है कि मौखिक परीक्षा और इंटरव्यू में तुलनात्मक ज्यादा अंक प्रतिशत जाति आधारित पूर्वाग्रहों से भरे हमारे समाज में ज़्यादातर भेदभाव का कारण बनता है। हम जानते हैं कि लिखित अंक लाने के वावजूद वायवा में आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों को कम अंक दिए जाते हैं ताकि वह अंतिम सूची में सामान्य श्रेणी में न आ जाएं। इसी तरह की प्रक्रिया की बातें नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षा में इंटरव्यू के दौरान सामने आई हैं जब कम अंक दिए जाते हैं ताकि एससी/एसटी के प्रार्थियों को छोटे रैंक पर नौकरी मिले। हालांकि वायवा के ऊंचे अंक प्रतिशत पर, विशेष तौर पर शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए, न्यायालयों ने कड़ी टिप्पणी की है। लेकिन फिर भी हमारे देश के शिक्षण संस्थानों में यह आधुनिक द्रोणाचार्य बेखौफ अपना काम कर रहे हैं। 

जरुरत इस बात की है कि मौखिक परीक्षा में अंकों को कम करने, उनको लिखित परीक्षा के अंकों से जोड़ने, वायवा में अंक देने के लिए ठोस मापदंड तय किए जायें और इसके जरिये अध्यापकों के पक्षपात को कम करने के लिए एक मज़बूत आंदोलन विकसित किया जाये। शिक्षा परिसरों का जनवादीकरण और छात्रों, अध्यापकों, कुलपतियों और अन्य उच्च पदों में वंचित समुदायों का प्रतिनिधित्व बढ़ाए बिना शिक्षण संस्थानों को मनु के ब्राह्मणवाद से छुटकारा नहीं पाया जा सकता।

(डॉ. विक्रम सिंह ऑल इंडिया एग्रिकल्चर वर्कर्स यूनियन के संयुक्त सचिव हैं।)

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