उत्तर प्रदेश के शामली जिले के पिंडौरा गांव के रहने वाले 38 साल के किसान कपिल खाटियान भारतीय किसान यूनियन के नेता हैं। इन दिनों वह गाजियाबाद-दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर धरने पर बैठे हैं। अचानक उनके मोबाइल की घंटी बजती है और राम-राम बोलकर बातचीत की शुरुआत करते हैं। जैसे ही बातचीत खत्म होती है, उनके साथ का एक युवा बताता है कि दिल्ली के एलआईयू वाले पूछताछ कर रहे हैं, वो जानना चाहते हैं कि धरने के कैंपों को चलाने के लिए फंडिंग कहां से हो रही है?
अचानक वह हमारी ओर मुखातिब होते हैं। कहते हैं कि सरकार यह भी करके देख ले। सरकार हम को खालिस्तानी, राष्ट्र विरोधी, आंदोलनजीवी कह चुकी। इस मोर्चे पर भी सरकार को मुंह की खानी होगी। उसे इन फालतू बातों पर धन और परिश्रम खर्च करने पर कुछ नहीं मिलने वाला है। खाटियान कहते हैं कि अपने खेत के अनाज से लंगर चला रहा हूं। अपनी गाड़ी से गांव के लोगों को लाता हूं और किसी को वापस घर जाने की जरूरत पड़ती है तो अपने ट्रैक्टर ट्राली और कार से घर भेजता हूं। समझ में नहीं आता कि सरकार फालतू चीजों, अफवाह फैलाने, फालतू की जांचों पर जनता का पैसा क्यों बर्बाद कर रही है।
खाटियान लगातार चल रहे लंबे धरने से स्वास्थ्य संबंधी कई समस्याओं से ग्रस्त हो गए हैं। इसकी वजह देर रात तक जागते रहना, लोगों के बीच तालमेल करने के लिए भागदौड़ और सुबह सबेरे उठ जाना है। वह कहते हैं कि यह सब रोग सरकार ने पकड़ाए हैं। हम कहां चाहते हैं कि खेत खलिहान, गांव छोड़कर सड़क पर बैठे रहें। खाद, बीज, कीटनाशक, सिंचाई और क्रेडिट कार्ड के दुष्चक्र में सालों साल ऐसे फंसे रहते हैं कि चौबीस घंटे का तनाव रहता है। कोई प्राकृतिक आपदा आ जाए, फसल नष्ट हो जाए तो वह अलग मुसीबत। वह कहते हैं कि बीमा से किसानों को नहीं, बीमा कंपनियों को ही फायदा होता है।
खाटियान का 10 लोगों का परिवार है और 5 एकड़ खेत। वह बताते हैं कि दो तिहाई खेत में गन्ना बोया जाता है, जिससे नकदी मिल जाए। एक तिहाई हिस्से में गेहूं, चावल, तिलहन, दलहन की बुआई होती है, जो साल भर अपने और पशुओं के खाने को होता है। प्रतिदिन 100 रुपये सब्जी पर खर्च हो जाते हैं और 100 रुपये रोज पशु आहार पर खर्च होते हैं। इसके अलावा फीस, कपड़ा आदि मिलाकर रोजाना का खर्च 1,000 रुपये आ जाता है। वह बताते हैं कि गन्ने का पैसा 6 महीने से फंसा है, तीन एकड़ जमीन से करीब पौने दो लाख रुपये गन्ने के मिलते हैं। अगर मिल ने पैसे दे भी दिए तो वह साल भर का खर्चा चलाने के लिए पूरा नहीं पड़ता। खाटियान का कहना है कि इसकी भरपाई किसान साइड में कुछ और काम करके करते हैं। खाटियान के पास ट्रैक्टर है और वह बताते हैं कि जो उनसे भी छोटे किसान हैं, उनके खेत जोतकर खेती पर आने वाला खर्च निकल जाता है और किसी तरह से जिंदगी चल पाती है।
खाटियान का कहना है कि सरकार का राष्ट्र विरोधी फॉर्मूला फेल हो गया। किसानों के इस आंदोलन में कम से कम उनके इलाके में हिंदू-मुस्लिम सहित सभी तरह के भेदभाव खत्म हो गए हैं। गांव में न तो मुस्लिमों के खतरे जैसी बकवास कोई सुनने को तैयार है, न जातीय बहसें हो रही हैं। सिर्फ एक ही चर्चा है कि सरकार अब हम लोगों के अनाज पर भी उद्योगपतियों का कब्जा करा देना चाहती है।
लंबे समय से चल रहे आंदोलन को कब तक खींच पाएंगे? इस सवाल से खाटियान जरा भी निराश नहीं होते हैं। उनका कहना है कि हम लोगों ने बैच बना रखे हैं। कुछ लोग एक हफ्ते बैठते हैं, फिर अगले हफ्ते नई टीम बैठती है। हम लोग पूरी कवायद कर रहे हैं कि खेती बाड़ी का कोई नुकसान न हो।
गर्मियां आ जाने पर पॉलिथीन में दिन-रात बैठे रहना मुश्किल होगा, इस सवाल के जवाब में वह कहते हैं कि अब हम छप्पर छानने (फूस का घर) की तैयारी कर रहे हैं। इन कैंपों को फूस के घर में तब्दील कर लेंगे, उनमें गर्मी कम लगती है।
खाटियान का कहना है कि सरकार के पास कोई विकल्प नहीं है। वह कृषि कानून वापस ले, उसी में उसका सम्मान है। बीच का कोई विकल्प नहीं होता।
(लेखिका प्रीति सिंह राजनीतिक विश्लेषक हैं, जिनके कई पोर्टल पर लेख प्रकाशित होते हैं। किसानों से बातचीत कर उन्होंने यह लेख भेजा है।)